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संडे स्पेशल : विदेशों में बेहतर प्रदर्शन के लिए भारत को इन बदलावों की जरूरत

बीसीसीआई को अपने नक्शे के केंद्र में पैसे की जगह खेल को रखना होगा तभी भारत का विदेशी जमीन के रिकॉर्ड सुधर सकते हैं

Rajendra Dhodapkar

एक दौर था जब विदेशी दौरों पर खेलना भारतीय टीम के लिए एक संघर्ष हुआ करता था. भारत ने सन 1932 से टेस्ट मैच खेलना शुरु किया और उसे विदेशी जमीन पर पहली जीत सन 1967 में न्यूजीलैंड में मिली. इसी से इस संघर्ष की मुश्किलें पता चलती हैं. उसके बाद भारत में ऐसे खिलाड़ी होने शुरू हुए जो विदेशों में बेहतर प्रदर्शन करते थे इससे भारत का विदेशी धरती पर रिकॉर्ड बेहतर होने लगा. यह सिर्फ भारतीय खिलाड़ियों के साथ ही नहीं है. तमाम देशों के खिलाड़ी विदेशी मैदानों पर खेलने में कठिनाई महसूस करते हैं.

दुनिया के कई महान खिलाड़ी भी ऐसे हुए हैं जिनका देश से बाहर रिकॉर्ड बहुत अच्छा नहीं है. हालांकि कई खिलाड़ी ऐसे हैं जिनका विदेशी मैदानों पर रिकॉर्ड घरेलू मैदानों से बेहतर है. इस भारतीय टीम में अजिंक्य रहाणे एक ऐसे ही खिलाड़ी हैं.


अतीत की विश्व विजेता टीमें विदेश में रहती थी हिट

अतीत में जो भी विश्व विजेता टीमें रही हैं उनके खिलाड़ियों में यह एक खासियत थी कि वे किसी भी परिस्थिति और किसी भी मैदान पर अच्छा खेल सकते थे. यह खासियत वॉरेल, सोबर्स, लॉयड और रिचर्ड्स की वेस्टइंडीज़ टीम में थी. एलन बॉर्डर से लेकर तो रिकी पोंटिंग की ऑस्ट्रेलियाई टीम भी वैसी ही थी. आज अगर कोई टीम सबसे श्रेष्ठ नहीं दिखती तो इसकी वजह यह भी है कि किसी टीम का बाहरी मैदानों पर रिकॉर्ड अच्छा नहीं है.

मौजूदा टेस्ट टीमों में अगर कोई टीम सर्वश्रेष्ठ होने के काबिल है तो वह भारतीय टीम है. उसके पास अच्छे शुरुआती बल्लेबाज हैं, मजबूत मध्यक्रम है, काफी निचले क्रम तक बल्लेबाजी कर सकने वाले खिलाड़ी हैं और बहुत अच्छी गेंदबाजी है. महान स्पिनर्स, प्रसन्ना, बेदी, चंद्रशेखर और वेंकटराघवन के दौर के बाद पहली बार भारत के पास ऐसा गेंदबाजी आक्रमण है जो किसी भी प्रतिस्पर्धी टीम को सस्ते में आउट कर सकता है. और उस दौर से बेहतर बात यह है कि यह आक्रमण संतुलित है, सिर्फ स्पिन पर निर्भर नहीं है. इसलिए यह आक्रमण हर जगह कारगर है. प्रसन्ना और बेदी के दौर के बाद पहली बार भारतीय टीम में हर मैच में चार गेंदबाज तो होते ही हैं जिनसे पांच विकेट लेने की उम्मीद की जा सकती है, वरना हर बार एक कपिलदेव, एक कुंबले या बहुत हुआ तो दो गेंदबाज होते थे. इसके अलावा बहुत से प्रतिभाशाली युवा हैं जो इन खिलाड़ियों की जगह ले सकते हैं.

विदेशी दौरों की नहीं होती है ठीक से तैयारी

अगर ऐसा है तो भारतीय टीम निर्विवाद रूप से सर्वश्रेष्ठ टेस्ट टीम क्यों नहीं बन पाती? क्यों हम विदेशी दौरों पर लड़खड़ाते नजर आते हैं? इसकी वजह यह है कि किसी भी दौरे की ठीक से तैयारी नहीं की जाती. दक्षिण अफ्रीका के दौरे पर भी पहले टेस्ट मैच के पहले एक मामूली सा मैच रखा गया था. वही बात इंग्लैंड के दौरे के साथ हुई. ऐसे में गेंदबाज तो फिर भी परिस्थितियों में अपने को ढाल लेते हैं. बल्लेबाज़ों को जब तक परिस्थितियों की आदत होती है तब तक दौरा खत्म हो जाता है. यह दर्शकों के साथ भी धोखा है.

कायदे से वे दो ऐसी टीमों का मुकाबला देखने के लिए पैसा देते हैं जो पूरी तैयारी और दमख़म के साथ मैदान में उतरें. अगर एक टीम बिना तैयारी के खेल रही है तो यह दर्शकों के साथ नाइंसाफ़ी है. पहले ऐसा भी हुआ है कि टेस्ट सीरीज के पहले दौरा करने वाली टीम ने आठ या दस मैच स्थानीय टीमों के साथ खेले हैं. इतना नहीं तो कम से कम तीन-चार प्रथम श्रेणी मैच तो टेस्ट सीरीज के पहले खेले जाने चाहिए. बल्लेबाजों के साथ भी यह अन्याय है कि क़ाबिलियत होने के बावजूद उन पर सिर्फ अपने घर में शेर होने का ठप्पा लग जाए.

काबिल होने के बावजूद हैं फ्लॉप हुए हैं भारतीय बल्लेबाज

इस टेस्ट सीरीज के पहले वनडे सीरीज हुई थी, लेकिन वनडे सीरीज से टेस्ट मैचों के लिए अभ्यास नहीं हो सकता. इसकी वजह यह है कि वनडे मैच और टेस्ट मैच का स्वभाव ही अलग होता है. वनडे मैच में बल्लेबाज आक्रामक होते हैं और गेंदबाज रक्षात्मक. टेस्ट मैच में गेंदबाज आक्रामक होते हैं और बल्लेबाजों को ज्यादा रक्षात्मक खेलना पड़ता है. इसलिए आक्रामक गेंदबाजी पर रक्षात्मक खेलने का अभ्यास बल्लेबाजों को वनडे क्रिकेट में नहीं हो पाता. इसकी मिसाल यही है कि पहले टेस्ट मैच की दोनों पारियों में ज्यादातर भारतीय बल्लेबाज रक्षात्मक खेलते हुए आउट हुए. यह आरोप उन पर नहीं लग सकता कि वे लापरवाही से शॉट लगाते हुए आउट हुए हैं.

उन पर यह आरोप भी नहीं लग सकता है कि वे स्विंग नहीं खेल पाते, क्योंकि कोहली ने तो अपना हुनर साबित कर दिया है और रहाणे और मुरली विजय ने भी इंग्लैंड में पहले बहुत मुश्किल परिस्थितियों में अच्छी पारियां खेली हैं. राहुल की तकनीक भी इतनी अच्छी है कि वे स्विंग खेल सकते हैं. बल्कि यह हो सकता है कि वनडे सीरीज खेलने के तुरंत बाद मुश्किल पिच पर टेस्ट मैच खेलना मुश्किल साबित हो. इसकी वजह यह है कि वनडे खेल में हर गेंद पर रन बनाने की सोचनी पड़ती है. ऐसे में बल्लेबाज हर गेंद को कुछ ताकत के साथ धकेलता है. यह आदत उन पिचों पर विकेटलेवा साबित होती है जहां गेंद स्विंग या स्पिन ले रही हो क्योंकि ऐसे हालात में शरीर के एकदम पास, डेड बैट से रक्षात्मक खेलना होता है वरना गेंद स्लिप या विकेटकीपर तक पहुंच जाती है.

इस टीम में वेस्टइंडीज या ऑस्ट्रेलिया की अजेय टीमों के स्तर पर पहुंचने की कुव्वत है, लेकिन इसके लिए बीसीसीआई को अपने नक़्शे के केंद्र में पैसे की जगह खेल को रखना होगा और भारतीय टीम के दौरों का कैलेंडर उसी हिसाब से बनाना होगा जो इन खिलाड़ियों की जगह ले सकते हैं.