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कौन से लाहौर की याद ताजा कराएगा ये रविवार

क्या लाहौर की तस्वीर बदलने का काम कर पाएगा पीएसएल का फाइनल?

Shailesh Chaturvedi

लाहौर का नाम लेते ही टैक्सी वाले चाचा याद आते हैं. बुजुर्ग इंसान, जो टैक्सी में बैठते ही अपने सीडी सिस्टम पर लता मंगेशकर के गाने लगा देते थे. सिर्फ इसलिए कि हम हिंदुस्तानियों को अपनी पसंद के गाने सुनने को मिलें. रेस्त्रां में रेस्त्रां मालिक ने खास वेजीटेरियन खाना बनवाया गया था. सिर्फ ये जानने के लिए हिंदुस्तान से आए लोग शायद बता सकें कि अमिताभ बच्चन और रेखा की शादी क्यों नहीं हुई.

लाहौर का जिक्र उन यादों को लेकर आता है. लेकिन उन यादों को भी लाता है, जो 2009 से जुड़ी हैं. उस रोज तारीख तीन मार्च ही थी. लिबर्टी स्क्वायर क्रिकेट के गद्दाफी स्टेडियम और हॉकी के नेशनल स्टेडियम से महज 1-2 किलोमीटर दूर होगा. श्रीलंकाई टीम पर हमला हुआ था. कई क्रिकेटर जख्मी हुए थे. तिलन समरवीरा, अजंता मेंडिस और तरंगा परावितरना को ज्यादा चोट आई थी.


उसके बाद से लाहौर में सिर्फ पांच इंटरनेशनल मैच खेले गए हैं. टीमें आने से मना करती रही हैं. सिर्फ जिम्बाब्वे टीम एक बार आने को तैयार हुई थी. वो मई 2015 था. तीन वनडे और दो टी 20 मैच खेले गए थे. उन मैचों के बीच भी एक धमाका हुआ था. तमाम लोगों को कहना है कि वो बम था. उसे सिलेंडर का फट जाना बताया गया था.

अब एक बार फिर कतारें हैं. रविवार को पाकिस्तान सुपर लीग के फाइनल के लिए. पेशावर और क्वेटा की टीमों के बीच फाइनल मुकाबला होना है. अच्छी बात यह है कि पेशावर टीम की तरफ से कहा गया है कि उनकी टीम के विदेशी खिलाड़ी लाहौर में खेलेंगे. ऐसा हुआ तो मार्लन सैमुअल्स और डैरेन सैमी जैसे खिलाड़ी नजर आएंगे. हालांकि क्वेटा के लिए केविन पीटरसन समेत कई खिलाड़ियों ने आने से मना कर दिया.

सवाल यही है कि क्या ये फाइनल लाहौर की उसी तस्वीर को लेकर आएगा, जो आज से एक दशक पहले दिखाई देती थी? टिकट खरीदती महिलाओं की वो तस्वीर भरोसा देने का काम करती है. लेकिन जब इमरान खान कहते हैं कि हजारों सुरक्षा कर्मियों और संगीनों के साए में क्रिकेट का कोई मतलब नहीं है. इससे लाहौर की इमेज कतई नहीं सुधरेगी.

2009 में आतंकी हमले के बाद घायल श्रीलंकाई क्रिकेटर तिलन समरवीरा.

इमरान खान पाकिस्तान के सबसे लोकप्रिय क्रिकेटर के अलावा पाकिस्तान तहरीक-ए इंसाफ के अध्यक्ष भी हैं. उनके लिए बोलना सिर्फ क्रिकेटर के तौर पर नहीं है. उन्हें लगता है कि रविवार को पूरे इलाके में कर्फ्यू जैसा माहौल होगा. खुदा न करे, अगर उस रोज कोई हादसा हो गया, तो उसके बाद पाकिस्तान में क्रिकेट का क्या हश्र होगा.

सवाल यही है कि जोखिम लेना चाहिए था या नहीं. इमरान की बात सही है कि धमाका होना पाकिस्तान को और ज्यादा अलग-थलग कर देगा. लेकिन कामयाब मैच क्या इमेज सुधारने का काम नहीं करेगा? इमेज ही एक बड़ी वजह है कि लीग की शुरुआत में ही विदेशी खिलाड़ियों से इस पर हामी भरवाई गई थी कि वे लाहौर में खेलेंगे. हालांकि इसके बावजूद ज्यादातर खिलाड़ी नहीं आए.

नजरें इस वक्त लाहौर पर हैं. भले ही पाकिस्तान सुपर लीग की विश्व क्रिकेट के लिहाज से कोई अहमियत न हो. लेकिन नजरें रहेंगी इस सोच के साथ कि शायद वो लाहौर वापस मिल जाए.

वो लाहौर, जहां महिलाओं का अलग स्टैंड हुआ करता था. उस स्टैंड से सबसे ज्यादा आवाजें आती थीं. कोई भारतीय नहीं भूल पाएगा उस दौरे को जब भारतीय टीम गई थी. लक्ष्मीपति बालाजी जब इंजमाम उल हक को गेंदबाजी करते थे, तो महिलाओं के स्टैंड से आवाजें आती थीं – बालाजी जरा धीरे चलो, इंजी खड़ा यहां इंजी खड़ा.

ये उम्मीद करना तो बहुत ज्यादा होगा कि लीग के फाइनल से वहां क्रिकेट का माहौल बनेगा. लेकिन जितने भारतीयों ने लाहौर देखा है, वो चाहेंगे जरूर कि कम से कम उस माहौल की तरफ पहला कदम जरूर बढ़े. देखना होगा कि ये रविवार कौन से लाहौर की यादें लाता है. 2009 से पहले वाले या उसके बाद वाले.