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Sunday Special: चेतेश्वर पुजारा से नंबर तीन पर द्रविड़ जैसी भूमिका की अपेक्षा करना ठीक नहीं

टीम में हर खिलाड़ी की भूमिका निश्चित हो,उसे लेकर कोई भ्रम की स्थिति न रहे

Rajendra Dhodapkar

भारत की क्रिकेट टीम का तरीका बन गया है कि वह विदेशी दौरे पर पहले दो टेस्ट बुरी तरह हारती है और तीसरे टेस्ट में वापसी करती है. इसका कारण सीधा सादा यही है कि टेस्ट मैच सीरीज शुरू होने के पहले कोई अभ्यास मैच नहीं खेले जातेतो भारतीय टीम के लिए पहेल दो टेस्ट मैच अभ्यास मैचों की तरह होते हैं. इन “ भ्यास मैचों“ में चूंकि सामने कोई आम प्रथम श्रेणी टीम नहीं होती बल्कि पूरी टेस्ट टीम होती है इसलिए टीम हार जाती है. गेंदबाजों को खास कर तेज गेंदबाजो के लिए नई परिस्थितियों में ढलना ज्यादा मुश्किल नहीं होता. उन्हें लाइन लेंग्थ में छोटे मोटे बदलाव करने होते हैं जो वे कर लेते हैं. बल्कि अनुकूल विकेट्स पर गेंद करना उन्हें रास ही आता है.

स्विंग लेने वाली पिचों पर खेलने के लिए ज्यादा अभ्यास की जरूरत


उपमहाद्वीप की धीमी, पटरा पिचों पर खेलने के आदी बल्लेबाजों को तेज और स्विंग लेने वाली पिचों पर खेलने के लिए ज्यादा अभ्यास की जरूरत होती है. जो उन्हें नहीं मिलता और वे दर्शकोंपूर्व खिलाड़ियों और विशेषज्ञों की घनघोर आलोचना और बोर्ड के अधिकारियों द्वारा टीम से निकाले जाने की धमकियों से नवाजे जाते हैं. वास्तव में जिन्हें निकाला जाना चाहिए वे बोर्ड के वे लोग हैं जो दौरों का कार्यक्रम बनाते हैं और अभ्यास मैचों की बजाय कुछ बेवजह के एक दिवसीय या टी-20 फिट करने की जुगाड़ में रहते हैं ताकि बोर्ड की तिजोरियां और ज्यादा भर सकें.

बेहतर प्रदर्शन के लिए गतिशीलता जितनी जरूरी है उतना ही स्थायित्व भी

कुछ बातें टीम प्रबंधन भी बेहतर कर सकता है. मसलन टीम के बेहतर प्रदर्शन के लिए गतिशीलता जितनी जरूरी है उतना ही स्थायित्व भी जरूरी है. सन 1971 में वेस्टइंडीज के खिलाफ धमाकेदार शुरुआत करने के बाद सुनील गावस्कर को सोबर्स के नेतृत्व में शेष विश्व की टीम में ऑस्ट्रेलिया के खिलाफ पांच टेस्ट मैच की सीरीज के लिए चुना गया. ऑस्ट्रेलिया की सख्त उछाल वाली विकेट्स पर लिली और थॉम्पसन के खिलाफ गावस्कर नाकाम रहे. वैसे भी अनुभव यह रहा है कि शेष विश्व की टीमें अमूमन खराब खेलती थीं क्योंकि वहां कोई टीम नहीं होती थी, दुनिया भर से खिलाड़ियों को लेकर इकट्ठा कर दिया जाता था. चूंकि वे आधिकारिक टेस्ट भी नहीं होते थे इसलिए खिलाड़ियों का भी कुछ दांव पर नहीं होता था.

यह प्रयोग भी उन दिनों रंगभेद के कारण दक्षिण अफ्रीका पर लगी पाबंदी की वजह से किया गया था क्योंकि दक्षिण अफ्रीका के दौरे रद हो जाने की वजह से उनकी जगह भरने के लिए कुछ अंतरराष्ट्रीय क्रिकेट चाहिए था. बहरहाल शेष विश्व की टीम भी अच्छा नहीं खेल रही थी और गावस्कर भी खेल नहीं पा रहे थे. जब सोबर्स से पूछा गया कि वह गावस्कर को फिर भी टीम में क्यों रखे हुए हैं तो सोबर्स ने जवाब दिया कि अगर चीन की दीवार में दरार आ जाए तो उसे ढहा नहीं दिया जाता. इस बात से गावस्कर में कितना आत्मविश्वास आया होगा.

कोहली के अलावा किसी भी खिलाड़ी की टीम में जगह सुरक्षित नहीं लगती

भारतीय टीम में खास कर बल्लेबाजी में ऐसा विश्वास और स्थिरता का आश्वासन जरूरी है. आज स्थिति यह है कि विराट कोहली के अलावा किसी भी खिलाड़ी की टीम में जगह सुरक्षित नहीं लगती. इसके लिए यह भी जरूरी है कि हर खिलाड़ी की भूमिका निश्चित हो,उसे लेकर कोई भ्रम की स्थिति न रहे. मसलन भारतीय क्रिकेट में सुनील गावस्कर की कप्तानी के दौर से नंबर तीन बल्लेबाज की भूमिका यह रही है कि वह एक छोर पर दीवार बन कर अड़ा रहे. यह नंबर तीन बल्लेबाज की परंपरागत भूमिका से अलग है. क्रिकेट में अमूमन नंबर तीन बल्लेबाज आक्रामक होता है.

 सर डॉन ब्रैडमैनरोहन कन्हाई,विवियन रिचर्ड्सरिकी पोंटिंग. ये तमाम आक्रामक बल्लेबाज पहला विकेट गिरने पर बल्लेबाजी करने आते थे. इसके पीछे तर्क यह रहा है कि नई सख्त गेंद पर स्ट्रोक खेलना ऐसे बल्लेबाज के लिए सुविधाजनक होता है और सिर्फ़ एक विकेट गिरने पर रक्षात्मक होने की कोई जरूरत नहीं होती इसलिए आक्रामक बल्लेबाज बिना किसी दबाव के शॉट खेल सकता है. रक्षात्मक होने की जरूरत जल्दी से तीन-चार विकेट होने पर पड़ सकती हैउसके पहले नहीं. भारतीय टीम में शायद यह सोचा गया कि जल्दी-जल्दी विकेट गिरने से हड़बड़ी न मचे और अन्य बल्लेबाज आजादी से खेल सकें इसलिए शुरू से ही एक छोर से रोक कर रखने वाले बल्लेबाज की जरूरत है.

पुजारा का नंबर तीन पर खेलना ही ज्यादा अच्छा

सुनील गावस्कर ने दिलीप वेंगसरकर जैसे आक्रामक बल्लेबाज को रक्षात्मक सांचे में ढाल कर नंबर तीन बल्लेबाज बनाया. उनकी कामयाबी के बाद भारत में यह नियम सा बन गया कि नंबर तीन बल्लेबाज कोई मजबूत रक्षात्मक बल्लेबाज होगा. इसके सबसे बड़े उदाहरण “ द वॉल“ यानी राहुल द्रविड़ थे. ऐसे में अगर हम चेतेश्वर पुजारा से उसी भूमिका की अपेक्षा करते हैं जो वेंगसरकर से लेकर द्रविड़ तक निभाते थे तो उन्हें उसी तरह खेलने देना चाहिए और उन्हें अपनी जगह के बारे में आश्वस्त करना चाहिए. अगर टीम प्रबंधन और कप्तान यह सोचते हैं कि नंबर तीन पर आक्रामक बल्लेबाजी की जरूरत है तो उन्हें वहां किसी और बल्लेबाज को खिलाने की कोशिश करनी चाहिए. हालांकि भारतीय टीम की जैसे ढहने की आदत है उसे देखते हुए पुजारा का नंबर तीन पर खेलना ही ज्यादा अच्छा है. अगर पुजारा को यह लगता रहा कि आक्रामक बल्लेबाजी न करने की वजह से टीम में उनकी जगह ख़तरे में है तो वे ठीक से नहीं खेल पाएंगे. रहाणे भी ऐसे संदेह के माहौल का शिकार रहे हैं.

टी-20 के अंदाज सीखने की जरूरत नहीं

बल्कि पुजारा और रहाणे से जैसे खिलाड़ियों को यह स्पष्ट कर देना चाहिए कि उनकी जगह टेस्ट टीम में है और उन्हें टी-20 के अंदाज सीखने की फिलहाल जरूरत नहीं है. पिछले दिनों बड़ी चर्चा इन दोनों खिलाड़ियों की तकनीक को लेकर हुई. दोनों के बारे में एक ही बात कही गई कि दोनों का बल्ला ऑफ स्टंप के आसपास की गेंद पर शरीर से दूर हो जाता है और वे बाहर स्विंग होने वाली गेंद पर स्लिप या विकेट कीपर को कैच दे बैठते हैं.

अगर हम याद करें तो अपने शुरुआती दिनों में ये दोनों सबसे अच्छी तकनीक वाले बल्लेबाज कहे गए थे. रहाणे ने तो अपने को राहुल द्रविड़ की शैली में ढाला था और उन्हें देखकर द्रविड़ की याद भी आती थी. लेकिन दोनों ने सीमित ओवरों के क्रिकेट में अपनी काबिलियत साबित करने के चक्कर में ही अपनी तकनीक गड़बड़ की है.

बल्लेबाज जाने अनजाने हर गेंद को पुश करना गलत

दिमाग में तेजी से रन बनाने की बात अगर हावी हो तो बल्लेबाज जाने अनजाने हर गेंद को पुश करने लगता है और इस कोशिश में बल्ला शरीर से दूर जाने लगता है. जहां गेंद स्विंग हो रही हो वहां तो यह आउट होने का पक्का इंतजाम है. हर कोई विराट कोहली नहीं होता कि अपने खेल को जैसे चाहे ढाल ले. ग्लैमर और पैसा सीमित ओवर के क्रिकेट में है, लेकिन हर कोई उसके उपयुक्त हो जरूरी नहीं. आखिर सब कहते हैं कि टेस्ट क्रिकेट ही असली क्रिकेट है तो टेस्ट क्रिकेटर होने में क्या बुराई हैक्या मतलब है कि इस चक्कर में अपनी तकनीक ख़राब कर ली जाए. सीमित ओवरों में कामयाब होने के लिए प्रयोग करियर के बाद के दौर में किए जा सकते हैं अभी तो बहुत खेलना है.