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सॉरी कोहली साहब, आज आपका कद विराट नहीं रहा

क्या कुंबले का अनुशासन प्रेम और साफगोई पसंद नहीं आई विराट को

Shailesh Chaturvedi

इसे क्या कहें? क्रिकेट के लिए सबसे बुरे दिनों में एक? पावर के लिए लड़ाई? जो भी नाम दीजिए, ये दिन वाकई भारतीय क्रिकेट में नहीं आना चाहिए था. एक इस देश का सबसे बड़ा मैच विनर यानी अनिल कुंबले. दूसरा, दुनिया के बेहतरीन बल्लेबाजों में एक यानी विराट कोहली. कुबले, जिन्हें सौरव गांगुली अपनी सेना का चाणक्य मानते थे. रणनीति कम पड़ने पर सबसे पहला आदमी, जिसकी तरफ नजर जाती थी, वो कुंबले हुआ करते थे. दूसरी तरफ विराट, जो जिस भी टीम में हों, वो जीत के लिए आश्वस्त हो सकती है. क्या ये दोनों साथ काम नहीं कर सकते थे?

जवाब है, नहीं. अगर कर सकते, तो आज अनिल कुंबले को इस्तीफा देकर नहीं जाना पड़ता. वो भी इसलिए क्योंकि कप्तान को उनके स्टाइल पर कुछ ‘रिजर्वेशन’ थे. क्या रिजर्वेशन हो सकते हैं आखिर? क्या ये कि कुंबले अनुशासन के लिए किसी भी सीमा तक जा सकते हैं? अगर ऐसा है, तो सवाल उठता है कि अनुशासित होना गलत है क्या? क्या इसका मतलब ये मानें कि इस टीम के क्रिकेटर अनुशासित नहीं?


क्यों नाखुश थे विराट सहित टीम के कई खिलाड़ी

आखिर यही बातें तो आ रही थीं कि करीब दस खिलाड़ी कुंबले से नाखुश हैं! नहीं पता कि इसमें कितनी सच्चाई है. लेकिन ये तो सच सामने आ ही गया कि कप्तान कम से कम खुश नहीं थे. अगर कुंबले के बयान का एक-एक शब्द सही है, तो मतलब यही निकलता है कि विराट उनको पसंद नहीं करते.

कुंबले को जानने वाला एक-एक शख्स यह बता सकता है कि बेंगलुरु के इस खिलाड़ी को साफगोई पसंद है. अनुशासन पसंद है. सच बोलना पसंद है. मैदान पर हर समय संघर्ष करना पसंद है. खुद को नंबर वन मानना पसंद है. क्या ये ही सब बातें हैं, तो विराट को अखर गईं.

विराट को भी तो यही सब पसंद रहा है ना? वैसे भी, जब कहीं कोच या अधिकारी के साथ खिलाड़ी का विवाद सामने आता है, मन कहीं खिलाड़ी के ही साथ होता है. आखिर खेल पत्रकारों का जीवन खिलाड़ी बनने की लालसा से ही तो शुरू होता है.

मन तब भी खिलाड़ी के साथ था, जब वीरेंद्र सहवाग ने शशांक मनोहर को भरी मीटिंग में कह दिया था कि आपके लिए पैसा तो खिलाड़ी ही कमाते हैं. उसके बाद अपने बयान का खामियाजा भुगता. मन तब भी खिलाड़ियों के साथ था, जब ग्रेग चैपल तमाम सीनियर्स को हटाकर युवा क्रिकेट टीम बनाना चाहते थे. मन तब भी खिलाड़ी के ही साथ था, जब एक महान तीरंदाज को राजनीतिज्ञ के पैरों में गिरा पाया कि उसे एक अदद नौकरी मिल जाए. मन तब भी खिलाड़ी के ही साथ था, जब टीम में रहने की मजबूरी एक महान खिलाड़ी को किसी अधिकारी के पांव छूने पर मजबूर करती रही.

मन तब भी खिलाड़ी के साथ था, जब एक सुबह अपने पिता का अंतिम संस्कार करके एक खिलाड़ी रणजी ट्रॉफी खेलने आया. वो खिलाड़ी विराट कोहली ही थे.  मन तब भी विराट के ही साथ था, जब यह पता चलता था कि पश्चिमी दिल्ली के इस खिलाड़ी ने फिटनेस के लिए सारे पसंदीदा खाने छोड़ दिए. लेकिन आज मन खिलाड़ी के साथ नहीं है. आज भावनाएं और मन कोच की तरफ जा रहा है.

कुंबले ने खिलाड़ी के तौर पर हमेशा अपना सौ फीसदी दिया

इसकी अपनी वजह हैं. ये वही कोच है, जिसने खिलाड़ी के तौर पर हर वक्त अपना शत-प्रतिशत दिया. ये वही कोच है, जिसने खिलाड़ी के तौर पर जबड़ा टूटने के बावजूद गेंदबाजी की और टीम को जीत की उम्मीद बंधाई. ये वही कोच है, जिसने सचिन तेंदुलकर और विराट कोहली से ज्यादा मैच भारत को जिताए हैं. ये वही कोच है, जिसके लिए सौरव गांगुली गर्व से कहते रहे हैं, ‘मुझे जब भी विकेट की जरूरत होती थी, मैं जंबो की तरफ देखता था. उसने चाहे 40 ओवर लगातार डाल लिए हों, लेकिन फिर भी वो हमेशा बॉलिंग के लिए तैयार रहता था.’

आज वो कोच अपने बयान में लिख रहा है कि कप्तान को उनके स्टाइल से समस्या थी. वो कौन सा स्टाइल है, जिससे कप्तान या कुछ खिलाड़ियों को समस्या है? क्या क्रिकेटर्स को सुपर स्टार नहीं मानना ही वो स्टाइल है? क्या ‘जरूरत से ज्यादा’ मेहनत कराना ही वो स्टाइल है? क्या प्लेइंग इलेवन या टीम से जुड़े फैसलों पर कप्तान की बात मानने के बजाय अपनी बात पूरी शिद्दत से रखना ही वो स्टाइल है, जिस पर आपत्ति थी? अगर यही है, तो विराट कोहली साहब, उनके नहीं, आपके स्टाइल में कुछ कमी है. आप दुनिया के सबसे बड़े बल्लेबाज हो सकते हैं. उसके बावजूद आज आपका कद वैसा नहीं रह गया. आज आप कोहली हैं, विराट नहीं.