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संडे स्पेशल: यह क्रिकेट का नहीं, बाजार का उन्माद है

जीत का जश्न हो या हार का मातम, बाजार तय करता है क्रिकेट को समझने के कायदे

Rajendra Dhodapkar

पिछले दिनों भारतीय क्रिकेट में दो बुरी खबरें छाई रहीं. पहली खबर भारतीय क्रिकेट टीम के कोच अनिल कुंबले और कप्तान विराट कोहली के बीच मतभेदों और कुंबले के पद छोड़ने की थी. दूसरी खबर चैंपियंस ट्रॉफी फाइनल में भारत की हार के बाद भारत और पाकिस्तान में उग्र राष्ट्रवादी और सांप्रदायिक प्रतिक्रिया की थी.

पाकिस्तान से हार इतनी बुरी खबर नहीं थी, खेल में जीत-हार तो चलती ही रहती है. यह तय है कि एकदिवसीय क्रिकेट में भारत की टीम पाकिस्तान से बहुत बेहतर है. लेकिन जो मैच सिर्फ एक दिन में  सौ ओवर चलना हो, उसमें उलटफेर होना ज्यादा संभव है. आखिरकार सन 1983 के विश्वकप में भारत की वेस्टइंडीज पर जीत भी ऐसी ही थी. असली बुरी खबर उस मैच के बाद की प्रतिक्रिया थी.


आखिर हम एक मैच को हमारे देश की इज्जत का पैमाना कैसे बना सकते हैं. हमारे देश की इज्जत ऐसी कमजोर तो नहीं है. इसके अलावा भारत-पाकिस्तान के मैच धार्मिक विद्वेष को भड़काने के बहाने बन जाते हैं, जो और भी खतरनाक है.

क्रिकेट अठारहवीं सदी में इंग्लैंड के गांवों में शुरू हुआ. जब यह खेल लोकप्रिय हुआ तो काफी वक्त तक वह गरीब लोगों का खेल बना रहा, जिस पर जम कर सट्टेबाजी होती थी. उन्नीसवीं सदी में क्रिकेट और फुटबॉल जैसे खेलों को अंग्रेज पब्लिक स्कूलों ने अपना लिया. ये वे स्कूल थे जहां अंग्रेजी उपनिवेशों के लिए भावी प्रशासक तैयार होते थे.

यहां इन खेलों को प्रोत्साहित करने का मकसद यह था कि लड़के अपने खाली वक्त में व्यस्त रह सकें और खेलों के माध्यम से अनुशासन, नेतृत्व और खेल भावना जैसे गुण भी सीखें. यहीं पर क्रिकेट जेंटलमैंस गेम कहलाया और इसके तमाम नियम और मर्यादाएं तैयार हुईं.

इन प्रशासकों के जरिए यह खेल अंग्रेजी उपनिवेशों में पहुंचा और स्थानीय लोगों में भी लोकप्रिय हुआ, जिनमें भारत और वेस्टइंडीज द्वीप समूह के तमाम देश भी थे. इन तमाम जगहों पर स्थानीय लोग रंगभेद और गुलामी के शिकार थे. लेकिन इन खेलों में एक तरह की बराबरी होती थी, क्योंकि अंग्रेज प्रशासकों को खेल ईमानदारी और नियमानुसार खेलने की सीख मिली होती थी. हम जानते हैं कि कैसे वेस्टइंडीज के काले लोगों ने क्रिकेट को अपनी पहचान और आजादी को स्थापित करने का माध्यम बनाया.

मेरी गहरी दिलचस्पी का खेल क्रिकेट है. लेकिन मेरी यह विनम्र राय है कि भारत में क्रिकेट की वह भूमिका नहीं थी, जो वेस्टइंडीज में थी. भारत में काफी हद तक यह भूमिका हॉकी की थी. हॉकी आम जनता का खेल था. अंग्रेजी राज के दौर में वह राष्ट्रीय भावना का वाहक था, जो उस दौर में हॉकी से जुड़ी तमाम कहानियों से पता चलता है.

चूंकि ऐसा था इसीलिए भारतीय शैली की हॉकी का एक अलग ही स्वरूप विकसित हुआ और भारत हॉकी में सबसे ऊंचे मुकाम पर पहुंचा. आज भी हॉकी की भारतीय शैली की अलग पहचान है.

इसके बरक्स क्रिकेट राजा महाराजा और उस वक्त के छोटे से मध्यमवर्ग का खेल था. और उसमें भारत कई दशकों तक अंतरराष्ट्रीय स्तर पर बड़ी ताकतों में गिनने लायक नहीं बना. शुरुआती दौर के जो बड़े क्रिकेटर अपने भारतीय अंदाज की वजह से पहचाने गए, वे राजा, नवाब आदि थे जैसे रणजीत सिंह या रणजी, उनके भतीजे दलीप सिंह  या नवाब इफ्तिखार अली खान.

ये लोग सांस्कृतिक रूप से अंग्रेज ज्यादा थे और भारत में क्रिकेट या भारत की आजादी की भावना से इनका कुछ लेना देना नहीं था. हालांकि उनके बाद के दौर में कर्नल सीके नायडू या विजय मर्चेंट जैसे महान खिलाड़ी भारतीयता की भावना से जुड़े थे और सचमुच बड़े इंसान भी थे.

धीरे-धीरे भारत में क्रिकेट की लोकप्रियता बढ़ती गई. इसके कई कारण हो सकते हैं. लेकिन शायद बडा कारण आजादी के बाद मध्यमवर्ग का विस्तार था. लंबे वक्त तक यह खेल भारत में भी जेंटलमैंस गेम बना रहा. लेकिन 1983 में विश्वकप में जीत और 1991 में उदारीकरण के बाद भारत में क्रिकेट का व्यावसायिक पक्ष चतुर लोगों की समझ में आया.

क्रिकेट में राष्ट्रवाद और सांप्रदायिकता के उभार में इस व्यवसायीकरण की बड़ी भूमिका है. इससे मैचों मे सनसनी बढ़ती है और पैसा बढ़ता है. अगर मैचों को युद्ध और महायुद्ध कह कर पेश किया जाए तो ज्यादा मुनाफा होता है. राजनीति के बाजार में भी राष्ट्रवाद और धार्मिकता बड़े सिक्के हैं. इस दौर में क्रिकेट देखने वालों की एक बहुत बड़ी जमात पैदा हुई जिसे खेल की परंपराओं और मान्यताओं की कोई समझ नहीं थी. जिसके लिए खेल एक हिंसक मुकाबला था, जिसमें सिर्फ जीत या हार मायने रखती थी.

खेल प्रशासन भी ज्यादा से ज्यादा संकीर्ण और मुनाफाखोर हो गया. जब शुरू में जगमोहन डालमिया ने भारतीय क्रिकेट की व्यावसायिक संभावनाओं को पहचाना तो उन्होंने भारतीय उपमहाद्वीप के देशों को साथ लेकर इंग्लैंड और ऑस्ट्रेलिया के वर्चस्व को चुनौती दी. यह एक बडा कदम था. लगभग डेढ़ दशक बाद एन श्रीनिवासन ने अपने पड़ोसी मुल्कों को छोड़ कर इंग्लैंड और ऑस्ट्रेलिया के साथ मिलकर अमीर और ताकतवर क्रिकेट संगठनों का गठजोड़ बना लिया.

हम बच्चे हुआ करते थे जब 1968 के ओलिंपिक में हॉकी में भारत सेमीफाइनल में हार गया था. तब मुझे याद है कि भोपाल में हमारे आसपास आमराय यह बनी थी कि भारत तो बाहर हो गया, पाकिस्तान ही स्वर्ण पदक जीत ले, ताकि एशियाई हॉकी का परचम लहराता रह सके. जबकि हमारे आसपास नए भोपाल में ज्यादातर हिंदू मध्यमवर्गीय लोग रहते थे. यह भावना सारे देश में मौजूद थी.

याद रहे तब भारत-पाकिस्तान का युद्ध हुए भी बमुश्किल तीन साल हुए थे. अगर हम आज पाकिस्तान से हारने पर आपा खो देते हैं इसका मतलब है कि अभी हमारे क्रिकेट की संस्कृति और पहचान कच्ची है.