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संडे स्पेशल: जो विकेट नहीं, बल्लेबाज की जान लेने के लिए करता था गेंदबाजी

बीमर का जान बूझकर इस्तेमाल करने वाले शायद अकेले गेंदबाज थे रॉय गिलक्रिस्ट

Rajendra Dhodapkar

पिछली बार हमने बात उमेश यादव पर खत्म की थी. उमेश यादव उन दुर्लभ तेज गेंदबाजों में हैं, जो बल्लेबाज को अपनी गेंदबाजी से डराते हैं. लेकिन उनका व्यक्तित्व आक्रामक नहीं है. वे मैदान पर मुस्कुराते हुए शरीफ, सीधे इंसान लगते हैं. दूसरे शब्दों में वे अपनी गेंदों को सब कुछ कहने देते हैं, जुबान से कुछ नहीं बोलते. इन दिनों क्रिकेट के मैदान पर आक्रामकता का प्रदर्शन या विकेट गिरने पर खुशी का इजहार कुछ ज्यादा अतिरंजित तरीके से होने लगा है.

यह काफी हद तक टीवी के बढ़ते प्रभाव की वजह से है. तेज गेंदबाज तो पहले भी अपनी आक्रामकता का प्रदर्शन जरा ज्यादा जोरदार तरीके से करते थे. चूंकि बल्लेबाज को डराना तेज गेंदबाजी का जरूरी हिस्सा है, इसलिए भी गेंदबाज ऐसे तरीके अख्तियार करते हैं. एलन डोनाल्ड ने कही बताया था कि शुरू में वे बल्लेबाज को बुरा-भला कहने या अपने गुस्से का इजहार करने वाले गेंदबाज नहीं थे. लेकिन उन्हें सलाह दी गई कि वे ज्यादा प्रभावशाली गेंदबाज बनने के लिए उग्र और गुस्सैल होने का प्रदर्शन करें.


लेकिन सब गेंदबाज ऐसे नहीं होते. क्रिकेट इतिहास के सबसे डरावने गेंदबाज़ों में शुमार होने वाले वेसली हॉल कभी बल्लेबाज को गाली देने या घूरने जैसा काम नहीं करते थे. उनके बारे मे कहा जाता है कि वे निहायत शरीफ आदमी है. कुछेक अपवादों को छोड़कर वेस्टइंडीज के तमाम गेंदबाज ज्यादा आक्रामकता दिखाने में यकीन नहीं करते थे. ऐसे ही एक अपवाद की बात हम आगे करेंगे.

कुछ गेंदबाज सचमुच गुस्से में आ जाते हैं. कुछ गुस्से का चतुराई से इस्तेमाल करते हैं. अगर कोई बल्लेबाज दो लगातार गेंदों पर चौके लगा दे तो गेंदबाज को गुस्सा आना स्वाभाविक है. लेकिन कभी गेंदबाज गुस्से में अपना आपा खो दे तो नुकसान उसी का होता है.

डेनिस लिली तमाम ऑस्ट्रेलियाई खिलाड़ियों की तरह ही जबान का हथियार की तरह इस्तेमाल करने में माहिर थे. लेकिन यह उनकी सोची समझी रणनीति का हिस्सा होता था. अगर बल्लेबाज उनकी गेंद पर चौका जड़ देता तो वे गुस्से में लाल पीले होकर गालियां बरसाते नजर आते. बल्लेबाज उन्हें देखकर किसी खतरनाक बाउंसर की उम्मीद में तैयार हो जाता. लिली की अगली गेंद जो ऑफ स्टंप पर गुड लेंथ इनस्विंगर होती थी, उसका स्टंप उड़ा जाती.

इसके विपरीत रॉय गिलक्रिस्ट एक ऐसे गेंदबाज़ थे जिनका गर्म मिजाज उनके करियर को ले डूबा. गिलक्रिस्ट ने सन 1957 से सन 1959 के बीच सिर्फ तेरह टेस्ट मैच खेले. उन दिनों गति नापने के लिए स्पीड गन तो होती नहीं थीं. लेकिन ये सब मानते हैं कि वे दुनिया के सबसे तेज गेंदबाजों में से थे. गैरी सोबर्स समेत तमाम जानकार बात पर सहमत हैं कि बल्लेबाज के स्वास्थ्य के लिए वे आज तक के सबसे खतरनाक गेंदबाज थे.

गिलक्रिस्ट जमैका में निहायत गरीबी की हालत में बढ़े-पले थे. उन दिनों वेस्टइंडियन द्वीप समूहों में रंगभेद काफी प्रबल था. ऐसे माहौल में बड़े होने का कुछ असर उनके स्वभाव पर जरूर पड़ा होगा. गिलक्रिस्ट बहुत लंबे नहीं थे. उनका कद पांच फुट आठ इंच था और शरीर भी बहुत तगड़ा नहीं था. उनके हाथ बहुत लंबे थे. अपने तेज रनअप और एक्शन से वे असाधारण तेजी हासिल करते थे.

वे खतरनाक इसलिए थे कि बल्लेबाज को जख्मी करना अपनी रणनीति का हिस्सा मानते थे. उनका कहना था कि वे पहले बल्लेबाज को चोटिल करते हैं, जिससे वह डर जाए और उसका विकेट लेना आसान हो जाए. अक्सर जब वे गुस्से में होते तो विकेट लेना गौण हो जाता. मुख्य उद्देश्य ही बल्लेबाज को जख्मी करना हो जाता.

इस उद्देश्य से वे बाउंसर के अलावा एक और हथियार का इस्तेमाल करते, बीमर यानी ऐसी फुलटॉस जो बल्लेबाज के सिर को निशाना बना कर फेंकी जाए. बीमर का जान बूझकर इस्तेमाल करने वाले शायद वे अकेले गेंदबाज थे. उनका कहना था कि बीमर के खिलाफ क्रिकेट में कोई नियम नहीं है. अक्सर बीमर फेंकने के लिए वे क्रीज छोड़कर एकाध कदम आगे निकल आते यानी उनकी बीमर लगभग अठारह गज की दूरी से फेंकी जाती.

सन 1958-1959 में वेस्टइंडीज की टीम भारत और पाकिस्तान के दौरे पर गैरी अलेक्जेंडर के नेतृत्व में आई थी. भारत के ख़िलाफ़ हॉल और गिलक्रिस्ट की जोड़ी ने काफी तबाही मचाई. भारत को तेज गेंदबाजी के खिलाफ कमजोर माना जाता था. गिलक्रिस्ट को भारतीय बल्लेबाजों को डराने में काफी मजा आ रहा था. पहले टेस्ट में कप्तान अलेक्जेंडर ने शायद गिलक्रिस्ट को खतरनाक गेंदबाजी करने से रोका, जिससे गिलक्रिस्ट बिगड़ गए. कहते हैं कि उन्होंने कप्तान को गाली दे दी. उन्हें दूसरे टेस्ट में बाहर बिठा दिया गया.

मद्रास में तीसरे टेस्ट में एजी कृपालसिंह ने उनकी एक गेंद पर चौका मारने की हिमाकत की तो अगली गेंद उन्होंने बीमर मारी. कृपालसिंह सिख थे और पगड़ी पहन कर खेलते थे. गेंद उनकी पगड़ी पर लगी और पगड़ी गिर गई. पगड़ी ने उनकी जान बचा ली.

नाटक का आखिरी दृश्य अमृतसर में देखा गया. पांचों टेस्ट खत्म हो गए थे और पाकिस्तान जाने के पहले वेस्टइंडीज टीम उत्तर क्षेत्र के खिलाफ दौरे का आखिरी मैच खेल रही थी. मैच के तीसरे और आखिरी दिन लंच के ठीक पहले का ओवर कप्तान अलेक्ज़ेंडर ने गिलक्रिस्ट को दिया.

उत्तरी क्षेत्र के कप्तान स्वरनजीत सिंह बल्लेबाजी कर रहे थे. स्वरनजीत सिंह कैंब्रिज में अलेक्जेंडर के साथ थे और कहा जाता है कि उन्होंने गिलक्रिस्ट के खिलाफ कुछ लिखा या बोला था. ओवर की दूसरी गेंद गिलक्रिस्ट यॉर्कर डालना चाहते थे जो थोड़ी शॉर्ट रह गई और स्वरनजीत ने उस पर सीधे ड्राइव करके चौका जड़ दिया. कहते हैं कि तब स्वरनजीत ने गिलक्रिस्ट को कुछ कह भी दिया. गिलक्रिस्ट की अगली चार गेंदों में से तीन बीमर थीं. लंच में यह फैसला हो गया कि गिलक्रिस्ट को वापस वेस्टइंडीज लौटना होगा. यह उनके अंतरराष्ट्रीय करियर का अंत था.

तब वेस्टइंडीज के कप्तान गोरे ही हो सकते थे. अलेक्जेंडर भले आदमी थे लेकिन शायद कैंब्रिज में पढ़े गोरे कप्तान और गरीबी में पले गर्म मिजाज गिलक्रिस्ट का तालमेल बनना मुश्किल था. कुछ वक्त बाद फ्रैंक वॉरेल पहले काले कप्तान बने. वॉरेल गिलक्रिस्ट को ऑस्ट्रेलिया के दौरे पर ले जाना चाहते थे. लेकिन चयनकर्ता नहीं माने. गिलक्रिस्ट, वॉरेल का बहुत सम्मान करते थे. वॉरेल मानते थे कि वे गिलक्रिस्ट को नियंत्रण में रख सकते हैं.

बहरहाल गिलक्रिस्ट बाद में इंग्लैंड में बस गए और लीग क्रिकेट खेलते रहे. संबंध के दशक में भारतीय खिलाड़ियों को तेज गेंदबाजी से अभ्यस्त करवाने के लिए कुछ विदेशी तेज गेंदबाज़ों को भारत में घरेलू क्रिकेट खेलने के लिए बुलाया गया. इस योजना के तहत गिलक्रिस्ट भारत में घरेलू क्रिकेट भी खेले. इंग्लैंड में भी उनके व्यवहार को लेकर शिकायतें हुईं. एक बार अपनी पत्नी के साथ मारपीट और उसे गर्म इस्तरी से दागने के लिए उन्हें तीन महीने की सजा भी हुई. काफी बाद मे वे जमैका लौट गए जहां सन 2001 में पार्किंसंस डिसीज़ से 67 साल की उम्र में उनकी मौत हो गई.