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आईसीसी चैंपियंस ट्रॉफी 2017 फाइनल: पाकिस्तान को सता रहा है नियति का खौफ!

बड़बोलेपन के बावजूद, आम पाकिस्तानी दिल ही दिल में यह जरूर सोच रहा है कि काश फाइनल में उनका मुकाबला भारत के बजाय किसी और टीम से होता

Sandipan Sharma

चैंपियंस ट्रॉफी में जबर्दस्त वापसी के बावजूद पाकिस्तान में इस बात का खौफ है कि नियति उनका पीछा नहीं छोड़ती.

अक्खड़पन, 'मौका-मौका' के राग और भारतीय धुरंधरों के सामने अपने खिलाड़ियों की तारीफ वाले बड़बोलेपन के बावजूद, आम पाकिस्तानी दिल ही दिल में यह जरूर सोच रहा है कि काश फाइनल में उनका मुकाबला भारत के बजाय किसी और टीम से होता.


पाकिस्तानी मानसिकता डॉन अखबार के एक संपादकीय में सिमटी नजर आती है. 'फाइनल में अब भी भारतीय प्रेतछाया बहुत लंबी दिख रही है. इसके बावजूद कि इंग्लैंड पर पाकिस्तान ने जबर्दस्त जीत हासिल की है, सरफराज ने अपनी टीम का जबर्दस्त नेतृत्व किया है, फखर और हसन ने बेहतरीन प्रदर्शन किया है. पाकिस्तान अपने चिर प्रतिद्वंद्वी के खिलाफ सावधान रहेगा क्योंकि हाल के मुकाबलों में उसे पाकिस्तान पर एक स्पष्ट बढ़त हासिल रही है.'

1987 का वो साल 

विश्लेषक इसे मनोवैज्ञानिक कारणों में गिनते हैं. उनका मानना है कि भारत के साथ मुकाबले में पाकिस्तानी साइड का ध्यान एकाग्रता से भटक जाता है. उम्मीद की जानी चाहिए कि रविवार को यह समीकरण बदल जाएगा.इससे असहमत होना मुश्किल है.

पाकिस्तान के लिए आईसीसी के वन डे फाइनल में भारत को हराने का जो सबसे बेहतरीन मौका हाथ लगा था, वह दोबारा उसे कभी नहीं मिला. तब से हर आईसीसी मुकाबला पाकिस्तान के लिए एक कड़वी यादों जैसा साबित हुआ है.

ऐसा फिर कभी नहीं हुआ जिस मुकाबले में आरडी बर्मन और किशोर कुमार के गाने 'आ देखें जरा किस में कितना है दम' किसी रूप में शामिल रहे हों.

यह भी पढ़ें: आईसीसी चैंपियंस ट्रॉफी: भारत-पाकिस्तान मैच पर बोले इमरान खान, पिछली हार का बदला ले पाकिस्तान

वह साल था 1987 का. क्रिकेट का वर्ल्ड कप अपने मक्का, लॉर्ड्स से निकल कर भारतीय उपमहाद्वीप में आ गया था. तब लग रहा था कि फाइनल में प्रतियोगिता के संयुक्त मेजबान भारत और पाकिस्तान की ही भिड़ंत होगी. लेकिन स्टीव वॉ और ग्राहम गूच ने दोनों टीमों को सेमीफाइनल में बाहर कर दिया.

बॉम्बे के वानखेड़े स्टेडियम में गूच की टीम के हाथों बाहर होने से पहले भारत ने बहुत समझबूझ के साथ धीरे-धीरे सेमीफाइनल में जगह बनाई थी, जबकि पाकिस्तान को सेमीफाइनल में ऑस्ट्रेलिया के खिलाफ खेलने के लिए अपनी यात्रा में ज्यादा मुश्किलों का सामना नहीं करना पड़ा था.

हरेक मैच के दौरान, इस विश्वास के साथ कि इमरान खान के नेतृत्व में उनकी टीम पहली बार वर्ल्ड कप जीत लेगी. पाकिस्तानी लड़कियां बर्मन का गाया गीत ‘आ देखें जरा’ पूरे जोशोखरोश के साथ एक साथ कोरस में गाया करती थीं. हालांकि बाद के वर्षों में पाकिस्तान के लिए वर्ल्ड कप के दौरान बर्मन और किशोर कुमार का ये गाना ‘सचिन-सचिन’ में बदल गया.

किसमें कितना है दम

प्रशंसकों की उम्मीद के बावजूद दोनों टीमें ईडेन गार्डेन के फाइनल में नहीं मिल सकीं. एलन बॉर्डर वह ट्रॉफी लेकर चले गए, जिसे जीतने का सपना भारत और पाकिस्तान ने पाल रखा था. तबसे, ‘ आ देखें जरा...’ गाना किसी पाकिस्तानी ग्राउंड पर सुनाई नहीं दिया.

पाकिस्तानी साइड उस समय निश्चित तौर पर बेहतर थी. वर्ल्ड कप से कुछ महीनों पहले ही वह भारत से एक सफल दौरा करके लौटी थी. उसने भारत को 50 ओवरों के मुकाबले और टेस्ट सीरीज, दोनों में हराया था. इस सीरीज का आखिरी मैच बेहद रोमांचक था, जिसमें बंगलौर की टर्न लेती विकेट पर सुनील गावस्कर की पारी को कुछ लोग सर्वश्रेष्ठ मानते हैं.

पाकिस्तान उस समय भारत को लगातार पराजित कर रहा था. वह भी कुछ अजीब कारणों से. शारजाह में, जहां भारत ने अपने इस पड़ोसी के खिलाफ सारे मैच शुक्रवार को खेले, लगभग एक दशक तक भारत को वहां हार का ही सामना करना पड़ा.

पाकिस्तान तब अपने क्रिकेट के चरम पर था और भारत इसमें थोड़ा कमजोर पड़ रहा था. ये वक्त मोहम्मद अजहरुद्दीन से जुड़े अप्रत्याशित मैच फिक्सिंग का युग था.

शायद भारत के पक्ष में इस संतुलन का झुकाव तब आया जब दोनों ने एक और विश्व कप की साझा मेजबानी की. 1996 में, जब भारत और पाकिस्तान विश्व कप के क्वार्टर फाइनल में आमने-सामने आए, तब वकार यूनुस की गेंदों पर अजय जडेजा के करारे हमले ने बहुत से पाकिस्तानी प्रशंसकों को अपनी प्रार्थना की चटाइयां बाहर निकालने पर मजबूर कर दिया. लेकिन इन प्रार्थनाओं का फायदा नहीं हुआ और भारत ने पाकिस्तान को इस मुकाबले में शिकस्त दे दी.

पाकिस्तान के लिए सुनहरा मौका 

हालांकि, ऐसा लगता है कि पाकिस्तान को एक मौका फिर मिला है.

यह हम पर है कि हम खेल मुकाबले को किस तरह लेते हैं. ये भी एक अजीब संयोग है भारत और पाकिस्तान की ये भिड़ंत 18 जून यानी ‘फादर्स डे’ के मौके पर हो रही है.

क्रिकेट इतिहास में ऐसा पहली बार हो रहा है कि भारत-पाकिस्तान 50 ओवरों वाली किसी आईसीसी प्रतियोगिता के फाइनल में रविवार के दिन भिड़ेंगे.

तो, पाकिस्तान कम दमखम के साथ क्यों खेलेगा? टीम अपने प्रदर्शन पर दबाव क्यों आने देगी?

भारत-पाकिस्तान का मुकाबला, खास कर फाइनल, सिर्फ एक मैच नहीं होता. यह बिना गोलीबारी के युद्ध जैसा होता है. इसमें वर्षों की दबी-छिपी भावनाएं हैं, वैर है और आक्रोश भी. 22 गज की पिच पर दुश्मनी और प्रतिद्वंद्विता पूरे दमखम के साथ खेली जाती है जिसमें दो पड़ोसी देशों के लोगों की सोच और भावनाएं शामिल होती हैं.

गुजरे वर्षों के साथ, भारत उस उन्माद से बाहर निकल गया है, जो पाकिस्तान के साथ मैच के दौरान देश को अपनी जकड़ में ले लेता था. इसका एक कारण यह भी है कि भारत ने पाकिस्तान को आईसीसी प्रतियोगिताओं में लगातार सात बार मात दी है. दोनों टीमें आईसीसी प्रतियोगिता में 15 बार आमने सामने हो चुकी हैं.

भारत ने इनमें से 13 मुकाबले जीते हैं. इस तरह जीतना भारत की आदत में शामिल हो गया है. इसीलिए नीली जर्सी वाले खिलाड़ी जब भी पाकिस्तान से भिड़ते हैं उन पर जीत का दबाव बहुत कम होता है. भारतीय प्रशंसक भी जानते हैं कि आईसीसी प्रतियोगिता में उनकी टीम पाकिस्तान के मुकाबले बहुत बेहतर है और किसी छिटपुट हार से शक्ति संतुलन पर कोई फर्क नहीं पड़ेगा.

बेवजह उन्माद है पाकिस्तान की कमजोरी 

इसके अलावा, पाकिस्तान के मुकाबले भारत ज्यादा आत्मविश्वास से भरा और मजबूत देश है. भारत की मौजूदा पीढ़ी की सोच यह है कि भारत सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक सूचकांक के स्तर पर पाकिस्तान को बहुत पीछे छोड़ चुका है.

इस तरह, पाकिस्तान को बराबर का या सक्षम प्रतिद्वंद्वी मानना अर्थपूर्ण नहीं लगता. भारत क्रिकेट में ऑस्ट्रेलिया या साउथ अफ्रीका को हरा सकता है, तो पाकिस्तान को लेकर बेकार में ज्यादा चिंता क्यों करे.

लेकिन पाकिस्तान की अधूरी इच्छा अब भी यही है कि वह भारत के प्रतिद्वंद्वी के रूप में खुद को स्थापित कर सके. आईसीसी मुकाबलों में भारत से बार-बार की हार और अपनी टीम के पतन ने उसके इस जुनून को और बढ़ाया है.

कभी इमरान, वसीम अकरम, जावेद मियांदाद और शाहिद अफरीदी जैसे न भूलने वाले सितारों से सजी पाकिस्तानी टीम आकर्षण का केंद्र हुआ करती थी. लेकिन आज उनके खिलाड़ी न चुनौती पेश करते हैं न उनमें वैसी प्रतिद्वंद्विता दिखती है. इसके बजाय वे मैच के दौरान भारतीय धुरंधरों के सामने कमजोर, दया और सहानुभूति के पात्र लगते हैं.

पाकिस्तान की झुंझलाहट किसी भी अहम आईसीसी मुकाबले से पहले और बाद में उजागर होती है. समूह में शोक, जो अब तो हर हार के बाद की परंपरा सी बन गई है, हर असफलता के बाद टीवी सेट्स का तोड़ना, और कप्तानों की कड़वी टिप्पणियां इसकी मिसाल हैं.

कप्तान अफरीदी ने 2011 में मोहाली में भव्य स्वागत के बाद भारतीयों को खराब मेजबान बताया था. इससे साबित होता है कि पाकिस्तान अपने हर मैच में कितनी भावनाएं उड़ेल लेता है और नतीजे के बाद वह उससे निपटने के लिए कितना संघर्ष करता है.

जब भारत-पाक मुकाबला महज एक खेल होगा  

दोनों टीमों और दोनों देशों की तुलनात्मक यात्रा को ध्यान में रखते हुए कहा जा सकता है कि जल्द ही वह समय आएगा जब क्रिकेट मुकाबला भारत-पाकिस्तान के लिए अहम या अभिमान का विषय नहीं रह जाएगा.

हॉकी की तरह, क्रिकेट भी दोनों देशों के बीच सामान्य सा खेल भर रह जाएगा. जो जनसमूह को हिस्टीरिया की तरह उत्तेजित नहीं करेगा. और तब शायद, ऐसे उन्माद की गैर मौजूदगी में पाकिस्तान परिस्थितियों से बेहतर ढंग से निपट सकेगा.

लेकिन वह समय आने तक, पाकिस्तान अपनी इस उम्मीद में सुलगता रहेगा कि वह आईसीसी फाइनल के मुकाबले में अपने पड़ोसी को हरा सके और भारत नतीजे से निश्चिंत, बेहतर होने के अपने भरोसे और आत्मविश्वास का आनंद लेता रहेगा. तो, दबाव कभी के उन धुरंधरों पर ही होगा, जो अब चुके हुए हैं.