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संडे स्पेशल: टीम इंडिया में किस तरह बदला है रफ्तार का खेल

भारतीय क्रिकेट में यह आत्मविश्वास ही नहीं था कि हम किसी को हरा सकते हैं

Rajendra Dhodapkar

पिछली भारत-ऑस्ट्रेलिया सीरीज के आखिरी टेस्ट मैच में कप्तान अजिंक्य राहणे का कुलदीप यादव को खिलाने का फैसला तुरुप का इक्का साबित हुआ. यह पूरी कहानी हम सभी पढ़ चुके हैं. विराट कोहली जैसे बल्लेबाज के चोटिल होने पर किसी और बल्लेबाज की जगह एक अतिरिक्त गेंदबाज को खिलाने का फैसला साहसिक था, हालांकि विराट कोहली के कप्तान बनने के बाद अमूमन भारतीय टीम टेस्ट मैचों में पांच गेंदबाजों के साथ ही खेलती आई है.

जब कोई टीम एक अतिरिक्त बल्लेबाज की जगह गेंदबाज को खिलाती है तो इसका संदेश साफ होता है कि टीम टेस्ट मैच जीतने के इरादे से खेल रही है. इसके लिए हारने का खतरा उठाने को भी तैयार है. टेस्ट मैच जीतने की अनिवार्य शर्त यह है कि बीस विकेट लिए जाएं. इसके लिए गेंदबाजी मजबूत होना जरूरी है. विराट कोहली के नेतृत्व में जीत का रिकॉर्ड भी उनकी आक्रामकता और जीतने की इच्छा को दिखाता है.


हम जैसे लोग जिनके बाल पक गए हैं उन्हें अपने जीवनकाल में तो याद नहीं है कि भारत की टीम ऐसे आक्रामक अंदाज से कभी खेली हो. जब हम बच्चे थे तो भारत ने पहली बार विदेशी धरती पर पहला टेस्ट मैच जीता था. जब हम किशोर थे तो अजित वाडेकर के नेतृत्व में भारत ने पहली बार विदेश में सीरीज जीती थी. हालांकि यह कहना जरूरी है कि वाडेकर मुंबई की परंपरा वाले रक्षात्मक कप्तान थे.

उनके पहले नवाब पटौदी जरूर आक्रामक कप्तान थे, लेकिन अक्सर पटौदी चार तो क्या, तीन प्रभावशाली गेंदबाजों के साथ खेलते थे. शायद उनके दौर में चयनकर्ता और क्रिकेट के प्रभावशाली लोग यह मानते नहीं थे कि भारत के पास ऐसे दो तेज गेंदबाज हो सकते हैं जो सिर्फ विकेट लें. इसलिए या तो ऐसे शुरुआती गेंदबाजों को चुना जाता था जो गेंदबाज भले ही कामचलाऊ हों पर कुछ बल्लेबाजी भी कर सकें या एकदम कामचलाऊ इंतजाम कर लिया जाता. जैसे एमएल जयसिम्हा से शुरुआती गेंदबाजी करवाना.

तेज गेंदबाजी से भारतीयों का एक ही रिश्ता था, वह था उसका शिकार होना. इसकी वजह काफी हद तक मानसिकता में थी. भारतीय क्रिकेट में यह आत्मविश्वास ही नहीं था कि हम किसी को हरा सकते हैं. इसलिए विकेट लेने से ज्यादा जोर बल्लेबाजी पर था, ताकि हार से बचा जा सके. भारत के तमाम नामी खिलाड़ी जो सचमुच प्रतिभाशाली थे वे भी विदेशी खिलाड़ियों के आतंक में अपनी आधी ताकत गंवा बैठते थे.

यह हीनता बोध शायद लंबी गुलामी और आजादी के बाद के कठिन हालात से आया था. एक बार सुनील गावस्कर से पूछा गया था कि सचिन तेंदुलकर में जैसी आक्रामकता है, वैसी उनमें या उनके दौर के खिलाड़ियों में क्यों नहीं थी? उन्होंने जवाब दिया कि उनके दौर में राशन की लंबी कतारें लगती थीं. जिनमें खड़े होने का अनुभव उनके पास है. वह दौर सचिन की पीढ़ी ने नहीं देखा है. जिसके चलते इस पीढ़ी में वह हीनताबोध नहीं है जो हमारी पीढ़ी में था. इसलिए ये लोग आक्रामक हो सकते हैं. भारतीय हॉकी की कहानी इसके विपरीत क्यों है? इस पर अगर कोई गंभीर विश्लेषण हो तो शायद सीएलआर जेम्स की ‘बियोंड ए बाउंड्री’ जैसी कालजयी किताब बन सकती है.

वास्तव में सुनील गावस्कर के दौर में भारत ऐसी एक टीम बनी जो जीतती तो कम थी लेकिन जिसे हराना भी मुश्किल माना जाने लगा. तब भी भारत का जोर मैच बचाने पर होता था. इसलिए पांच श्रेष्ठ गेंदबाजों को लेकर खेलने की रणनीति कभी नहीं अपनाई गई. आम नियम तब भी यह था कि तीन अच्छे गेंदबाज हों और दो-एक ऐसे लोग हों जो गेंदबाज भले ही औसत हों, लेकिन ठीक-ठाक बल्लेबाजी भी कर लेते हों.

कपिलदेव भी अगर बल्लेबाज न होते तो शायद भारतीय टीम मे घुस नहीं सकते थे. रमाकांत देसाई जैसे इक्कादुक्का अपवाद छोड़ दें तो नियम यही था. लेकिन यह भी सही है कि पिछले लगभग पैंतीस चालीस साल में दुनिया की जो सर्वश्रेष्ठ टीमें पहले वेस्टइंडीज और फिर ऑस्ट्रेलिया, उनके ख़िलाफ सबसे अच्छा रिकॉर्ड भारत की टीम का रहा है. लेकिन इस रक्षात्मक मानसिकता से निकलने में भारत को अब तक का वक्त लग गया.

वैसे भी गेंदबाज की जगह अतिरिक्त बल्लेबाज को खिलाने की कभी कभार जरूरत हो सकती है. लेकिन इसे नियम बनाने की क्या तुक है? शायद ऐसा डॉन ब्रैडमैन ने ही कहा है कि आप के चोटी के पांच बल्लेबाज रन नहीं बना पाए तो छठा सातवां बल्लेबाज क्या तारे तोड़ लाएगा? भारत के रक्षात्मक नजरिए का एक और उदाहरण है जो अब तक मौजूद है. आमतौर पर क्रिकेट में पहला विकेट गिरने के बाद आने वाला यानी नंबर तीन बल्लेबाज आक्रामक बल्लेबाज होता है. डॉन ब्रैडमैन, रोहन कन्हाई, टैड डैक्सटर, विवियन रिचर्डस से लेकर रिकी पॉन्टिंग तक सब आक्रामक बल्लेबाज थे.

भारत में दिलीप वेंगसरकर जैसे आक्रामक खिलाड़ी को रक्षात्मक खिलाड़ी बनाकर उस जगह खिलाने से जो सिलसिला शुरू हुआ, वह राहुल द्रविड़ और पुजारा तक चला आता है. नंबर तीन खिलाड़ी के रक्षात्मक होने से एक संदेश तो यही जाता है कि एक विकेट गिरते ही आप बचाव की मुद्रा में आ गए. लेकिन यह सही है कि अब भारतीय टीम खेलती जीतने के लिए है.

हमारी पीढ़ी राशन के गेहूं और डालडा के दौर में बड़ी हुई. हमने वह दौर भी देखा, जब विदेशी खिलाड़ी भारत आने से बचने के लिए नखरे करते थे. यह दौर भी देख रहे हैं, जब खिलाड़ी भारत आने के लिए जी जान लगाते हैं. वह दौर था जब भारतीय टीम ने जूझना सीखा. अब ऐसा दौर है जब भारतीय टीम दूसरों को जूझने पर मजबूर कर रही है. उमेश यादव की तेज गेंदों पर विदेशी खिलाड़ियों को बचते देख जो खुशी होती है उसे हमारी पीढ़ी के लोग ही जान सकते हैं.