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संडे स्पेशल: एक वक्त बंबई की रणजी टीम में आ पाना भारतीय टीम में आने से ज्यादा मुश्किल था

घरेलू क्रिकेट में मुंबई की जैसी उपलब्धियां हैं, उसके आसपास कोई टीम नहीं फटक सकती

Rajendra Dhodapkar

पिछले दिनों मुंबई ने अपना 500वां रणजी ट्रॉफी मैच खेला. इस मैच के पहले रणजी ट्रॉफी में मुंबई की उपलब्धियों की और खासियतों की खूब चर्चा हुई. यह स्वाभाविक ही था, क्योंकि घरेलू क्रिकेट में मुंबई की जैसी उपलब्धियां हैं, उसके आसपास कोई टीम नहीं फटक सकती. रणजी ट्रॉफी के 83 सालों में 46 बार मुंबई फाइनल में पहुंची है और 41 बार वह रणजी ट्रॉफी जीतने में कामयाब हुई है. दूसरे नंबर पर दिल्ली है जो आठ बार और तीसरे नंबर पर कर्नाटक है जो सात बार विजेता रही है. इन आंकड़ों से मुंबई के वर्चस्व का पता लग सकता है. लेकिन मुंबई का 500वां मैच उसके लिए बहुत उत्साहवर्धक नहीं रहा. बड़ौदा से पारी की हार बचाने में वह मुश्किल से कामयाब हुई.

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जब हमने क्रिकेट देखना-समझना शुरू किया तो वह मुंबई, जिसे उन दिनों बांबे या बंबई भी कहा जाता था, उसके सबसे जोरदार वर्चस्व का दौर था. सन 1958-59 से 1972-73 तक मुंबई ने लगातार पंद्रह बार रणजी ट्रॉफी पर कब्जा जमाया. उस वक्त मुंबई और दूसरी टीमों के बीच जमीन आसमान का फर्क था. इसका नतीजा यह था कि अक्सर भारतीय टीम में आधे से ज्यादा खिलाड़ी बंबई के होते थे, कभी कभी सात आठ तक, बल्कि यह कहा जाए कि भारतीय टीम में आधे से ज्यादा खिलाड़ी मुंबई के एक इलाके दादर के दो क्लबों, दादर यूनियन और शिवाजी पार्क जिमखाना से हुआ करते थे.

मुंबई से खेलने के पहले टेस्ट पदार्पण कर चुके थे सरदेसाई

दिलीप सरदेसाई कहते हैं कि उस दौर में बंबई की रणजी ट्रॉफी टीम में आ पाना भारतीय टीम में आने से ज्यादा मुश्किल था. खुद सरदेसाई मुंबई के लिए खेलने से पहले भारतीय टीम में आ चुके थे, दूसरे ऐसे खिलाड़ी मनोहर हार्डीकर थे जो मुंबई से खेलने के पहले टेस्ट में पदार्पण कर चुके थे.

जब हमने क्रिकेट देखना शुरू किया तब मुंबई की टीम एक किंवदंती की तरह लगती थी, सुनील गावस्कर, रामनाथ पारकर, दिलीप सरदेसाई, अजित वाडेकर, अशोक मांकड, फ़ारूख इंजीनियर, एकनाथ सोलकर, पद्माकर शिवालकर जैसे खिलाड़ियों की टीम ऐसी लगती थी कि सामने वाली टीमें खेल शुरू होने के पहले ही अपनी आधी ताकत गंवा देती थीं. इन पंद्रह सालों के पहले भी मुंबई की टीम एकाध साल के हेरफेर से रणजी ट्रॉफी जीतती ही रहती थी.

मुंबई में क्रिकेट एक संस्कृति है

जाहिर है तब भी मुंबई और दूसरी टीमों में फर्क तो था, लेकिन इतना न था. शुरू के दौर में क्रिकेटप्रेमी राजाओं की वजह से बड़ौदा और होलकर की टीमें अच्छी थीं. कुछ और टीमें भी ठीक ठाक थीं, लेकिन शायद आजादी के बाद राज्यों के पुनर्गठन की वजह से कुछ टीमें गड़बड़ हो गईं. मुंबई क्रिकेट के इस वर्चस्व की वजहों पर बहुत कुछ लिखा जा चुका है. इसकी सबसे बड़ी वजह यही है कि मुंबई में क्रिकेट की एक संस्कृति है. मुंबई के मौजूदा और पूर्व खिलाड़ी और खेलप्रेमी इस संस्कृति को समझते हैं, उसका सम्मान करते हैं और उसे बनाए रखने में अपनी जिम्मेदारी महसूस करते हैं.

प्रतिभाशाली खिलाड़ी पर रहती है सबकी नजर

मुंबई में क्रिकेट से जुड़ा हर व्यक्ति, चाहे वह आम दर्शक ही क्यों न हो अपने को मुंबई क्रिकेट का हिस्सा मानकर गौरवान्वित महसूस करता है. इसीलिए वहां के हर प्रतिभाशाली खिलाड़ी पर सबकी नजर रहती है और उसे तैयार करने और प्रोत्साहित करने में वे हाथ बंटाते हैं. बड़े से बड़े खिलाड़ी को यह मालूम होता है कि कौन से स्कूली बच्चे में प्रतिभा है और वे उसकी चर्चा भी करते हैं. सचिन तेंदुलकर जब 12 साल के थे तभी से मुंबई के क्रिकेट हलकों में उनकी चर्चा शुरू हो गई थी और जब वह अपना पहला रणजी ट्रॉफी मैच खेल रहे थे तो दर्शकों में सुनील गावस्कर भी बैठे थे.

मुंबई में स्थानीय प्रतियोगिताओं का अच्छा खासा तंत्र है और उनमें मुकाबला भी कड़ा होता है. इसके अलावा कोचिंग का इंतजाम भी बहुत अच्छा है. मुंबई के मुकाबले प्रतिभाओं की एक ही ऊर्वर जमीन मैंने देखी है, वह है दिल्ली. दिल्ली में कोच और मैदान भी बेहतरीन हैं, लेकिन इन सबकी उपेक्षा या दुरुपयोग कैसे किया जाए यह भी दिल्ली से सीखा जा सकता है.

दिल्ली और कर्नाटक ने दी मुंबई के वर्चस्व को चुनौती

लेकिन दिल्ली के क्रिकेट में एक दौर तब भी था जब उसने मुंबई के वर्चस्व को जोरदार चुनौती दी. सत्तर के दशक में देश के दो बड़े स्पिनर, ईएएस प्रसन्ना और बिशन सिंह बेदी अपने-अपने राज्यों के, यानी कर्नाटक और दिल्ली के कप्तान बने और दोनों ने मुंबई का एकाधिकार तोड़ने की शुरुआत की.

1974 में कर्नाटक ने मुंबई को सेमीफाइनल में हराया और राजस्थान को फाइनल में. प्रसन्ना की कप्तानी और गेंदबाजी दोनों का ही इस जीत में बड़ा योगदान रहा. इसी तरह बेदी ने दिल्ली की टीम को एक बड़ी ताकत बना दिया. धीरे-धीरे अस्सी के दशक में एक ऐसा दौर आया जब 1984 -85 के बाद आठ साल तक मुंबई एक बार भी रणजी ट्रॉफी नहीं जीत पाई और सिर्फ एक बार फाइनल में पहुंची.

ताकत का विकेंद्रीकरण भारतीय क्रिकेट के लिए अच्छा

1984-85 के बाद 31 वर्षों में मुंबई ने ग्यारह बार रणजी ट्रॉफी जीती. यह अच्छा है, बहुत अच्छा है, लेकिन पुराने दौर जैसा नहीं है. फिर भी यह भारतीय क्रिकेट के लिए बहुत अच्छा था, क्योंकि इसका अर्थ यह था कि क्रिकेट की ताकत और गुणवत्ता एकाध केंद्र में सिमटी नहीं रही और उसका विकेंद्रीकरण हो रहा था. क्या उस दौर में यह सोचा जा सकता था कि कभी झारखंड का कोई खिलाड़ी भारत का अत्यंत सफल कप्तान बनेगा? यह मुंबई का पतन नहीं था, उसकी टीम तब भी बहुत मजबूत थी, गावस्कर, वेंगसरकर, रवि शास्त्री, संदीप पाटिल जैसे खिलाड़ियों की टीम को दूसरी टीमों से चुनौती मिल रही थी और यह भारतीय क्रिकेट के लिए शुभ लक्षण था.