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संडे स्पेशल: गलत फैसलों ने कमजोर कर दिया है रहाणे का आत्मविश्वास, कैसे निकालेंगे हल

रहाणे को बहुत अच्छा खेलते हुए अचानक लड़खड़ाने की जैसे उनकी आदत हो गई है

FP Staff

अजिंक्य राहणे का मामला कुछ उलझा हुआ नजर आ रहा है. देवधर ट्रॉफी में वे जूझते हुए नजर आए. हालांकि फाइनल में जरूर उन्होंने शानदार शकतीय पारी खेली जिसके बदौलत इंडिया सी को जीत मिली. इसके पहले विजय हजारे ट्रॉफी में भी उनका प्रदर्शन ठीक ठाक सा ही रहा. वेस्टइंडीज के खिलाफ टेस्ट मैचों में भी वे फॉर्म से जूझते हुए ही दिखे. एक बात बहुत साफ सी लग रही है कि सीमित ओवरों के क्रिकेट में भारतीय टीम में उनकी जगह हो नहीं सकती, जिसके लिए वे जी तोड़ मेहनत करते दिखते हैं. ऐसा नहीं है कि एकदिवसीय टीम में जगह खाली नहीं है. कायदे से पहले तीन बल्लेबाजों के बाद भारतीय टीम में कोई जगह पक्की नहीं हुई है लेकिन राहणे इन जगहों पर नहीं खेल सकते. चौथे, पांचवे और छठे नंबर के बल्लेबाज में जिस तरह की सिफत होनी चाहिए, वह उनमें नहीं है. पहले तीन बल्लेबाज अपना स्वाभाविक खेल खेलने के लिए काफी हद तक आजाद होते हैं, लेकिन नीचे के क्रम के बल्लेबाजों में परिस्थिति के हिसाब से अपना खेल बदलने का लचीलेपन होना चाहिए, जो उनमें नहीं है.

अच्छे फॉर्म में रहाणे को नहीं मिला मौका


टेस्ट क्रिकेट में भी उनके साथ कुछ अजीबो गरीब हो रहा है. जब वे अच्छे रन बना रहे थे तब उनकी जगह निश्चित नहीं थी. दक्षिण अफ्रीका में पहले टेस्ट में उन्हें न खिलाने का फैसला अजीब था और इसकी बहुत आलोचना भी हुई. दक्षिण अफ्रीका में उनका प्रदर्शन अच्छा रहा और यह मान लिया गया कि विदेशों में और मुश्किल परिस्थितियों में वे भारत के सबसे अच्छे बल्लेबाज हैं. इंग्लैंड के दौरे पर टीम के विश्वसनीय बल्लेबाज होने पर मुहर लगाते हुए उन्हें उपकप्तान बना दिया गया. इंग्लैंड में उनके सफल होने की बहुत उम्मीदें लगाई गई थीं क्योंकि पिछले इंग्लैंड दौरे पर वे कामयाब हुए था. हुआ ठीक उलटा और वे इंग्लैंड में लड़खड़ाते नजर आए.

बहुत अच्छा खेलते हुए अचानक लड़खड़ाने की जैसे उनकी आदत हो गई है. अगर हम याद करें तो इससे पिछले इंग्लैंड दौरे पर भी वे पहले तीन टेस्ट बहुत अच्छे खेले और फिर अचानक लड़खड़ा गए. ऐसे लगा जैसे दौरे के उत्तरार्ध में कोई दूसरा ही खिलाड़ी खेल रहा हो. ऐसा नहीं है कि सीमित ओवरों के क्रिकेट में भी वे हमेशा से अनफिट थे. वे काफी कामयाब भी रहे हैं यहां तक कि आईपीएल मे राजस्थान रॉयल्स की ओर से अच्छा खेले हैं. लेकिन जब से उन्होने सीमित ओवरों के क्रिकेट में जगह बनाने की जोरदार कोशिश करना शुरू की, वे लड़खड़ा गए. ऐसा लगता है कि वे अचानक आत्मविश्वास खो बैठते हैं या अपनी ही उलझनों में उलझ जाते हैं.

संजय मांजरेकर की याद दिलाते हैं रहाणे

कभी कभी ज्यादा अक्ल का इस्तेमाल करना भी नुकसानदेह होता है. कई मायने में वे संजय मांजरेकर की याद दिलाते हैं. 1993 के ऑस्ट्रेलिया दौरे के पहले माना जा रहा था कि मांजरेकर भारत के भावी कप्तान होंगे. अगर वे ऑस्ट्रेलिया के दौरे पर कामयाब हो जाते तो शायद एकाध साल में कप्तान हो जाते, लेकिन ऑस्ट्रेलिया के दौरे पर वे बुरी तरह नाकाम हुए और उसके बाद उबरने की कोशिश में और गहरे धंसते चले गए. वह दौर वैसे भी किसी संघर्षरत युवा खिलाडी के लिए बहुत बुरा दौर था. तब न तो ऐसा कोई कप्तान था, न टीम मैनेजमेंट था, न ऐसे चयनकर्ता थे जो नाकामी से किसी जूझते प्रतिभावान

खिलाड़ी को सहारा दे सके. न तब ऐसा माहौल था कि टीम के वरिष्ठ खिलाडी जूनियर खिलाड़ियों की मदद करें. प्रवीण आमरे, विनोद कांबली, मांजरेकर जैसे कई खिलाड़ी इसके प्रमाण हैं.

उस दौर के इस पक्ष के बारे में सिर्फ मांजरेकर जैसे खिलाड़ियों ने नहीं, राहुल द्रविड़ और जवागल श्रीनाथ जैसे कामयाब खिलाड़ियों ने भी बात की है. द्रविड़, श्रीनाथ, लक्ष्मण जैसे खिलाड़ियों की तारीफ करनी चाहिए कि ऐसे माहौल में भी वे कामयाब हो पाए. राहणे इस मायने में किस्मतवाले हैं कि अब भारतीय क्रिकेट का माहौल वैसा बुरा नहीं है और उन्हें काफी सहारा मिल रहा है. लेकिन उन्हें अपने राक्षसों से तो खुद ही लड़ना होगा.

ऐसा लगता है कि राहणे ने जो पहला गलत फैसला किया वह मध्य क्रम में खेलने का था और वहां से उनके संशयों की शुरुआत हुई. उन्होंने प्रथम श्रेणी क्रिकेट में सारे रन या तो ओपनर या नंबर तीन बल्लेबाज की हैसियत से बनाए. और ये रन कोई कम नहीं थे, उन्होने ढ़ेर सारे रन घरेलू क्रिकेट में बनाए और उसी वजह से तेंदुलकर और द्रविड़ के जमाने में वे हमेशा भविष्य के सितारे की तरह देखे गए. भारतीय ड्रेसिंग रूम में उन्होने काफी समय इंतजार में बिताया और तभी उनके मन में यह शक पैदा हुआ कि वे अंतरराष्ट्रीय स्तर की तेज गेंदबाजी और स्विंग अच्छी तरह नहीं खेल सकते. उन्हें तो यह लगा कि वे यह चतुराई कर रहे हैं कि मध्यक्रम में खेलने की घोषणा कर के गति और स्विंग से बच रहे हैं.

जब भारतीय टीम में ओपनर की जगह खाली हुई तो भी उन्होंने बजाय उस पर दावा करने के इंतजार करना बेहतर समझा. अगर वे ऊपर खेलकर अपने संशय और डर से निपट लेते तो वे शायद अलग बल्लेबाज होते. उनके पास तकनीक थी, प्रतिभा थी, जरूरत थी तो चुनौती का सामना करने की हिम्मत की. जब उन्होने टेस्ट में मध्यक्रम में खेलने का फैसला किया तो एकदिवसीय क्रिकेट में भी ओपनर होने का उनका दावा नहीं रहा और सीमित ओवरों के क्रिकेट में मध्यक्रम के अनुकूल उनका खेल नहीं है. इंग्लैंड में खेलते हुए उनके खेल में जो अनिश्चय और हिचकिचाहट दिखाई दी उसकी जड़ उसी शुरुआती संशय में है जिसकी चुनौती से निपटने की बजाय उन्होने बचने का रास्ता अपनाया.

गावस्कर भी हुए हैं आत्मविश्वास की कमी के शिकार

हम लोग तो विशेषज्ञ नहीं हैं लेकिन सुनील गावस्कर जैसे बडे खिलाड़ी भी कहते हैं कि क्रिकेट अस्सी प्रतिशत दिमाग का खेल है. गावस्कर भी एक बार आत्मविश्वास की जबर्दस्त कमी के शिकार हो चुके हैं, जब मार्शल एंड कंपनी ने उन्हें हिला दिया था. तब वे यह सोचने लगे थे कि वे भी ओपनिंग करने लायक नहीं हैं और उन्हें मध्यक्रम में खेलना चाहिए. लेकिन अगली इनिंग्ज में उन्होंने ओपनिंग में मार्शल एंड कंपनी की जोरदार धुलाई करके अपने सारे भूत झाड दिए. राहणे के बारे में भी जानकारों का कहना है कि उनकी समस्या आत्मविश्वास की है. अतिआत्मविश्वास बुरा है लेकिन अपनी काबिलियत पर विश्वास और चुनौतियों का मुकाबला करने का जज्बा जरूरी है. राहणे में लगातार कामयाब होने की सिफत है, बस उन्हें चुनौती के सामने डट कर खड़े होना होगा.