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संडे स्पेशल: मिलिए ओरिजनल बिलक्रीम मैन से

जिनके खेलने का मकदस सिर्फ और सिर्फ खुशियां फैलाना था...

Rajendra Dhodapkar

आज के वक्त में क्रिकेट खिलाड़ी किसी मॉल की दीवार की तरह नजर आते हैं. सिर से लेकर पैर तक तरह तरह के विज्ञापन नजर आते हैं. जिनकी टोपी से लेकर जूते तक किसी न किसी कंपनी द्वारा प्रायोजित होते हैं. हम लोग जब होश संभाल रहे थे, तब सिर्फ एक भारतीय क्रिकेट खिलाड़ी विज्ञापनों में चमकते थे, वे थे फारूख इंजीनियर. वो बिलक्रीम के विज्ञापनों में दिखते थे. फारूख इंजीनियर के बाल अब भी बड़े स्टाइलिश और घुंघराले हैं, बस पूरी तरह सफेद हो गए हैं. उनके बाद सुनील गावस्कर दो-तीन विज्ञापनों में दिखे. बहरहाल अभी बात ओरिजनल बिल क्रीम मैन की.

ये थे  डेनिस कॉम्प्टन, जो अपनी पीढ़ी के ही नहीं, बल्कि क्रिकेट इतिहास के सबसे ज्यादा स्टाइलिश और लोकप्रिय खिलाड़ियों में थे. वे बिलक्रीम के विज्ञापनों में आने वाले पहले खिलाड़ी थे. कॉम्प्टन के खेल के बारे में जिसने भी लिखा है उसने यह जरूर लिखा है कि उनके खेल में एक आनंद का तत्व था जो दर्शकों को सहज ही संप्रेषित हो जाता था. उनके खेल में मौजूद यह उल्लास और आनंद युद्ध से जर्जर इंग्लैंड में कितना कीमती था यह बताने की जरूरत नहीं है.


अभाव, अनाज की राशनिंग और युद्ध में प्रियजनों के खोने से बेरंग हुई जिंदगी में गॉडफ्रे इवांस, कीथ मिलर और डेनिस कॉम्प्टन जैसे खिलाड़ी खुशी और उम्मीद का रंग भरते थे, इसलिए वे इतने लोकप्रिय थे. लेकिन इवांस और मिलर की तरह ही कॉम्प्टन के इस बेफिक्री और मजे के अंदाज के पीछे ठोस तकनीक और दृढ़ता की इस्पाती नींव थी. कॉम्प्टन भी जब जरूरी होता या परिस्थितियां कठिन होतीं तो दीवार की तरह अड़ सकते थे और उनकी ऐसी कई इनिंग्स यादगार हैं.

कॉम्प्टन ने एक बार कहा भी था कि मेरे जो शॉट बड़े स्वाभाविक लगते हैं उन्हें मैंने घंटों मेहनत करके मांजा है. कॉम्प्टन के नाम कई रिकॉर्ड हैं और उनके आंकड़े भी उनकी महानता के प्रमाण हैं. लेकिन वे ऐसे खिलाड़ी थे, जिनकी महानता स्कोरबोर्ड से नहीं आंकी जाती.

सर नेविल कार्डस के एक कथन के हवाले से हम कह सकते हैं कि किसी संगीत रचना की महानता उसमें लगाए गए सुरों की गिनती से नहीं आंकी जा सकती. कॉम्प्टन दाहिने हाथ के बल्लेबाज थे. लेकिन बाएं हाथ से नियमित लेग ब्रेक और चाइनामैन दोनों किस्म की गेंदबाजी भी कर लेते थे. उन्होंने खुद अपनी गेंदबाजी को ज्यादा गंभीरता से नहीं लिया, वरना वे शायद बहुत बड़े गेंदबाज भी हो सकते थे.

अपनी पीढ़ी के तमाम खिलाड़ियों की तरह कॉम्प्टन का खेल करियर भी युद्ध की वजह से प्रभावित हुआ था. जब वे इक्कीस साल के थे तो महायुद्ध शुरू हो गया और खेल बंद हो गया. तमाम नौजवानों की तरह कॉम्प्टन भी सेना मे भरती हो गए और काफी दिनों तक वे भारत में भी रहे. भारत में भी वे छुटपुट क्रिकेट खेलते रहे और कुछ रणजी ट्रॉफी मैच भी उन्होंने खेले.

जाहिर है, उनकी जिंदगी के वे वर्ष युद्ध की भेंट चढ़ गए, जब उनका खेल उरूज पर रहा होगा. युद्ध के बाद उनके एक घुटने में फुटबॉल खेलने के दौरान चोट लग गई, जिससे उनका खेल प्रभावित हुआ. उनके इस घुटने के कई ऑपरेशन हुए. इसके बावजूद उनका करियर लगभग चालीस की उम्र तक चला. उनके घुटने की चोट राष्ट्रीय चिंता का विषय थी. यह इस बात से पता चलता है कि जब सन 1955 में उनके घुटने की हड्डी निकाल दी गई तो उस हड्डी को लॉर्ड्स के संग्रहालय में रखा गया. हालांकि उन्हें यह बात कभी अच्छी नहीं लगी.

फुटबॉल का जिक्र आया तो यह बताना जरूरी है कि वे फुटबॉल के भी अंतरराष्ट्रीय खिलाड़ी थे. वे इंग्लैंड की राष्ट्रीय फुटबॉल टीम में थे और जिस वक्त उन्हें लॉर्ड्स में अनुबंधित किया गया, उसी वक्त वे आर्सेनल में भी शामिल हुए और कई साल खेले. हालांकि ज्यादा ख्याति उन्हें क्रिकेट से मिली.

इस लेख की शुरुआत हमने विज्ञापनों के जिक्र से की थी. रिटायरमेंट के बाद कॉम्प्टन कमेंट्री और क्रिकेट लेखन के अलावा विज्ञापन व्यवसाय से भी जुड़े रहे. लेकिन खेल के प्रति ज्यादा व्यावसायिक और कठोर पेशेवर रवैया उन्हें कभी पसंद नहीं आया. उन्होंने नब्बे के दशक में यह शिकायत भी की थी कि अंग्रेज क्रिकेटरों के खेल में नीरस व्यावसायिकता ज्यादा दिखती है. उनमें खेल का आनंद लेने का तत्व नहीं दिखाई देता.

20 अगस्त 1947 की तस्वीर. इसमें डेनिस कॉम्प्टन चौका लगाते दिख रहे हैं. दक्षिण अफ्रीका के खिलाफ ओवल में यह टेस्ट खेला गया था, जिसमें उन्होंने शतक जमाया था.

अपने दौर में भी ब्रैडमैन और लेन हटन के खेल के प्रति रवैये से वे कभी इत्तेफाक नहीं रख पाए. निजी जीवन में वे बहुत लापरवाह और भुलक्कड़ आदमी थे. अंग्रेज़ होते हुए भी समय के पाबंद नहीं थे. अक्सर वे अपना क्रिकेट किट लाना भूल जाते थे और किसी का भी बल्ला लेकर उतने ही सहज अंदाज में बल्लेबाजी कर सकते थे. वे हैल्मेट, चेस्ट गार्ड और ऐसे ही तमाम आधुनिक कवच कुंडलों के भी खिलाफ थे. वे अपनी अथाह लोकप्रियता के प्रति भी बहुत विनम्र थे.

ऐसा नहीं है कि उनकी कभी आलोचना नहीं हुई हो. जब दक्षिण अफ्रीका पर रंगभेद के लिए प्रतिबंध लग गया, उसके बाद उन्होंने दक्षिण अफ्रीका के दौरे पर क्रिकेट टीम भेजने की पुरजोर वकालत की थी. दक्षिण अफ्रीका के खिलाफ उनका बल्लेबाज़ी का रिकॉर्ड बहुत अच्छा था.  जाहिर है कि दक्षिण अफ्रीका की उनकी यादें भी सुहानी ही रही होंगी. इस बात से यही पता चलता है कि कॉम्प्टन हों या वीरेन्द्र सहवाग, उनके खेल का आनंद लेना अलग है, उनका फैन होना भी स्वाभाविक है. लेकिन अन्य विषयों पर उनके विचारों को थोड़ा सोच समझ कर ही सुनना चाहिए.

जब टीवी पर क्रिकेट मैचों का विज्ञापन ‘महायुद्ध’ और प्रलय और न जाने  क्या क्या कह कर किया जाता हो, मुनाफा कमाने के लिए पुरानी दुश्मनियों को उभारा जाता हो और नई नई दुश्मनियां गढ़ी जाती हों तब कॉम्प्टन और मिलर जैसे खिलाड़ियों को याद करना जरूरी है जो खेल को प्रेम और खुशी फैलाने का जरिया मानते थे. उनका खेल दुश्मनियां नहीं उभारता था बल्कि जख्मों पर मरहम लगाता था.