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संडे स्पेशल: गंभीर छवि वाले खिलाड़ी के बारे में माना जाता है कि वह टेस्ट का ही विशेषज्ञ हो सकता है

भारत में इस छवि के खेल के शिकार राहुल द्रविड़ और वीवीएस लक्ष्मण जैसे खिलाड़ी हुए और अब ऐसा लगता है कि चेतेश्वर पुजारा इसी छवि के मारे हुए हैं

Rajendra Dhodapkar

जब एकदिवसीय क्रिकेट अपनी जड़ें जमाने लगा तो इस तरह के सवाल खड़े होने लगे कि कैसे खिलाड़ी इस प्रारूप में कामयाब हो सकते हैं. यह तो साफ था कि सीमित ओवरों में ज्यादा रन बनाने के लिए आक्रामक और बड़े शॉट खेलने वाले बल्लेबाज चाहिए होंगे. ऐसे में यह माना गया कि जो शास्त्रीय किस्म से बल्लेबाजी करते हैं वे बल्लेबाज सीमित ओवरों में नहीं चलेंगे.


यह भी माना गया कि विकेट लेने वाले गेंदबाज ज्यादा रन दे सकते हैं और यूं भी सीमित ओवरों के क्रिकेट में गेंदबाजी पर बहुत नियंत्रण होते हैं इसलिए ऐसे गेंदबाज चाहिए जो रन रोक सकें. ऐसे में माना गया कि स्पिनरख़ास तौर पर फ्लाइट देने वाले स्पिनर सीमित ओवरों के लिए बेकार हैं. तेज गेंदबाज भी बहुत उपयोगी नहीं माने गए. उनकी जगह रन रोक सकने वाले मध्यमगति के गेंदबाज ज्यादा उपयोगी माने गए.

कुल जमा निष्कर्ष यह निकला कि ऐसे बल्लेबाज चाहिए जो भले ही तकनीकी रूप से बहुत अच्छे नहीं हों लेकिन बड़े शॉट खेल सकें और ऐसे गेंदबाज चाहिए जो रन रोक सकें और सर्वश्रेष्ठ खिलाड़ी वह है जो ये दोनों काम कर सकें. कुछ लोगों ने निष्कर्ष निकाला कि सीमित ओवरों के क्रिकेट में विशेषज्ञ खिलाड़ियों का बहुत इस्तेमाल नहीं है, बल्कि “यूटिलिटी प्लेयर्स“ की जरूरत है. दूसरा निष्कर्ष यह निकला कि सीमित ओवरों का क्रिकेट ही भविष्य का क्रिकेट है इसलिए क्रिकेट में ही विशेषज्ञ खिलाड़ियों की जगह अब चुक रही है.

इंग्लैंड जैसे देशों में इस आधार पर यह तय पाया गया कि टेस्ट क्रिकेट और सीमित ओवरों के क्रिकेट में अलग-अलग किस्म के कौशल चाहिए इसलिए दोनों के लिए अलग-अलग टीमें बनाई जाएं. हालत यह थी कि जो सीमित ओवरों का कप्तान होता था वह टेस्ट टीम का खिलाड़ी होने की भी योग्यता नहीं रखता था. हम जैसे अज्ञानी लोग यह समझने लगे थे कि अगर क्रिकेट का भविष्य ऐसा है कि उसमें शानदार बल्लेबाजी और जानदार गेंदबाजी की जगह न होगी सिर्फ 'यूटिलिटी' खिलाड़ी होंगे तो देखने को क्या बचेगा.

किस्मत से ऐसा हुआ नहीं. जमीनी वास्तविकता यह थी कि ऑस्ट्रेलिया की टीम सारी टीमों से हर किस्म के क्रिकेट में सबसे मीलों आगे थी, जबकि टेस्ट क्रिकेट और सीमित ओवरों के क्रिकेट में उनकी टीम लगभग एक ही थी. वही मार्क वॉ और रिकी पोंटिंग दोनों में रन बनाते थे, वही शेन वॉर्न अपनी फ्लाइट और स्पिन से टेस्ट मैच में भी विकेट लेते थे और एकदिवसीय मैचों में भी. ग्लेन मैकग्रा अपनी स्विंग से हर तरह के खेल में कामयाब हुए. यही बात और टीमों के बारे में भी सच थी और अब भी है कि सीमित ओवरों के क्रिकेट में भी लंबे दौर तक कामयाबी उन्हीं खिलाड़ियों को मिलती है जो टेस्ट क्रिकेट में भी कामयाब रहते हैं. एक दिवसीय क्रिकेट के रिकॉर्ड देखने से यह पता चलता है कि सबसे अच्छा रिकॉर्ड उन्हीं खिलाड़ियों का है जिनका टेस्ट मैच में रिकॉर्ड भी अच्छा है, इक्का दुक्का अपवाद हो सकते हैं, लेकिन वे अपवाद ही हैं. यूटिलिटी प्लेयर्स वाली बात आखिरकार बात ही सिद्ध हुई.

इसके बावजूद यह बात बनी ही रही कि टेस्ट और सीमित ओवरों के विशेषज्ञ खिलाड़ी अलग-अलग होते हैं. कुछ खिलाड़ियों पर यह ठप्पा लग गया कि वे लंबे दौर के क्रिकेट के ही खिलाड़ी हैं. यह मुख्यत: छवि का मामला होता है. अगर खिलाड़ी बहुत सादा मिजाज हो, ज्यादा तड़कभड़क या फ़ैशन के चक्कर में ना पड़ता हो तो यह मान लिया जाता है कि वह टेस्ट का खिलाड़ी है और सीमित ओवरों के क्रिकेट में नहीं चलेगा. जिस खिलाड़ी की छवि गंभीर हो, उसके बारे में यह माना जाता है कि वह पुराने किस्म के क्रिकेट का ही विशेषज्ञ हो सकता है.

भारत में इस छवि के खेल के शिकार राहुल द्रविड़ और वीवीएस लक्ष्मण जैसे खिलाड़ी हुए और अब ऐसा लगता है कि चेतेश्वर पुजारा इसी छवि के मारे हुए हैं. द्रविड़ और वीवीएस लक्ष्मण का एकदिवसीय मैचों का रिकॉर्ड कई सीमित ओवरों के विशेषज्ञ माने जाने वाले खिलाड़ियों से बहुत बेहतर है, लेकिन उन पर टेस्ट मैच स्पेशलिस्ट का जो ठप्पा लगा वह लगा ही रह गया. द्रविड़ को तो एकदिवसीय टीम में अपनी जगह बनाने के लिए विकेटकीपिंग भी करनी पड़ी.

क्रिकेट बहुत हद तक छवियों का खेल भी है. कुछ खिलाड़ियों के बारे में छवि बन जाती है कि वे बहुत गंभीर हैं तो कुछ खिलाड़ियों के बारे में यह छवि बन जाती है कि वे बहुत 'कैजुअल' हैं, और चयनकर्ता उन्हें गंभीरता से नहीं लेते. कुछ खिलाड़ी ऐसे हैं जो तेजी से रन बनाते हैं इसलिए वे सीमित ओवर के क्रिकेट के लिए ही उपयुक्त हैं. वीरेंद्र सहवाग को शुरू में ऐसा ही खिलाड़ी माना गया, लेकिन दिलचस्प यह है कि उनका टेस्ट रिकॉर्ड,एकदिवसीय क्रिकेट में उनके रिकॉर्ड से काफी बेहतर है. यही बात डेविड वॉर्नर के बारे में भी सच है.

पिछले दिनों चेतेश्वर पुजारा का एक बयान आया था कि उन्हें आईपीएल में जगह इसलिए नहीं मिली क्योंकि उनकी छवि उसके आड़े आ गई. यह बहुत हद तक सही है. टेस्ट मैचों में पुजारा ने बड़ी धीमी पारियां खेली हैं, लेकिन उन्होने कई बार यह भी दिखाया है कि वे बहुत तेजी से खेल सकते हैं. उन्होने पांच ही एकदिवसीय अंतरराष्ट्रीय मैच खेले हैं और उनमें उनका रिकॉर्ड बहुत खराब है, लेकिन लिस्ट ए मैचों में उनका औसत लगभग अट्ठावन रन प्रति इनिंग है. लेकिन उन पर गंभीर खिलाड़ी होने का जो ठप्पा लगा है उसे देखते हुए यह मान लिया गया है कि एकदिवसीय या टी-ट्वेंटी जैसे “अगंभीर“ किस्म के खेल उनके लिए नहीं हैं.

द्रविड़, लक्ष्मण, कुंबले,पुजारा जैसे खिलाड़ी अपनी इसी गंभीर छवि की वजह से ही उतने बड़े स्टार नहीं हो पाए जितना अपने खेल की वजह से वे हकदार थे. कुंबले भारतीय क्रिकेट के सबसे बड़े मैच विनर खिलाड़ियों में से हैं.  उनके दौर में सबसे ज्यादा मैच जिताने में उनकी भूमिका रही है, लेकिन वह हीरो कभी नहीं बन पाए. क्या अगर ये खिलाड़ी कान में बाली पहनते, टैटू गुदवा लेते, बाल बढ़ा लेते तो बड़े स्टार होते या सीमित ओवरों के भी बड़े खिलाड़ी मान लिए जाते? पता नहीं, शायद ऐसा ही हो.