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महिला क्रिकेट के बारे में हर वो बात, जो आपको जाननी चाहिए

किस तरह संघर्ष से कामयाबी का सफर तय किया है भारतीय महिला टीम ने

Neeraj Jha

महिला क्रिकेट को लेकर आम लोगों के सोच में अचानक से एक बदलाव नज़र आ रहा है. हालिया दिनों में क्रिकेट के प्रशंसक महिला क्रिकेट में काफी दिलचस्पी दिखा रहे हैं. ये सूचक है लोगों के मानसिकता में बदलाव का. भले ही हमारी सरकार महिलाओं के लिए कई सालों से 33 प्रतिशत आरक्षण लाने के लिए संघर्ष कर रही है, लेकिन महिलाएं अपनी मेहनत और काबिलियत के बदौलत पूरी दुनिया में एक अलग पहचान बनाने में कामयाब होती दिख रही है.

वास्तव में अगर देखें तो कुछ साल पहले मामला ऐसा नहीं था. आम प्रशंसकों को छोड़िए अब तो पुरुष टीम के टॉप खिलाड़ी और बोर्ड के आला अधिकारी भी ट्वीट कर अपने आपको महिला क्रिकेट से जोड़ने में कोई कसर नहीं छोड़ रहे. भले ही वो बोर्ड के उस आला अधिकारी को चैंपियंस ट्रॉफी और वर्ल्ड कप में कोई फर्क नहीं दिखता हो. गलती तो खैर किसी से भी हो सकती है लेकिन अच्छी बात ये है की ये लोग भी महिला क्रिकेट को उसका उचित स्थान दिलाने में जुटे है.


यह बात लिंग भेद के परिप्रेक्ष्य में नहीं है, लेकिन यह बात हम सबको पता है की वर्तमान पुरुष टीम के मुकाबले महिलाओं की टीम बेहतर प्रदर्शन कर रही है. हरमनप्रीत कौर ने जिस तरह से सिर्फ 115 गेंदों में नाबाद 171 रन बनाकर टीम को इस बार फाइनल में पहुंचाया वो ना सिर्फ काबिले-तारीफ है बल्कि ऑस्ट्रेलिया के खिलाफ ये उस हार का बदला भी है जो उन्हें ग्रुप स्टेज के मैच में मिली थी.

यह कितनी बड़ी जीत थी इसका अंदाजा इस बात से ही लगाया जा सकता है की इस सेमीफइनल से पहले भारत को 2013 के विश्व कप के बाद से ऑस्ट्रेलिया के खिलाफ खेले गए चार वनडे में से सिर्फ एक में ही जीत मिल पायी थी. टीम की हालिया प्रदर्शन ने मिताली राज, स्मृति मंधाना, राजेश्वरी गायकवाड़ और जाहिर है, कोलकाता की झूलन गोस्वामी को एक घरेलू नाम बना दिया है. लेकिन इसके बावजूद ये कहना गलत नहीं होगा कि महिला क्रिकेट को अभी भी उनका असली हक़ नहीं मिला है.

इतिहास के पन्नों से

दुनिया में महिला क्रिकेट का इतिहास बहुत पुराना है. द रीडिंग मर्क्यूरी में 26 जुलाई 1745 को छपे एक रिपोर्ट के मुताबिक - पहली बार महिलाओं का क्रिकेट

इंग्लैंड के सरे में गिल्डफोर्ड के पास ब्रामले और हैम्बलेडन के गांवों के बीच हुआ था. 1934 में पहला महिला टेस्ट इंग्लैंड और ऑस्ट्रेलिया के बीच खेला गया.

भारतीय महिलाओं ने 70 के शुरुआती दशक में क्रिकेट में कदम रखा लेकिन उस समय तक ये खेल वास्तव में संगठित नहीं हुआ था. आधिकारिक तौर पर महिला क्रिकेट तब शुरू हुआ जब संस्थापक और सचिव महेंद्र कुमार शर्मा ने 1973 में बेगम हमिदी हबीबुल्ला की अध्यक्षता में लखनऊ में सोसायटी अधिनियम के तहत महिला क्रिकेट संघ के भारतीय दल को पंजीकृत किया. जैसे ही खबर फैल गई, पूरे भारत में उत्साह का माहौल था.

भारत ने अपना पहला मैच 1976 में 25 हजार दर्शकों की उपस्थिति में खेला और वेस्टइंडीज को पराजित किया था.  खास बात ये थी की उस समय ये मैच पटना में खेला गया था. 1975 से 1986 के बीच भारत की टीम ने कई अंतरराष्ट्रीय मैच खेले, लेकिन इसके बाद 5 साल तक महिला क्रिकेट में कुछ खास नहीं हुआ.

शांता रंगसास्वामी, डायना एडुल्जी, सुधा शाह और संध्या अग्रवाल जैसे कुछ खिलाड़ियों ने इस खेल को बड़ा योगदान दिया और कई खिलाड़ियों को इस खेल से जुड़ने के लिए प्रेरित भी किया.

इसके बाद टीम ने 2005 के विश्व कप के फाइनल में जगह बनाया लेकिन ऑस्ट्रेलिया के हाथों शिकस्त मिली. इसके अलावा तीन अन्य अवसरों (1997, 2000 और 2009) पर टीम सेमीफाइनल तक पहुंची.

बीसीसीआई का दोहरा रवैया

महिला क्रिकेट को लेकर बीसीसीआई का हमेशा से दोहरा रवैया रहा है. 2005 के अंत में इंटरनेशनल क्रिकेट काउंसिल (आईसीसी) ने सभी महिला एसोसिएशन को उनके अपने क्रिकेट बोर्ड के साथ विलय के लिए अल्टीमेटम दे दिया. आईसीसी ने ये ऐलान करते हुए कहा था कि महिलाओं के क्रिकेट को बढ़ावा देने के लिए सालों से बहुत कुछ नहीं किया गया है. इसलिए यह एक जरूरी कदम है. हालांकि बीसीसीआई ऐसा करने में बहुत ज्यादा इच्छुक नहीं था. लेकिन आईसीसी के दबाव की वजह से उन्हें महिला क्रिकेट एसोसिएशन ऑफ इंडिया को अपना हिस्सा बनाना ही पड़ा.

इस विलय के बाद उस समय पूर्व क्रिकेटर और कप्तान डायना एडुल्जी ने उस समय कहा था, ‘हमारा सपना सच हो गया. महिला क्रिकेट के अच्छे दिन आएंगे और खिलाडियों को भी इससे काफी बड़ा फायदा होगा.’ लेकिन ऐसा कुछ भी हुआ नहीं. इस बात का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि उन्हें खिलाड़ियों के लिए सेंट्रल कॉन्ट्रैक्ट लाने में करीब 9 साल लग गए. आखिरकार टीम को

2015 में सेंट्रल कॉन्ट्रैक्ट दिए गए. महिला खिलाड़ियों के वेतन इस प्रकार थे.

ग्रेड ए –  15 लाख

ग्रेड बी – 10 लाख

महिला क्रिकेट के प्रति बीसीसीआई के दोहरे रवैये का पता इस बात से भी चलता है कि उनका कॉन्ट्रैक्ट 2016 में ही खत्म हो गया था. लेकिन अभी तक उसे रीन्यू नहीं किया गया. ऐसी बात नहीं है कि बीसीसीआई के पास वक्त की कमी थी क्योंकि मेंस क्रिकेट टीम का कॉन्ट्रैक्ट उन्होंने टाइम से मार्च 2017 में घोषित कर दिया था. कॉन्ट्रैक्ट को देख कर हम खुद ही समझ सकते दोनों टीमों में कितने का फर्क रखा गया है

ग्रेड ए – 2 करोड़

ग्रेड बी –  1 करोड़

ये मानना भी गलत होगा कि बीसीसीआई ने कुछ भी नहीं किया है. अगर हम पुरुष टीम से तुलना न करें तो स्थितियां सुधरी हैं. घरेलू टवेंटी टवेंटी को टीवी पर लाने का श्रेय उन्हीं को जाता है। पहली बार हमें उन खिलाड़ियों को देखने का मौका मिला जिन्हें हमने पहले कभी ना देखा था ना सुना था.

आगे की राह

ऑस्ट्रेलिया और इंग्लैंड की तुलना में भारत में महिलाओं के लिए घरेलू संरचना उतनी अच्छी नहीं है. ज्यादातर महिला खिलाड़ियों के नौकरी के लिए भारतीय रेलवे के अलावा कोई और विकल्प भी मौजूद नहीं है. ऐसे में बीसीसीआई को आईपीएल के तर्ज पर महिलाओं के लिए एक लीग करवाने की जरूरत है जिससे की इन खिलाड़ियों को भी पुरुष क्रिकेटर की तरह आर्थिक सुरक्षा मिल सके.

इस दौर में ऑस्ट्रेलिया और इंग्लैंड के बोर्ड काफी आगे है. पहली महिला बिग बैश लीग पुरुष संस्करण के साथ खेला गया और अपने आप में हिट साबित हुआ. यहां इंग्लैंड क्रिकेट बोर्ड की भी तारीफ की जानी चाहिए, क्योंकि वो महिलाओं के काउंटी क्रिकेट क्लब और यूनिवर्सिटी क्रिकेट में काफी निवेश कर रहे हैं.

बीसीसीआई को पावरहाउस बोर्ड माना जाता है लेकिन कोई भी तभी पावरफुल होता है जब वो पुरुष और महिलाओं का बराबर सम्मान करें. हम तो यही उम्मीद करते है जमाने के साथ बोर्ड को भी अपने सोच में बदलाव लाने की जरूरत है.