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संडे स्पेशल: क्यों आसान नहीं है भारतीय क्रिकेट टीम का कप्तान बनना और बने रहना?

भारत में प्रधानमंत्री के बाद दूसरा सबसे महत्वपूर्ण पद भारतीय क्रिकेट टीम के कप्तान का है

Rajendra Dhodapkar

हम जैसे लोग जो बुढ़ापे की ओर अग्रसर हैं वे अतीत के प्रति थोड़े पक्षपाती होते हैं , लेकिन यह हमें स्वीकार करना पड़ेगा कि मौजूदा भारतीय टीम अब तक की सर्वश्रेष्ठ भारतीय टीम होने की प्रबल दावेदार है.


हम यह भी कह सकते हैं कि अगर विराट कोहली इसी तरह से चलते रहे तो वे अब तक के सर्वश्रेष्ठ कप्तान कहलाने के हकदार होंगे. मेरी निजी राय में इस सम्मान के दूसरे दावेदार सौरव गांगुली होंगे, कप्तानी के गुणों में वे कोहली को टक्कर दे सकते हैं लेकिन कोहली के पास बेहतर टीम है, इसलिए उनका रिकॉर्ड भी बेहतर है. तीसरे  बड़े कप्तान नवाब पटौदी थे जिन्होंने भारतीय टीम को को जूझना और जीतना सिखाया 

कोहली की यह शुरुआत है और शुरुआत बहुत अच्छी है. शुरुआत में महेंद्र सिंह धोनी भी बहुत अच्छे कप्तान थे, जब वे अपनी जड़ों को लेकर संवेदनशील थे. बाद में टेस्ट क्रिकेट के प्रति उनकी अरुचि ने भारतीय टीम को टेस्ट मैचों मे नुकसान पहुंचाया, सीमित ओवरों के बड़े कप्तान वे अपनी कप्तानी के अंत तक थे, बल्कि एक पूर्व कप्तान की तरह वे कोहली का जैसे साथ दे रहे हैं, वह भी उल्लेखनीय है.

एन श्रीनिवासन के दौर में क्रिकेट बोर्ड की सत्ता की राजनीति का असर भी उन पर अच्छा नहीं रहा, बाद में उनके व्यक्तिगत दुराग्रह भी दिखने लगे थे. कुछ आग्रह गांगुली के भी थे लेकिन वे ज्यादा परिपक्व कप्तान थे. अगर कोहली ऐसे गड्ढों से बच सकें तो वे बहुत बड़े कप्तान बन सकते हैं.

जाहिर है भारतीय टीम का कप्तान भी इन्सान ही होता है और उसमें कुछ कमजोरियां भी होती ही हैं. फिर भारतीय टीम का कप्तान होना कोई छोटे मोटे पद पर बैठना नहीं है. स्वर्गीय दिलीप पाडगांवकर जब 'द टाइम्स ऑफ इंडिया के संपादक थे तो उन्होंने एक इंटरव्यू में कहा था कि वे भारत के प्रधानमंत्री के बाद दूसरे सबसे महत्वपूर्ण पद पर आसीन है.

इस बयान पर बहुत चर्चा चली थी , खास तौर पर इसलिए कि उसके कुछ दिन बाद मालिकों ने अपने अखबारो से संपादक का पद ही हटा दिया. यह बात अलग है लेकिन यह ज्यादा सही है कि भारत में प्रधानमंत्री के बाद दूसरा सबसे महत्वपूर्ण पद भारतीय क्रिकेट टीम के कप्तान का है. क्रिकेट की हमारे यहां जैसी लोकप्रियता है और उससे जितना पैसा और रसूख जुड़ा है, उसके चलते भारतीय क्रिकेट टीम का कप्तान बहुत बड़ी तोप हो जाता है, खास कर अगर वह कामयाब हो और क्रिकेट के सत्ताप्रतिष्ठान का समर्थन उसे हासिल हो.

गौरवशाली नहीं रहा कप्तानी का इतिहास

ऐसा हमेशा से नहीं रहा. भारतीय टीम में कप्तानी की कथा बहुत गौरवशाली नही रही है. एक तो इसकी शुरुआत ही बुरी हुई जब पहले आधिकारिक दौरे पर सीके नायडू जैसी हस्ती की उपेक्षा करके महाराजा विजयनगरम को कप्तान बनाया गया. इस दौरे के विवादों का जिक्र हम लाला अमरनाथ वाले लेख में कर चुके हैं. विज्जी बड़े क्रिकेटप्रेमी थे लेकिन क्लब स्तर के खिलाड़ी भी नहीं थे. टीम पर अपना राज कायम करने के लिए उन्होंने फूट डालने वाले षड्यंत्रों का सहारा लिया. विज्जी कप्तान बने भी पैसे और रसूख़ के दम पर ही.

भारतीय टीम की शुरुआती सालों मे कमजोरी यह थी कि वह टीम ही नहीं होती थी. अलग अलग जोन के पदाधिकारियों की खुले आम रस्साकशी होती थी और टीम के खिलाड़ी भी इसी तरह बंटे होते थे. कप्तान का चयन भी ऐसे ही होता था और पदाधिकारी इस बात का विशेष ख्याल रखते थे कि कप्तान ज्यादा स्वायत्त या आजाद न हो जाए. तब टेस्ट क्रिकेट होता भी कम था और सब खिलाड़ी भी तभी जुटते थे लेकिन अक्सर वे एक दूसरे की भाषा और संस्कृति से अनजान होते थे, इसलिए वे भी गुटों में बंटे होते थे और कप्तान दूसरे क्षेत्रों के खिलाड़ियों के प्रति खुला भेदभाव करते थे.

सीडी गोपीनाथ को नहीं मिला था कप्तानों का साथ

सीडी गोपीनाथ पचास के दशक के स्टाइलिश बल्लेबाज थे जो तत्कालीन मद्रास राज्य से खेलते थे. उन्हें बल्लेबाज की तरह टीम में शामिल किया गया लेकिन वे अपने आठ साल लंबे खेल करियर में सिर्फ आठ ही टेस्ट मैच खेल सकें. गोपीनाथ का कहना है कि उन्हें शुरुआत में कप्तान विजय हजारे ने नंबर आठ पर बल्लेबाजी करवाई.

इंग्लैंड के दौरे पर तो एकाध बार उनसे नंबर नौ पर बल्लेबाजी करवाई गई. जाहिर है  उन्हें यह जताया जाता रहा कि टीम में उनकी कोई जगह नहीं है और हम समझ सकते हैं कि एक टॉप ऑर्डर बल्लेबाज आठवें या नौवें नंबर पर बल्लेबाजी करते हुए कैसा महसूस करता होगा?

गोपीनाथ ने अपने मित्र गुलाम अहमद से शिकायत की तो वे बोले, तुम मद्रास के खिलाड़ी हो, तुम्हारे साथ इसीलिए ऐसा सुलूक  हो रहा है. ऐसे कई किस्से हैं. 1958 -59 में वेस्टइंडीज के भारत दौरे के दौरान चयनकर्ताओं की खींचतान की वजह से पांच टेस्ट में पांच अलग अलग कप्तानों ने कप्तानी की. ऐसे में लाला अमरनाथ जैसे शानदार कप्तान का वक्त भी प्रतिष्ठान से लड़ने में बीता और बाद में बतौर चयनकर्ता भी वे क्षेत्रीय स्वार्थों और गुटबाजी के खिलाफ जूझते हुए दिखाई दिए.

पटौदी टीम के लिए साबित हुए थे अच्छे कप्तान

सन 1961 के वेस्टइंडीज दौरे पर कप्तान नारी कॉन्ट्रेक्टर, चार्ली ग्रिफिथ की गेंदबाजी पर गंभीर रूप से जख्मी हो गए और इक्कीस साल के जूनियर नवाब पटौदी को कप्तान बना दिया गया. यह उनका पहला दौरा था और इसके पहले वे सिर्फ इंग्लैंड में ही घरेलू क्रिकेट खेले थे. अपने टेस्ट जीवन की शुरूआत मे ही उनके कप्तान बनने की वजह उनका राजघराने से होना था, लेकिन पटौदी बहुत अच्छे कप्तान साबित हुए, उनके कार्यकाल में शायद पहली बार भारतीय खिलाड़ियों के काफी हद तक एक टीम की तरह खेलने की शुरुआत हुई.

पटौदी बाहरी आदमी थे और काफा अलग थलग भी रहते थे लेकिन इसका फायदा यह हुआ कि वे काफी हद तक क्षेत्रीय दबावों और दुराग्रहों से मुक्त थे. दूसरी खास बात यह है कि पटौदी का क्रिकेट प्रतिष्ठान और चयनकर्ताओं पर रौब चलता था इसलिए वे दूसरे किस्म के दबावों से भी मुक्त रहते थे, वरना बीसीसीआई में बैठे लोगों की लगातार कोशिश कप्तान को यह जताने की होती थी कि उसके आका कौन हैं और कप्तान को औकात दिखाने के लिए वे उसे कभी भी बदल भी देते थे.

बतौर कप्तान पटौदी की जैसी हैसियत थी वैसी बाद में काफी हद तक जगमोहन डालमिया के राज में सौरव गांगुली की और हद से कुछ ज्यादा धोनी की श्रीनिवासन युग में रही. पटौदी ने भारतीय क्रिकेट को उस राह पर चलाया जिस पर चल कर भारतीय टीम आज अपने इस मुकाम पर पहुंच गई है.

यह कोहली को मिली विरासत की आधी अधूरी कहानी है, लेकिन इससे तस्वीर का कुछ पहलू तो साफ हो जाता है.