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इस टीम की हार को भी सलाम कीजिए... इस हार में भी जीत थी

वर्ल्ड हॉकी लीग के ब्रॉन्ज मेडल मैच में भारत ने जीत जरूर दर्ज की, लेकिन जर्मनी की फाइटिंग स्पिरिट को भी सलाम करने की जरूरत है

Shailesh Chaturvedi

कुछ तस्वीरें, कुछ वीडियो ऐसे होते हैं, जो जिंदगी का हिस्सा बन जाते हैं. जो जेहन से निकलते नहीं. जो खेलों की बात होते ही याद आते हैं. जो ये साबित करते हैं कि खेलना सबसे अहम है. खेलों को सिर्फ हार या जीत से नहीं जोड़ा जा सकता. यह वो दौर है, जहां जीत और हार को ही सब कुछ मान जाता है. यह सोशल मीडिया का दौर है, ट्रोल्स का दौर है. मीडिया में ‘एक्स्ट्रीम रिएक्शन’ का दौर है. ऐसे में कुछ तस्वीरें दिखती हैं. उनमें हार नजर आती है. लेकिन वो हार किसी जीत से कम नहीं होती.

जिन लोगों ने भुवनेश्वर में हॉकी वर्ल्ड लीग का ब्रॉन्ज मेडल मैच नहीं देखा, उन्हें देखना चाहिए. उन्हें रिकॉर्डिंग देखनी चाहिए. उन्हें जर्मनी को खेलते देखना चाहिए. इस टीम ने जिताया कि हार और जीत से ज्यादा अहम खेलना है. जीतने की कोशिश जरूरी है. जीत से भी ज्यादा जरूरी. यकीनन, अगर आप खेलों से प्यार करते हैं, तो मैच के कई लम्हों को भुला नहीं पाएंगे. एक तरफ 11, दूसरी तरफ 16. जर्मनी के पांच खिलाड़ी घायल या बीमार थे. उनके पास पिच पर उतरने के लिए सिर्फ 11 खिलाड़ी थे. उनमें भी दो गोलकीपर थे. उसके बाद भी वो टीम उतरी, खेली.. और गोल किया. मार्क एपेल गोलकीपर हैं. वो सेंटर फॉरवर्ड की तरह खेले और गोल किया.


11 खिलाड़ियों के साथ महज 20 घंटे में दो मैच

भारतीय टीम जीती जरूर, लेकिन आसानी से नहीं. जर्मनी ने अपना सब कुछ झोंक दिया. वो सब किया, जो मैच खेलने और जीतने के लिए किया जा सकता था. इस दौरान एक बार भी शिकायत नहीं की. आखिर मुकाबला खत्म हुआ. भारत 2-1 से जीता. हूटर बजा और जर्मन खिलाड़ी टर्फ पर धराशायी हो गए. पता नहीं निराशा ज्यादा थी या महज 11 खिलाड़ियों के साथ लगातार दो मैच पूरे करने की राहत. 20 घंटों के भीतर दो मैच खेलना पूरी टीम के लिए आसान नहीं होता. यहां तो सब्स्टीट्यूशन तक का कोई मौका नहीं था. कप्तान मार्टिन हेनर, जूलियस मेयर, क्रिस्टोफर रूर और मार्को मिल्ताकू बीमार थे. तिमूर ओरूज तो चोट की वजह से घर लौट गए थे. इसके बीच जर्मन टीम उतरी, खेली, लड़ी.. भले ही हार गई. लेकिन दिखा गई कि खेल में हार और जीत से बड़ा भी कुछ होता है. वो होता है खेल भावना. वो होता है खेलने और जूझने का जज्बा.

हम उस मैच का सामान्य तरह से विश्लेषण नहीं कर सकते. हम कह सकते हैं कि टीम इंडिया जीती जरूर, लेकिन कुछ स्कूली बच्चों जैसी गलतियां कीं. जैसे मनदीप सिंह ने अंपायर की सीटी बजने के बाद हिट लिया और येलो कार्ड देखा. हरमनप्रीत सिंह ने सीधी गेंद को जानबूझकर बैक लाइन से बाहर मार दिया, जिसकी वजह से भारत के खिलाफ पेनल्टी कॉर्नर हुआ. फुल स्ट्रेंथ जर्मनी होती, तो शायद ये गलतियां बहुत भारी पड़तीं. लेकिन अभी बात अच्छे या बुरे खेल, अच्छी या बुरी रणनीति की नहीं हो रही. उस खेल की हो रही है, जिसके लिए हम इसे देखने स्टेडियम में जाते हैं. जिसके लिए एक रोज पहले मूसलाधार बारिश में कलिंगा स्टेडियम खचाखच भरा दिखता है. वो खेल जर्मनी ने दिखाया.

खेल भावना की बात होगी, तो रेडमंड जरूर याद आएंगे

खेल भावना और हार न मानने के तमाम किस्से हैं. 1992 के बार्सिलोना ओलिंपिक का वीडियो हर ओलिंपिक के आसपास चर्चा में आता है. तब 400 मीटर सेमीफाइनल में डेरेक रेडमंड ने जो किया था, उसने ओलिंपिक की खेल भावना का सिर ऊंचा किया था.

रेस के बीच में रेडमंड की मांसपेशी खिंच गई थी. वो उठे, दौड़ने की कोशिश की. लेकिन गिर पड़े. इस बीच उनके पिता जिम स्टैंड से कूद गए. वो ट्रैक के साथ चलते रहे. अपने बेटे को थामा और किसी तरह रेस पूरी कराई. रेडमंड आखिरी ही आते. लेकिन उन्हें रेस पूरी करनी थी. चेहरा आंसुओं से भीगा था. लेकिन उन्हें पता था कि इस ट्रैक तक पहुंचने के लिए उन्होंने क्या किया है. वो इसका मान रखना चाहते थे.

सिंधु ने भी पेश की थी खेल भावना की मिसाल

इसी तरह रियो ओलिंपिक में बेहद कड़े मुकाबले के बाद भारत की पीवी सिंधु से कैरोलिना मारिन जीतीं. मारिन मैच पूरा करने के बाद कोर्ट में गिर गईं. सिंधु पास आईं, उन्होंने अपना हाथ दिया. उन्हें उठाया, उन्हें सराहा. यह दिखाया कि मैच खत्म हो चुका है. प्रतिद्वंद्विता खत्म हो चुकी है. अब इंसानी भावनाओं के ऊपर आने का वक्त है, जहां बेहतर खेलने वाले को सराहा जाना चाहिए. खेल की इन तस्वीरों से आप सीखते हैं. इन तस्वीरों में सोशल मीडिया की नफरत से अलग कुछ देखने को मिलता है. इन्हें संजो लीजिए. खेल इसी का नाम है.