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संडे स्पेशल: जब वेंकटराघवन के पक्ष में टीम से बाहर होने का फैसला किया सुब्रतो गुहा ने

1969 -70 में सुब्रतो गुहा को ऑस्ट्रेलिया के खिलाफ पहले टेस्ट मैच की टीम में शामिल करने और श्रीनिवास वेंकटराघवन को बारहवां खिलाड़ी बनाने पर मचा था बवाल

Rajendra Dhodapkar

पिछली बार सुब्रतो गुहा के बारे में लिखते हुए सन 1969 -70 की भारत- ऑस्ट्रेलिया दौरे की याद ताजा हो गई. यह पहली क्रिकेट सीरीज थी जिसकी याद मुझे है. मुझे यह भी याद है कि हमारे घर में इस सीरीज के पहले कमेंट्री सुनने के लिए नया ट्रांजिस्टर खरीदा गया था, उस जमाने में हर क्रिकेट सीरीज इतनी ही महत्वपूर्ण होती थी. यह दौर भारतीय क्रिकेट के लिए बहुत निर्णायक था. मेरा मानना है कि इस दौर में भारतीय क्रिकेट का स्वरूप बदला और हर वक्त आसानी से हारने वाली टीम से ऐसी टीम बनने की प्रक्रिया शुरु हुई जिसे हराना बहुत मुश्किल था. इस दौरे के साल भर पहले न्यूजीलैंड के दौरे पर भारतीय टीम विदेश में अपना पहला टेस्ट सीरीज जीती थी. कप्तान थे नवाब पटौदी.


इसी वक्त भारतीय स्पिन चौकड़ी का जलवा बन रहा था. इसी दौर में पुराने खिलाड़ियों की एक पीढ़ी रिटायर हो रही थी और एक नई पीढ़ी आ रही थी जो विदेशी टीमों के आतंक से डरती नहीं थी और बराबरी का मुकाबला कर सकती थी. इस ऑस्ट्रेलिया दौरे के ठीक पहले न्यूजीलैंड का दौरा हुआ था और उसमें चेतन चौहान और एकनाथ सोलकर का पदार्पण हुआ था. इस दौरे में गुंडप्पा विश्वनाथ और मोहिंदर अमरनाथ का आगमन हुआ जो अगले वर्षों में भारतीय बल्लेबाजी के आधार स्तंभ बने. ऑस्ट्रेलिया के इस दौरे के ठीक बाद भारत ने वेस्टइंडीज का दौरा किया, जहां उसने विदेशी जमीन पर दूसरी सीरीज जीती और सुनील गावस्कर के करियर की सनसनीखेज शुरुआत हुई. कई मायनों में यह बहुत रोमांचक दौर था.

हर टेस्ट मैच में हुआ कांटे का मुकाबला

जिस दौरे की हम बात कर रहे थे वह भी कई मायनों में बहुत दिलचस्प और रोमांचक था. ऑस्ट्रेलिया की टीम वेस्टइंडीज की विश्वविजेता टीम को हराकर आ रही थी. इस दौरे में भी वे टेस्ट सीरीज 3-1 से जीत गए, लेकिन सीरीज उतनी एकतरफा नहीं थी जैसा नतीजों से लगता है. प्रसन्ना और बेदी ने ऑस्ट्रेलिया को जूझने पर मजबूर किया और एकाध मौके पर अगर भारतीय टीम मजबूत स्थिति के बाद ढही नहीं होती तो नतीजा कुछ भी हो सकता था. लगभग हर टेस्ट मैच में कांटे का मुकाबला था, जिसमें दोनों ओर के गेंदबाजों का पलड़ा थोड़ा भारी रहा. लेकिन यह सीरीज रोमांचक क्रिकेट के साथ विवादों और दर्शकों के भारी उत्पात के लिए भी जानी जाती है. इस मायने में वह सीरीज चार्ल्स डिकेंस के उपन्यास “ ग्रेट एक्स्पेक्टेशंस“ के विख्यात शुरुआती वाक्य की याद दिलाती है, वह सबसे अच्छा और सबसे बुरा वक्त था.

नो वेंकटनो टेस्ट''

सुब्रतो गुहा की भी याद इस दौरे के बहुत चर्चित विवाद की वजह से है. हुआ यह कि पहले टेस्ट मैच की टीम में गुहा को शामिल कर लिया गया. यह माना जा रहा था कि मुंबई के ब्रैबॉर्न स्टेडियम की विकेट मध्यम गति गेंदबाजों के अनुकूल होगी और इसलिए गुहा को लेकर स्पिनर श्रीनिवास वेंकटराघवन को बारहवां खिलाड़ी घोषित किया गया. जिस भारतीय टीम में अक्सर एक भी शुरुआती गेंदबाज नहीं होता था उसमें रूसी सूरती, आबिद अली और गुहा मध्यमगति के तीन गेंदबाजों को जगह मिल गई. इससे पहले न्यूजीलैंड सीरीज में वेंकट सबसे ज्यादा, प्रसन्ना और बेदी से भी ज्यादा कामयाब गेंदबाज रहे थे, लेकिन इस टेस्ट में वह बारहवें खिलाड़ी थे. वेंकटराघवन को हटाने का फ़ैसला मीडिया और जनता को नहीं जंचा और “नो वेंकट, नो टेस्ट“ के नारे बुलंद होने लगे.

विजय मर्चेंट ने निकाला समाधान

ऐसा लगने लगा कि स्थिति नियंत्रण से बाहर हो जाएगी. तब चयन समिति के अध्यक्ष विजय मर्चेंट ने एक अभूतपूर्व काम किया. वह मैच शुरू होने के ठीक पहले गुहा के कंधे पर हाथ रख कर मैदान में दर्शकों के सामने पिच तक गए और उनके लौटने पर घोषणा की गई कि गुहा ने वेंकटराघवन के पक्ष में टीम से बाहर होने का फैसला किया है.

मर्चेंट ने पिच तक की अपनी यात्रा में गुहा को समझाया कि संकट से निकलने का एकमात्र तरीका यही है. मर्चेंट और गुहा दोनों अत्यंत शरीफ इंसान थे इसलिए उन्होंने इस जटिल स्थिति को इस तरह सुलझा लिया. ऐसा शायद क्रिकेट इतिहास में पहली और आखिरी बार हुआ होगा.

बंबई टेस्ट मैच में उत्पात और आगजनी

लेकिन इस टेस्ट मैच में उत्पात और आगजनी होना जैसे लिखा हुआ था, हालांकि उसका सबब कुछ और बना. मुंबई के क्रिकेट इतिहास में यह उत्पात पहली बार तो नहीं हुआ था, लेकिन इस पैमाने पर ना पहले हुआ था ना बाद में हुआ याद पड़ता है. बहरहाल, गुहा अगले तीनों टेस्ट मैच खेले, लेकिन उनका प्रदर्शन अच्छा नहीं रहा. उसके बाद घरेलू क्रिकेट में उनका प्रदर्शन अच्छा रहा था इसलिए 1971 के वेस्टइंडीज दौरे पर उनका चयन तय माना जा रहा था. लेकिन तभी उन्हें चिकनपॉक्स हो गया और उनकी जगह हैदराबाद के पी गोविंदराज चले गए. उसके बाद गुहा के घुटने में इंग्लैंड दौरे पर जो चोट लगी थी वह उभर आई और वह घरेलू क्रिकेट में भी नियमित नहीं रह पाए.  भारतीय टीम में भी उनकी दावेदारी खत्म हो गई. आखिरी मद्रास टेस्ट में जिस नए ऑलराउंडर ने गुहा की जगह ली, उसका नाम था मोहिंदर अमरनाथ. इस दौरे के दंगों और विवादों की कहानी लंबी है, वह अगले स्तंभ में तफसील से.