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संडे स्पेशल: रफ्तार के सिपाही, जिनका टेस्ट सफर एक नंबर से आगे नहीं बढ़ा

कपिल देव से पहले तेज गेंदबाजों को नहीं मिल पाता था टीम के साथ लगातार खेलने का मौका

Rajendra Dhodapkar

सुरिंदर अमरनाथ, मोहिंदर अमरनाथ से उम्र में दो साल बड़े थे. इंडियन स्कूल्स टीम में दोनों साथ-साथ खेले थे. इंग्लैंड के दौरे पर एक मैच की आखिरी दो गेंदों पर छक्के मार कर मैच जिताने के कारनामे की वजह से सुरिंदर नाम कमा चुके थे. पंद्रह साल की उम्र में वे रणजी ट्रॉफी टीम में आ गए थे और आकर्षक, आक्रामक बल्लेबाज की तरह जल्दी ही चर्चित हो गए थे.

ऑलराउंडर होने की वजह से मिलता था मौका 


छोटे भाई मोहिंदर को साल 1969 में टेस्ट मैच खेलने का मौका मिल गया जबकि बड़े भाई सुरिंदर को और आठ साल, सन 1976 तक इंतजार करना पड़ा. इसकी क्या वजह रही होगी? एक वजह तो यह रही होगी कि सुरिंदर दिल्ली और उत्तरी क्षेत्र के बल्लेबाज थे. उस दौर में यह माना जाता था कि बल्लेबाजी पर मुंबई या पश्चिमी क्षेत्र का एकाधिकार है. बाकी क्षेत्रों के बल्लेबाज इस लायक नहीं हैं कि टेस्ट मैच खेलें.

यह एक अलग लेख का विषय है, उस पर फिर कभी. दूसरी वजह उनके पिता लाला अमरनाथ का कड़क और मुंहफट अंदाज, जिसका खामियाजा उनके बेटों ने भी भुगता. लेकिन एक महत्वपूर्ण वजह मोहिंदर के जल्दी टेस्ट मैच खेलने की यह थी कि वे शुरुआती दिनों में बाकायदा ऑलराउंडर थे, जो ठीक-ठाक बल्लेबाजी के अलावा ठीक-ठाक मध्यम गति की गेंदबाजी भी करते थे और उन्होंने भारत के लिए ओपनिंग गेंदबाजी भी की.

काफी वक्त तक भारतीय टीम में आने का सबसे आसान रास्ता यह था कि आप थोड़ी बहुत बल्लेबाजी और मध्यम गति गेंदबाजी करते हों. लेकिन टीम से बाहर होने का भी यह सबसे आसान रास्ता था. यानी एक दरवाजे से ऐसे खिलाड़ी अंदर आते थे और जब तक उन्हें टेस्ट खिलाड़ी होने का अहसास हो, तब तक वे बाहर हो जाते थे.

निसार और अमर सिंह बड़े गेंदबाज थे, जिन्होंने भारत की पहली टेस्ट सीरीज में गेंदबाजी की. कहा जाता था कि निसार शुरुआती ओवरों में तब के तूफानी गेंदबाज लॉरवुड से ज्यादा तेज गेंद फेंक सकते थे. ऑलराउंडर अमर सिंह के बारे में कहा जाता है कि कपिल देव उनकी तरह थे. लेकिन उसके बाद भारत में ओपनिंग गेंदबाजी एक मजाक बन कर रह गई थी. घावरी, कपिल देव के कुछ सम्मानपूर्ण दौर के पहले बीच के दौर में सिर्फ रमाकांत देसाई एक उल्लेखनीय नाम हैं. इस विषय पर हम कुछ चर्चा पहले कर चुके हैं लेकिन एक बार फिर सही.

लंबे वक्त तक भारत में यह माना जाता था कि तेज गेंदबाजी कोई विदेशी चीज है, जिसका भारतीय क्रिकेट से कोई ताल्लुक नहीं है. शायद केकी तारापुर थे जिनसे एक कैंप के दौरान युवा कपिल देव ने कहा था कि वह तेज गेंदबाज बनना चाहते हैं तो उन्हें हिकारत भरा जवाब मिला - तेज गेंदबाज़! हमारे यहां तेज गेंदबाज नहीं हुआ करते. भारत में उस दौर में बहुत बड़े स्पिनर हुए. भारत की घरेलू पिचें भी स्पिन के लिए अनुकूल बनाई जाती थी. ऐसे में किसी उभरते हुए तेज गेंदबाज को प्रोत्साहित करने के लिए कुछ नहीं था.

भारतीय टेस्ट टीम में भी यह माना जाता था कि किसी तरह गेंद की चमक घिसने के लिए कोई गेंदबाज चाहिए, ताकि स्पिनर गेंदबाजी कर सकें. ऐसे में यह जरूरी माना जाता था कि शुरुआती गेंदबाज की बल्लेबाजी ठीक ठाक होनी चाहिए, सिर्फ शुरुआती गेंदबाजी करना काफी नहीं था. हमारे मित्र वरिष्ठ पत्रकार राजीव कटारा बताते हैं कि लाला अमरनाथ उस वक्त सुनील वॉल्सन से कहते थे- काके, थोड़ी बैंटिंग सीख ले, सिर्फ तेज गेंदबाजी करके कोई इंडिया नहीं खेल सकता. सुनील वॉल्सन जैसा गेंदबाज एक भी टेस्ट नहीं खेल पाया, इसकी वजह यही होनी चाहिए. अगर कपिल देव भी बल्लेबाजी न करते, तो शायद इतने कामयाब नहीं होते.

कई खिलाड़ियों ने खेला है बस एक टेस्ट

भारत में इसलिए ओपनिंग गेंदबाजों को बस यूं ही लाया और निकाला जाता रहा. अगर उन खिलाड़ियों की लिस्ट देखी जाए जो भारत के लिए सिर्फ एक टेस्ट मैच खेले तो उनमें ऐसे ही खिलाड़ियों की बहुतायत होगी जो मध्यमगति गेंदबाज थे. ऐसे सैंतालिस खिलाड़ी हैं जिन्हें सिर्फ एक टेस्ट खिला कर अयोग्य घोषित कर दिया गया, उनमें सरसरी नजर से देखने पर भी कई नाम दिखते हैं.

एल रामजी, एमके गोपालन, शाह न्यालचंद, नारायणस्वामी, बाल दाणी, हीरालाल गायकवाड, युवराज सिंह के पिता योगराज सिंह, इक़बाल सिद्दीक़ी, राशिद पटेल, अजित पै,राजिंदर पाल, दो रॉबिन सिंह हैं, जो भारत के लिए सिर्फ एक टेस्ट खेले हैं. एस बनर्जी नाम के तीन खिलाड़ी हैं जो एक टेस्ट खेले हैं. तीनों मध्यम गति के गेंदबाज थे. पहले स्निग्धांशु "मॉन्टी" बनर्जी, दूसरे शूटे बनर्जी, जिन्होंने अपने एकमात्र टेस्ट मैच की एक इनिंग्ज में चार विकेट लिए थे. तीसरे सुब्रत बनर्जी. इसमें कुछ नाम छूट रहे होंगे. हालांकि इस दौर के विनय कुमार और जयदेव उनादकट को मैं इस लिस्ट में शामिल नहीं कर रहा हूं.

जिस देश में तेज गेंदबाजी की ऐसी उपेक्षा होती हो, जाहिर है कि उसके बल्लेबाजों की भी यह ख्याति होगी कि वे तेज गेंदबाजी के आगे लड़खड़ा जाते हैं. पिछली बार हमने जिक्र किया था कि कैसे सन 1952 के इंग्लैंड दौरे पर पहले टेस्ट मैच में भारत के चार विकेट शून्य पर निकल गए थे. तेज गेंदबाजी की ऐसी उपेक्षा एक बड़ी वजह है कि भारतीय टीम तमाम प्रतिभाशाली खिलाड़ियों के होते हुए भी लंबे वक्त तक कमजोर बनी रही. और यह भी सोचिए कि उमेश यादव, मोहम्मद शमी और इशांत शर्मा जैसे तेज गेंदबाजों को भारतीय टीम में खेलते हुए देखना कितनी बड़ी नियामत है. जिन्हें विकेटकीपर बुधी कुंदरन, सुनील गावस्कर और चंद्रशेखर द्वारा शुरुआती ओवर डालने की याद है, उनके लिए तो यह बहुत बड़ा सुकून है.