view all

संडे स्पेशल: एक शानदार स्पिनर जिसे वो नहीं मिला, जिसका वो हकदार था

सोबर्स के अनुसार, वॉर्न महान स्पिनर हैं इसमें शक नहीं लेकिन सुभाष गुप्ते उनसे बेहतर लेग स्पिनर थे

Rajendra Dhodapkar

खेलों की दुनिया में अक्सर ऐसा नहीं होता कि किसी खिलाड़ी को उसकी प्रतिभा और उपलब्धियों के अनुपात में सम्मान और यश मिले. भारत जैसे देश में तो यह बात ज्यादा सटीक है जहां समाज जाति, धर्म, वर्ग और क्षेत्र की असमानताओं और भेदों में बंटा हुआ है. इसीलिए भारत के पहले और कई दशकों तक एकमात्र ओलिंपिक पदक विजेता खाशाबा जाधव को ओलिंपिक में जाने के लिए चंदा करना पड़ा था. उन्हें सरकारी नौकरी में बिल्कुल रिटायरमेंट के करीब एक प्रमोशन दिया गया .

सीके नायडू जैसी हस्ती को विज्जी के हाथों कैसा अपमान झेलना पड़ा, यह भी हम जानते हैं. सुभाष गुप्ते की कहानी जो एक महान स्पिनर के जादू की दास्तान होनी चाहिए थी, उसमें अंतिम अध्याय ऐसे अन्याय की कड़वाहट से भरा है.


सर गैरी सोबर्स ने एक किताब में शेन वॉर्न के बारे में लिखते हुए यह राय जाहिर की है कि वॉर्न महान स्पिनर हैं इसमें शक नहीं. लेकिन सुभाष गुप्ते उनसे बेहतर लेग स्पिनर थे. यह काफी लोगों की राय है कि सुभाष गुप्ते दुनिया के सर्वश्रेष्ठ लेग स्पिनर हुए हैं. बिशनसिंह बेदी ने कहीं कहा था कि लोग हमारी स्पिन चौकड़ी को महान कहते हैं, हम लोग महान गेंदबाज हैं या नहीं, मैं नहीं जानता. मेरी नजर में अगर कोई निर्विवाद महान स्पिनर है तो वे सुभाष गुप्ते हैं.

कभी अच्छे से महान नहीं बन पाए सुभाष

सुभाष गुप्ते के आंकड़े बहुत अच्छे हैं लेकिन वे भी उनकी महानता को पूरी तरह नहीं दर्शाते. वे उस दौर में खेल रहे थे, जब भारतीय टीम बहुत कमजोर थी और उसकी फील्डिंग का स्तर बल्लेबाजी और गेंदबाजी से भी खराब था. उस दौर के दोनों बड़े गेंदबाजों, वीनू मांकड और गुप्ते की गेंदों पर इतने कैच न छूटे होते तो उनके गेंदबाजी के आंकड़े कुछ और ही होते .

जैसे अगर भारत की स्पिन चौकड़ी को के दौर में एकाध भी अच्छा तेज गेंदबाज होता तो उनके आंकड़े बहुत बेहतर होते. चाहे गुप्ते, मांकड हों या प्रसन्ना, बेदी, किसी भी किस्म की विकेट पर दसों विकेट लेने की जिम्मेदारी उन्हीं पर होती थी.

गुप्ते ने दस विकेट प्रथम श्रेणी क्रिकेट में दो बार लिए और टेस्ट क्रिकेट में एक बार ऐसा करने से एक विकेट से चूक गए, जब उन्होंने मजबूत वेस्टइंडीज टीम के खिलाफ सन 1958 में कानपुर टेस्ट में 102 रन देकर 9 विकेट लिए. दसवां विकेट वसंत रांजणे को मिला. गुप्ते का कहना था कि अगर रांजणे की जगह मांकड होते तो गेंद स्टंप से बाहर डालते ताकि दसवां विकेट भी गुप्ते को ही मिले. खैर, रांजणे को भी दोष नही दे सकते. वह उनकी पहले टेस्ट की पहली इनिंग थी और लांस गिब्स का विकेट उनके टेस्ट जीवन का पहला विकेट था. गुप्ते तो विकेट लेते ही रहते थे, हर देश में, हर परिस्थिति में.

गुप्ते औसत कद के छरहरे खिलाड़ी थे जो गेंद को बहुत घुमाव दे सकते थे. उनका लेंथ, लाइन, फ्लाइट और गति पर नियंत्रण भी कमाल था. उनकी गुगली पहचानना बड़े-बड़े बल्लेबाजों के लिए मुश्किल था, बल्कि कहा जाता है कि वे दो किस्म की गुगली डाल सकते थे. उनकी क्रिकेट की समझ भी जोरदार थी. सही मायने में वे एक संपूर्ण शास्त्रीय लेग स्पिनर थे तभी सोबर्स उन्हें सर्वश्रेष्ठ लेग स्पिनर कहते हैं .

सोबर्स ही क्यों, सारे वेस्टइंडीज के वे प्रिय गेंदबाज रहे. इसकी बड़ी वजह वेस्टइंडीज की शानदार बल्लेबाजी के खिलाफ उनका प्रदर्शन था. वेस्टइंडीज़ के साथ उनका प्रेम प्रसंग सन 1952 - 53 के वेस्टइंडीज दौरे में शुरू हुआ जब तीन डब्ल्यू , रे, स्टॉलमेयर और पयरॉड्यू जैसे बल्लेबाजों वाली टीम के खिलाफ उन्होंने 27 विकेट लिए .

निजी जिंदगी में भी ट्रिनिडाड से रहा खास रिश्ता

सारे वेस्टइंडीज द्वीपसमूह में वे बड़े स्टार बन गए थे. उनका वास्तविक प्रेम प्रसंग भी उसी दौरे पर शुरू हुआ जब ट्रिनिडाड की एक लड़की, कैरोल से उनका प्रेम शुरू हुआ. उनके भारत लौटने के बाद भी चिट्ठियों से उनका यह प्रसंग जारी रहा और फिर दोनों ने शादी कर ली. ट्रिनिडाड के एक क्रिकेट प्रेमी सज्जन ने उन्हें वहां नौकरी भी दे दी और वे वहां बस गए. क्रिकेट खेलने वे भारत आते रहे .

सन 1961 में इंग्लैंड के खिलाफ दिल्ली टेस्ट के दौरान उनके रूम पार्टनर एजी कृपालसिंह ने कमरे से फोन करके होटल की महिला रिसेप्शनिस्ट से साथ ड्रिंक लेने का प्रस्ताव किया. रिसेप्शनिस्ट बुरा मान गईं और उन्होंने शिकायत कर दी . उस कमरे में रहने वाले दोनों खिलाड़ियों पर अनुशासन की कार्रवाई के तहत उन्हें टीम से निकाल दिया गया जबकि कप्तान नरी कॉन्ट्रेक्टर के मुताबिक गुप्ते उनके कमरे में ताश खेल रहे थे .

कभी अनुशासनहीनता न करने वाले गुप्ते को यह अपमान बर्दाश्त नहीं हुआ. उन्होंने भारतीय टीम और टेस्ट क्रिकेट को अलविदा कहा और ट्रिनिडाड मे ही रह गए, जहां लोग उन्हे प्यार और सम्मान देते थे. हालांकि भारत भी उनके दिल में बसा रहा. भारतीय टीमें जब भी वेस्टइंडीज जातीं तो गुप्ते खिलाड़ियों से मिलते. सुनील गावस्कर ने जिक्र किया है कि एक बार ट्रिनिडाड में भारतीय टीम की नेट प्रैक्टिस के दौरान गुप्ते वहां पहुंचे और खिलाड़ियों के आग्रह पर उन्होंने नेट्स में कुछ गेंदबाजी भी की. गावस्कर कहते कि उस उम्र में भी उनका जादू बरकरार था.

सुभाष गुप्ते की मृत्यु 31 मई 2002 को हुई. भारतीय टीम तब ट्रिनिडाड में एकदिवसीय मैच खेलने के लिए पहुंची हुई थी. क्रिकेट लेखक राहुल भट्टाचार्य के मुताबिक गुप्ते की पत्नी कैरोल ने भारतीय कप्तान सौरव गांगुली से कहा कि शायद गुप्ते की आत्मा भारतीय टीम के साथ भारत लौटना चाहती थी. खेलों की दुनिया में अक्सर ऐसा नहीं होता कि किसी खिलाड़ी को उसकी प्रतिभा और उपलब्धियों के अनुपात में सम्मान और यश मिले .

भारत जैसे देश में तो यह बात ज्यादा सटीक है, जहां समाज जाति, धर्म, वर्ग और क्षेत्र की असमानताओं और भेदों में बंटा हुआ है. इसीलिए भारत के पहले और कई दशकों तक एकमात्र ओलिंपिक पदक विजेता खाशाबा जाधव को ओलिंपिक में जाने के लिए चंदा करना पड़ा था. सीके नायडू जैसी हस्ती को विज्जी के हाथों कैसा अपमान झेलना पड़ा यह भी हम जानते हैं. सुभाष गुप्ते की कहानी जो एक महान स्पिनर के जादू की दास्तान होनी चाहिए थी, उसमें अंतिम अध्याय ऐसे अन्याय की कड़वाहट से भरा है.