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पुण्यतिथि विशेष: क्या आप जानते हैं भारतीय क्रिकेट के 'रिनेसां मैन' को

सरदेसाई वेस्टइंडीज में विजय मर्चेंट के शब्दों में भारतीय क्रिकेट के पुनर्जागरण के प्रतीक पुरुष साबित हुए

Rajendra Dhodapkar

जब हम लोगों ने सन 1969 -70 के दौरान थोड़ा-थोड़ा क्रिकेट समझना शुरू किया तब दिलीप सरदेसाई का जिक्र लगभग पूर्व टेस्ट क्रिकेट खिलाड़ी की तरह किया जाने लगा था. हालांकि वे तब 29 साल के ही थे. इसलिए जब कप्तान अजित वाडेकर के आग्रह पर उन्हें 1971 में वेस्टइंडीज जाने वाली टीम में चुना गया तो थोड़ा आश्चर्य हुआ. लेकिन सरदेसाई वेस्टइंडीज में विजय मर्चेंट के शब्दों में भारतीय क्रिकेट के पुनर्जागरण के प्रतीक पुरुष साबित हुए.

पहले टेस्ट मैच में जब भारत ने करीब पचहत्तर रन पर पांच विकेट गंवा दिए तो ऐसा लगा कि भारत के विदेशी दौरों की पुरानी कहानी दोहराई जाने वाली है. लेकिन सरदेसाई ने दोहरा शतक लगाया और भारत ने इतिहास में पहली बार वेस्टइंडीज के खिलाफ पहली पारी में बढ़त हासिल की. यहां से इतिहास बदलना शुरू हुआ.


सरदेसाई की बेशकीमती इनिंग्स 

सब जानते हैं कि भारत ने उस दौरे में पहली बार विदेशी धरती पर टेस्ट सीरीज जीती. इस दौरे पर सुनील गावस्कर ने टेस्ट क्रिकेट में भव्य पदार्पण किया और चार टेस्ट मैचों में डेढ़ सौ के औसत से साढ़े सात सौ रन बनाए. उस दौरे के दूसरे असाधारण बल्लेबाज दिलीप सरदेसाई थे जिन्होंने एक दोहरे शतक और दो शतकों के साथ लगभग अस्सी के औसत से साढ़े छह सौ रन बनाए और भारत को कई मौकों पर मुश्किलों से उबारा.

इसके बाद भारतीय टीम इंग्लैंड के दौरे पर गई जहां चंद्रशेखर की जादुई गेंदबाजी की बदौलत तीसरा टेस्ट मैच जीत कर के वहां भी सीरीज जीती. इस टेस्ट मैच की दोनों इनिंग्स में दिलीप सरदेसाई ने बेशकीमती रन बनाए थे.

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दिलीप सरदेसाई ने भारतीय क्रिकेट के इन अत्यंत महत्वपूर्ण मौकों पर अपना योगदान दिया. यहां से भारतीय क्रिकेट की दिशा बदल गई. इसके पहले भारत ने 115 टेस्ट मैच खेल थे और सिर्फ पंद्रह में जीत हासिल की थी. इसके बाद जीत का अनुपात बदलना शुरू हुआ.

स्पिन चौकड़ी के साथ मैच जिता सकने वाले गेंदबाज तो आ चुके थे लेकिन अब विश्वनाथ और गावस्कर जैसे युवा बल्लेबाज भी आ रहे थे जो मैच जितवा सकते थे. सरदेसाई ने इस बदलाव के दौर में बड़ी भूमिका अदा की.

सरदेसाई से गावस्कर ने सीखा था तेज गेंदबाजी का सामना करना 

हम देखते हैं कि सरदेसाई को वह सम्मान और जगह हासिल नहीं हुई जिसके वे हकदार थे. यह भी अजीब है कि उनके बारे में परस्पर विरोधी बातें सुनने में आती हैं. मसलन यह कहा जाता है कि वे तेज गेंदबाजी अच्छी तरह नहीं खेल पाते थे, लेकिन सुनील गावस्कर का कहना है कि वेस्टइंडीज में सरदेसाई को खेलते हुए देखकर उन्होंने सीखा कि तेज गेंदबाजी का सामना कैसे किया जाता है.

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जहां तक मेरी जानकारी है, उनके वक्त तक भारत में विजय मर्चेंट और विजय हजारे के बाद सर्वश्रेष्ठ बल्लेबाजी औसत सरदेसाई का ही है, फिर भी अपने बारह वर्ष के अंतरराष्ट्रीय करियर में उन्होंने सिर्फ तीस टेस्ट मैच खेले. एक लेखक ने उनके बारे में लिखा कि पता नहीं वे बहुत प्रतिभाशाली खिलाड़ी थे, जिन्होंने अपनी प्रतिभा के साथ न्याय नहीं किया या वे ऐसे खिलाड़ी थे, जिन्होंने मेहनत के जरिए अपनी क्षमता से बेहतर प्रदर्शन किया.

कहा जाता है कि वे रक्षात्मक बल्लेबाज थे जो तेज रन नहीं बना पाते थे. लेकिन उन्होंने अपना एक टेस्ट शतक दो घंटे से भी कम वक्त बनाया था. लोगों का कहना था कि वे बड़े खुशमिजाज और मजाकपसंद व्यक्ति थे लेकिन यह भी कहा जाता है उनके मुंहफट स्वभाव और साफगोई की वजह से उनकी कम लोगों से ही पटी.

दिलीप सरदेसाई की दुर्लभ तस्वीर (राजदीप सरदेसाई के ट्विटर से साभार)

जबरदस्ती बनाया गया था ओपनर 

साफगोई उनमें सचमुच थी और वे अक्सर लोगों की आलोचना करने से कतराते नहीं थे. उन्हें भी शायद यह मलाल था कि उन्हें उनकी सही जगह नहीं मिली. मसलन उनका कहना था कि वे मध्यक्रम के बल्लेबाज थे और उन्हें जबरदस्ती ठेल कर ओपनर बनाया गया. एक इंटरव्यू में उन्होंने कहा कि चूंकि उनके दौर के बड़े खिलाड़ी खुद ओपनिंग करने से बचना चाहते थे इसलिए जूनियर खिलाड़ी होने के नाते उन्हें बलि का बकरा बनाया गया.

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इंडीज के दौरे पर जब नरी कांट्रेक्टर के सिर पर चार्ली ग्रिफिथ की गेंद लगी तब सरदेसाई दूसरे छोर पर थे और अगले टेस्ट मैच में उन्होंने ओपनिंग की.उनका कहना था कि अगर वे सिर्फ मध्यक्रम में खेलते तो उनका औसत बहुत बेहतर होता.

यह बात सही भी लगती है, ओपनर की हैसियत से उनका बल्लेबाजी औसत तीस के कुछ ऊपर है और मध्यक्रम में खेलते हुए उनका औसत चालीस से ज्यादा है. किसी भी बल्लेबाज की श्रेष्ठता की बहुत बड़ी कसौटी देश और विदेश में उसके प्रदर्शन का फर्क है. सरदेसाई इस कसौटी पर भी खरे उतरते हैं. देश और विदेश में उनका बल्लेबाजी औसत बिलकुल एक सा है.

हर स्तर पर जगह बनाने के लिए किया संघर्ष

मुख्य चयनकर्ता विजय मर्चेंट, वेस्टइंडीज के दौरे के लिए उन्हें चुनने के खिलाफ थे और सरदेसाई ने उनके सामने ही उनसे कह दिया कि अगर वे उन्हें चुनना नहीं चाहते तो सीधे-सीधे ऐसा कहें, बहाने न बनाएं.

इसके बावजूद कप्तान वाडेकर के आग्रह पर मर्चेंट ने उन्हें टीम में चुन लिया और जब दौरे पर वे कामयाब हुए तो मर्चेंट ने उनकी प्रशंसा में वे शब्द कहे जिनका जिक्र शुरू में किया गया है. शायद उन्हें हर स्तर पर जगह बनाने के लिए संघर्ष करना पड़ा जिसकी वजह से उन्हें यह लगने लगा हो कि उनका हिमायती कोई नहीं है और उनमें कड़वाहट आ गई हो.

फिर भी जिस टीम के लिए वे खेले उसके लिए वे भाग्यशाली साबित हुए. भारत के दो लगातार विदेशी दौरों में पहली बार सीरीज की जीत में उनकी भूमिका महत्वपूर्ण थी ही, यह भी काबिले जिक्र है कि उन्होंने मुंबई के लिए लिए जितने भी मैच खेले, उनमें से एक में भी मुंबई नहीं हारी. वे मुंबई के लिए दस रणजी ट्रॉफी फाइनलों में खेले और दसों में मुंबई को जीत हासिल हुई.

(यह लेख दो जुलाई 2017 को प्रकाशित किया गया था)