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संडे स्पेशल : महज एक कमी... और इसी के साथ करियर खत्म!

आखिर क्यों इतने प्रतिभाशाली क्रिकेटर टीम में अपनी जगह पक्की करने में नाकाम रहते हैं

Rajendra Dhodapkar

पिछले कई साल में जो सबसे आकर्षक खिलाड़ी भारतीय क्रिकेट में आए, उनमें युवराज सिंह थे. अगर युवराज के आंकड़े देखें तो वे उतने प्रभावशाली नहीं लगते. लेकिन उनके जैसी लोकप्रियता कम खिलाड़ियों को मिली होगी. वे काफी लंबे दौर तक जनता के हीरो थे. उनकी लोकप्रियता का विस्तार आम जनता से लेकर तो क्रिकेट के जानकारों तक था.

वे इसके हकदार भी थे.  उनके जैसी चमकदार बल्लेबाज़ी कम देखने में आती है.  उन जैसे लंबे छक्के भी कम ही खिलाड़ी लगा सकते हैं. तमाम कोच और कप्तान भी उनके प्रशंसक होते थे. उन्हें टीम में रखने के लिए कुछ फेरबदल भी कर लेते थे, जैसे सौरव गांगुली ने पाकिस्तान के दौरे पर ओपनर आकाश चोपड़ा को बाहर कर के युवराज को खिलाया. फिर राहुल द्रविड़ से ओपनिंग करवा दी. जाहिर है, द्रविड़ यह नहीं चाहते थे लेकिन शराफत में मान गए. गांगुली का कहना था कि युवराज जैसी प्रतिभा को बाहर रखना गलत लग रहा था.


युवराज का करियर उतना अच्छा नहीं चला, जितनी उम्मीद थी. एक नाज़ुक मौक़ पर उन्हें कैंसर हो गया, जिससे खुशकिस्मती से वे उबर गए. लेकिन एक ब्रेक जरूर लगा. उनकी एक तकनीकी कमी भी उनकी कामयाबी के आड़े आई. ऑफ स्टंप के आसपास उठती हुई गेंदें वे संभाल नहीं पाते थे. अंतरराष्ट्रीय क्रिकेट में गेंदबाजों ने यह कमजोरी भांप ली और इसका खामियाजा युवराज को उठाना पड़ा. और इस आकर्षक खिलाड़ी को हम उतना कामयाब होते नहीं देख पाए जितनी उम्मीद थी.

युवराज की तरह रैना का भी खेल रहा आकर्षक

दूसरे ऐसे खिलाड़ी जिनका उतना कामयाब न होना अखरता है, वे सुरेश रैना थे. हालांकि रैना और युवराज अब भी खेल रहे हैं. लेकिन टेस्ट टीम में अब इनके लिए जगह बना पाना नामुमकिन नहीं, तो बहुत मुश्किल जरूर है. रैना युवराज जितने आकर्षक नहीं रहे.  न उतने चमकदार थे. लेकिन अपनी तरह के जानदार खिलाड़ी वे भी थे और अब भी हैं. वे भी कप्तान और कोच की पसंद होते हैं. यहां तक कि ग्रेग चैपल जैसे कोच के भी वे प्रिय थे, जिन्होंने उनके उज्ज्वल भविष्य की घोषणा कर दी थी.

रैना के सर्वप्रिय होने की एक बड़ी वजह यह है कि वे अनुशासित और मेहनती खिलाड़ी हैं, जो टीम के लिए जी जान लगा देते हैं. सुरेश रैना भी शॉर्ट गेंदों के ख़िलाफ़ अपनी कमज़ोरी की वजह से उतने कामयाब नहीं हो पाए, जितनी उनसे उम्मीद थी.

ये दोनों खिलाड़ी अलग-अलग पारिवारिक, सामाजिक पृष्ठभूमि से आए. युवराज सुविधासंपन्न घर के थे.  उनके पूर्व क्रिकेटर पिता ने उन्हें क्रिकेटर बनाने के लिए तमाम सुविधाएं जुटा दीं थीं. रैना मध्यवर्गीय परिवार के थे जो लखनऊ के स्पोर्ट्स हॉस्टल में रहे थे. उत्तरप्रदेश क्रिकेट के मुश्किल, खतरनाक रास्तों से होकर निकला कोई भी खिलाड़ी बहुत कड़ियल होगा. ये दोनों ही अपनी शायद एक कमी पर पार नहीं पा सके.

तकनीकी कमजोरी पर जीत क्यों नहीं दर्ज कर पाते खिलाड़ी

यह सवाल अक्सर मन में आता है कि क्या उस स्तर पर कोई तकनीकी कमजोरी इतनी बड़ी होती है कि उसे पार न पाया जा सके? जो भी व्यक्ति अंतरराष्ट्रीय स्तर पर खेला है, ज़ाहिर है उसमें बिरले स्तर की प्रतिभा होगी. तभी वह उस स्तर तक पहुंच सका है. उन्हें सलाह और कोचिंग के लिए भी बेहतरीन सुविधाएं उपलब्ध होंगी. यह भी नहीं मान सकते कि अपने स्तर पर इन लोगों ने कोशिश और मेहनत नहीं की होगी. लेकिन सबके बावजूद वे एक कमजोरी से निजात नहीं पा सके जिसने उनके करियर पर प्रश्नचिह्न लगा दिया.

इससे विपरीत उदाहरण मुरली विजय का है. जब विजय का अंतरराष्ट्रीय करियर शुरू हुआ तो वे स्विंग के खिलाफ कमजोर नजर आते थे, बल्कि इंग्लैंड के शुरुआती दौरे पर यह लगा था कि अभिनव मुकुंद इस मायने में उनसे बेहतर हैं. बाद में विजय ने अपनी कमजोरी को दूर कर लिया और वे स्विंग होती हुई गेंदों के अपने दौर के सर्वश्रेष्ठ बल्लेबाज़ों में गिने जा सकते हैं. बल्कि यह कह सकते हैं कि पिछले लंबे दौर के वे सबसे काबिल और संपूर्ण टेस्ट ओपनर हैं.

मोहिंदर को कड़ी मेहनत और हेल्मेट ने बचाया था

पीछे जाएं तो एक उदाहरण मोहिंदर अमरनाथ का याद आता है. उन्होंने तेज गेंदबाजी के खिलाफ अपनी कमजोरी पर ऐसे विजय पाई कि वेस्टइंडीज़ के डरावने तेज गेंदबाजों के दौर में वे तेज गेंदबाजी के खिलाफ सर्वश्रेष्ठ बल्लेबाजों में शुमार हुए. इसमें काफी कुछ योगदान हेल्मेट का भी है. लेकिन अमरनाथ की हिम्मत, लगन और मेहनत के क़िस्से दिल्ली के लोग अब तक याद करते हैं.

ऐसे तमाम उदाहरण हैं कि किसी खिलाड़ी ने अपनी कमी पर काबू पा लिया और कामयाब हो गया और कोई खिलाड़ी ऐसा नहीं कर सका. एक छोर पर सुनील गावस्कर थे जो खुद किसी वैज्ञानिक की तरह बल्लेबाजी का बारीक विश्लेषण करके अपनी कमियों को दूर कर लेते थे. आज भी गावस्कर जैसे खेल का धागा-धागा अलग कर के देख सकते हैं, वैसा कोई नहीं कर सकता. शायद गावस्कर और तेंदुलकर के स्तर की प्रतिभा के साथ यह अपने खेल को गहराई से समझने की क्षमता भी साथ में एक के साथ एक फ्री मिलती है .

यह हो सकता है कि कुछ कमियां खिलाड़ियों के समूचे खेल में इतनी गहराई से शामिल होती हैं कि उन्हें अलग करके सुधारना नामुमकिन सा होता है. गावस्कर, तेंदुलकर और द्रविड़ जैसे खिलाड़ियों में ये कमियां लगभग नहीं होती हैं या सहवाग जैसे खिलाड़ियों में इन कमियों से निपटने का काम दूसरी खूबियां कर देती हैं. या यह भी हो सकता है कि जैसे गावस्कर कहते हैं कि खेल सिर्फ़ दस प्रतिशत शरीर का होता है , बाकी नब्बे प्रतिशत दिमाग का होता है. तो यह भी मुमकिन है कि समस्या मनोवैज्ञानिक हो.

एक कमजोरी कई समस्याओं को जन्म देती है

अक्सर यह भी होता है कि किसी समस्या को सुलझाने में जो दबाव आता है उससे समस्या ज्यादा उलझ जाए. एक समस्या यह भी है कि अपनी समस्या सुलझाने के लिए खिलाड़ी के पास वक्त बहुत कम होता है. अगर वह अंतरराष्ट्रीय खिलाड़ी है तो उसके पास अक्सर कुछ दिन भी नहीं होते. जब तक वह अपनी कमियां सुधारने के लिए संघर्ष करता है तब तक उसकी जगह कोई और ले उड़ता है. कभी कभी बहुत साल बाद यह समझ में आता है कि समस्या का क्या हल था या क्या गलती हो रही थी. संजय मांजरेकर की आत्मकथा इस मायने में दिलचस्प है. खेल करियर इस मायने में भी अलग है कि जो इन्सान के परिपक्व होने की की उम्र होती है वह खिलाड़ी के रिटायर होने की उम्र होती है.

शायद ये चीज़ें पूरी तरह समझी नहीं जा सकतीं, वरना ये सवाल ही क्यों खड़े होते. और यह अनिश्चितता भी तो खेल और जीवन के रोमांच का हिस्सा है.