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संडे स्पेशल: वेस्टइंडीज के महान बल्लेबाजों की परंपरा के आखिरी वारिस चंद्रपॉल

बल्लेबाजी के तमाम नियमों को किनारे रख कर वह महान बल्लेबाज बने

Rajendra Dhodapkar

अस्सी के दशक में यह लगता ही नहीं था कि वेस्टइंडीज की टीम का पतन हो सकता है. ऐसे में जब 1990 में ब्रायन लारा का आगमन हुआ तो यही लगा कि वेस्टइंडीज की टीम की परंपरा आगे बढ़ रही है. गॉर्डन ग्रीनिज और डेसमंड हेंस अब तक ओपनिंग कर रहे थे, विवियन रिचर्ड्स की जगह रिची रिचर्डसन आ गए थे. जो रिचर्ड्स तो नहीं थे, लेकिन अपने आप में बड़े बल्लेबाज थे. उनके तेज गेंदबाज वैसे ही कहर बरपा किए थे, कोर्टनी वाल्श और कर्टली एंब्रोज का मुकाबला करना दुनिया के किसी भी कोने की कैसी भी पिच पर मुश्किल था.

लारा ने शुरू से ही यह दिखा दिया कि वह वेस्टइंडीज के ही नहीं, दुनिया के महानतम बल्लेबाजों में अपनी जगह बना सकते हैं. उनकी शैली से लोगों को महान सोबर्स की याद आती थी और उनकी तुलना एक और उभरते हुए सितारे सचिन तेंदुलकर से हो रही थी. अब लोग इंतजार कर रहे थे कि वेस्टइंडीज की बल्लेबाजी में और कौन नए सितारे आते हैं जो रिटायर होने वाले दिग्गजों की जगह ले सकें.


1994  में टीम का नया सितारा बने चंद्रपॉल

धीरे-धीरे यह उम्मीद धूमिल होती गई. कीथ आर्थरटन, जिमी एडम्स जैसे खिलाड़ी जो शुरू में चमके वे अपनी चमक बरकरार नहीं रख पाए. स्टुअर्ट्स विलियम और शेरविन कैंपबेल जैसे ओपनर भी ग्रीनिज और हेंस की परंपरा आगे नहीं बढ़ा सके. ऐसे में इंग्लैंड के 1994 में वेस्टइंडीज के दौरे पर वेस्टइंडीज का वह अगला सितारा उभरा जो आने वाले वक्त में वेस्टइंडीज की बल्लेबाजी की रीढ़ बना और ब्रायन लारा के बाद भी वेस्टइंडीज की टूटती फूटती बल्लेबाजी को अपने कंधों पर उठाए रहा.

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शिवनारायण चंद्रपॉल कई मायनों में अनोखे खिलाड़ी थे. एक तो वह अपनी बल्लेबाजी की शैली में बिल्कुल वेस्टइंडियन नहीं थे. बल्कि वह बल्लेबाजी के तमाम मानदंडों पर गड़बड़ लगते थे. कोचिंग की सारी किताबों में लिखा है कि क्रीज पर बल्लेबाज के दोनों पैर क्रीज के समानांतर एक लाइन में होने चाहिए. शिवनारायण चंद्रपॉल के दोनों पांव इस तरह होते हैं जैसे वह टहलते टहलते रूक गए हों. कोचिंग की किताबें “साइड ऑन “ होने का महत्व बताते नहीं थकतीं, शिवनारायण चंद्रपॉल इतने “ फ्रंट ऑन “ होते हैं कि जावेद मियांदाद भी शरमा जाए. बताया जाता है कि क्रीज पर बल्लेबाज को यथा संभव स्थिर खड़े होना चाहिए. चंद्रपॉल गेंद खेलने के पहले अच्छी खासी चहलकदमी कर चुके होते हैं, यानी किताब में लिखे बल्लेबाजी के तमाम नियमों को किनारे रख कर वह महान बल्लेबाज बने.

इस मायने में लारा और शिवनारायण चंद्रपॉल दो विरोधी ध्रुव थे. जहां स्टाइलिश और आक्रामक लारा वेस्टइंडीज के महान बल्लेबाजों की परंपरा में दिखते थे, शिवनारायण चंद्रपॉल उस परंपरा के आखिरी वारिस थे, लेकिन वह अपनी शैली में बिल्कुल अलग थे. गौरतलब है कि कि ये दो ही वेस्टइंडियन बल्लेबाज हैं, जिन्होंने टेस्ट में दस हजार से ज्यादा रन बनाए हैं.

कई मायनों में बाकी बल्लेबाजों से खास थे चंद्रपॉल

जब शिवनारायण चंद्रपॉल  का पदार्पण हुआ तो कई ब्रिटिश अखबारों ने उन पर विस्तार से लिखा. यह स्वाभाविक ही था क्योंकि उनकी शुरुआत अंग्रेजों के खिलाफ ही हुई थी.  तमाम लेखकों ने उनके बारे में दो-तीन बातों का उल्लेख किया. उनकी अटपटी शैली, दूसरे, पुल के अलावा उनके पास कभी कोई शॉट नहीं था. इस मायने में भी वह वेस्टइंडीज के महान बल्लेबाजों से अलग थे. तीसरे, वह शायद ही कभी कम स्कोर पर आउट होते थे, लेकिन शतक भी नहीं लगा पाते थे. उनकी फिटनेस को लेकर भी सवाल बने रहे और उनकी लंबी इनिंग न खेल पाने की कमजोरी भी शायद इसी से जुड़ी थी. अपने करियर के पहले आठ सालों में उन्होंने सिर्फ दो शतक लगाए,  जबकि इस बीच पचास के पार के उनके अठारह स्कोर हैं.

पांव के एक ऑपरेशन के बाद उनकी फिटनेस की समस्या भी हल हो गई और वह लंबे स्कोर भी करने लगे. कुछ इस कदर कि वह आउट ही नहीं होते थे. अपनी लगभग बीस प्रतिशत से ज्यादा टेस्ट इनिंग में और एक चौथाई एक दिवसीय इनिंग में वह नॉटआउट रहे हैं. उनका करियर भी लंबा रहा, तकरीबन 19 साल. और अपने टेस्ट करियर के आखरी दस-ग्यारह सालों में उन्होंने 28 शतक लगाए. एकदिवसीय क्रिकेट में उनके इस दौर में नौ शतक थे.

उनका पूरा करियर वेस्टइंडियन क्रिकेट के गिरते ग्राफ का दौर था, जिसमें प्रतिभाशाली खिलाड़ी या तो आ नहीं रहे थे या आते थे तो वेस्टइंडीज का क्रिकेट प्रशासन उन्हें किनारे कर देने की प्रतिभा का प्रदर्शन करता रहा. क्रिस गेल, रामनारायण सरवन, ड्वेन ब्रावो जैसे खिलाड़ी तरह-तरह की वजहों से टीम के बाहर रहते रहे. 2006 -2007 में लारा के रिटायर होने के बाद अकेले चंद्रपॉल ही थे जो टीम के लिए टनों रन बनाते रहे. उनकी बल्लेबाजी की शैली हमेशा वैसी ही रही और गेंदबाजों के लिए उन्हें आउट कर पाना हमेशा उतना ही मुश्किल रहा.

वह वेस्टइंडीज के क्रिकेट के रंगीन और शोरगुल से भरपूर इतिहास में एक रहस्यमय किरदार जैसे लगते हैं. अपनी हैसियत से काफी नीचे के क्रम में बल्लेबाजी करने वाले, खामोश, बड़े स्ट्रोक लगाए बिना चुपचाप रन बनाने वाले, लेकिन वेस्टइंडीज की जॉर्ज हेडली और फ्रैंक वॉरेल की शानदार बल्लेबाजी की परंपरा को थामे रखने वाले आखिरी महान खिलाड़ी.