अच्छा लगता है जब 18-20 का युवा देश के लिए खेलना शुरू करता है. पिछले एक महीने में पृथ्वी शॉ, खलील अहमद और क्रुणाल पांड्या ने क्रिकेट टीम के लिए अलग-अलग फॉरमेट में अपना पहला मैच खेला. दिए गए मौकों के साथ तीनों ने न्याय भी किया. यह सही है कि किसी भी प्रतिभा को सही समय पर मौका मिलना चाहिए. लेकिन खेल में एक और बात जरूरी होती है, वो यह कि मौका कहां मिल रहा है और वह किस तरह के प्रतिद्वंदी के खिलाफ दिया जा रहा है
ऐसे में यह सवाल जायज है कि इतनी छोटी उमर में अपनी बेहद थकी हुई पिचों पर एक निहायत ही मजबूर टीम के खिलाफ क्रिकेट की अगली पीढ़ी को डेब्यू करवाना कितना तर्कसंगत है!
सुनील गावस्कर, कपिल देव और सचिन तेंदुलकर के महान बनने के पीछे एक अहम कारण यह भी रहा कि उन्होंने ऐसी टीमों के खिलाफ अपने क्रिकेट का आगाज किया, जिसकी बल्लेबाजी और गेंदबाजी किसी का भी करियर खराब कर सकती थी. इन तीनों ने ही अपना करियर घर से बाहर जालिम परिस्थितियों में शुरू किया.
गावस्कर ने अपना पहली टेस्ट मैच पोर्ट ऑफ स्पेन में वेस्टइंडीज के खिलाफ खेला. बतौर टेस्ट क्रिकेटर 65 रन की पहली पारी उनके लिए एजुकेशन थी कि आखिर अंतरराष्ट्रीय क्रिकेट का स्तर कैसा होता है और इसमें खुद को साबित करने के लिए आखिर क्या चाहिए और क्या करना पड़ता है. बतौर ओपनर गावस्कर को पहले ही मैच में होल्डर, ग्रेसन शिलिंगफोर्ड जैसे तेज गेंदबाजों का सामना करना पड़ा. कपिल देव की पहली टेस्ट पारी फैसलाबाद में महज आठ रन पर सिमटी थी. लेकिन वह उन्हें इमरान खान और सरफराज नवाज जैसे तेज गेंदबाजों से रू-ब-रू करवा गई. उसके बाद उन्होंने गेंदबाजी में तो अपना जलवा दिखाया ही. अपने पहले मैच में सचिन का कराची में सामना इमरान खान, वसीम अकरम, वकार यूनुस और अब्दुल कादिर से हुआ.
आम जिंदगी की तरह किसी भी खेल में संकटों के बीच मुश्किल भरे हालातों में शुरुआत से कामयाबी की भूख बढ़ती है. इसलिए जब कोई पृथ्वी शॉ को वीरेंद्र सहवाग, सचिन तेंदुलकर और ब्रायन लारा का क्लोन घोषित कर दे तो सवाल उठाना जायज है.
हो सकता है कि यह भविष्यवाणी सच साबित हो. यह भी संभव है कि शॉ इन तीनों से कहीं बेहतर निकलें. लेकिन पहले ही मैच में एक ऐसी मरी हुए पिच पर लाचार गेंदबाजों के सामने शतक को देख कर दावा कर देना जल्दबाजी है.
अभी किसी ने देखा नहीं है कि शॉ आस्ट्रेलिया या इंग्लैंड में उन गेंदों का सामना कैसे करते हैं जो सामने से टेनिस बॉल जैसे बाउंस के साथ उठ कर छाती और कान की ऊंचाई तक आती है. रोहित शर्मा सबसे बेहतरीन उदहारण है.
रोहित शर्मा ने अपनी पहला टेस्ट मैच 2013 में कोलकाता में वेस्टइंडीज के खिलाफ खेला था. पहले ही मैच में 177 रन की पारी खेल कर उन्होंने भी विशेषज्ञों से तारीफें बटोरी. यकीनन वह एक उम्दा बल्लेबाज हैं और प्रतिभा की कोई कमी नहीं. लेकिन फिर भी यह आक्रामक बल्लेबाज पांच सालों में सिर्फ 25 टेस्ट मैच ही खेल पाया है.
उनकी टेस्ट टीम से अंदर-बाहर होने की गिनती से साफ है कि वह बतौर बल्लेबाज अपनी प्रतिभा और टीम में अपनी जगह से साथ न्याय करने में नाकाम रहे हैं.
लगातार इस बार कर बहस होती है कि टीम इंडिया इंग्लैंड, ऑस्ट्रेलिया या साउथ अफ्रीका में पिट कर क्यों आती है! इस शर्मिंदगी को कुछ हद तक कम किया जा सकता है. बशर्ते बीसीसीआई यह तय कर ले कि 18-24 साल के क्रिकेटरों को टेस्ट या वनडे करियर में डैब्यू ऐसे दौरों पर करवाए.
युवा क्रिकेटरों को विषम परिस्थितियों में झोंकने से भारतीय क्रिकेट को लाभ मिलेगा. विराट इसका उदाहरण हैं. 2011 में उनका वेस्टइंडीज में टेस्ट का आगाज उनके खुद के लिए जिक्र करने लायक नहीं है क्योंकि तीन टेस्ट मैचों की पांच पारियों में उनका स्कोर 4, 5, 0, 27, 30 था.
विराट के लिए वह दौरा एजुकेशन की तरह रहा जिसमें उन्होंने बहुत कुछ ऐसा सीखा जो कोच या मेंटर नहीं बता सकते. उस नाकामी में उन्हें अंदाजा हो गया कि असली क्रिकेट क्या है और उसे कैसे खेलना पड़ता है!.
2012 में ऑस्ट्रेलिया में तेज गेंदबाजों की पिचों पर परेशान कर देने वाले हालात में खेले तीन टेस्ट मैचों की छह पारियों में विराट ने 23, 9, 44, 75, 116 और 22 रन बनाए. उसके बाद से विराट ने पीछे मुड़ कर नहीं देखा. इसलिए विराट बोर्ड के लिए केस स्टडी हो सकते हैं.