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जन्मदिन विशेष: क्यों पटौदी की याद दिलाते हैं विराट कोहली

पटौदी की तरह विराट भी 'गेंदबाजों का कप्तान' बनकर उभर रहे हैं

Rajendra Dhodapkar

इंग्लैंड के खिलाफ टेस्ट सीरीज जीतने के बाद विराट कोहली और उनकी टीम की जय जयकार होना स्वाभाविक ही है. पिछले साल के शुरुआत में ऑस्ट्रेलिया में सीरीज हारने के बाद से भारतीय टीम लगातार जीत रही है और अच्छे अंतर से जीत रही है.

टेस्ट क्रिकेट में जीतने के लिए जो एक प्राथमिक शर्त है और जिसे अक्सर भारत में भुला दिया जाता है. शर्त यह है कि इसके लिए सामने वाली टीम के बीस विकेट निकालने होते हैं. इसलिए इक्का-दुक्का टेस्ट तो एकाध गेंदबाज के कमाल से जीता जा सकता है. लेकिन लगातार जीतने के लिए बहुत प्रभावशाली गेंदबाजों की पूरी टुकड़ी होना चाहिए.


क्या इसके पहले किसी को याद है कि भारतीय तेज़ गेंदबाजों की किसी जोड़ी ने लगातार 140-145 किलोमीटर की रफ़्तार से सामने वाली टीम को आतंकित किया था. जैसे पिछली सीरीज में उमेश यादव और मोहम्मद शमी की जोड़ी ने किया?  भारतीय स्पिनरों ने जो कहर पिछले दिनों ढाया है, उसके बारे में अलग से कहने की जरूरत नहीं है.

भारतीय गेंदबाज़ों का ऐसा आतंक इसके पहले कब देखा गया था? महान विवियन रिचर्ड्स का एक इंटरव्यू कुछ साल पहले आया था. उसमें रिचर्ड्स ने एक दिलचस्प बात कही थी. उनसे सवाल यह पूछा गया था कि उनके दौर के सबसे डरावने गेंदबाज़ कौन थे.

रिचर्ड्स ने लिली, थॉम्पसन वगैरा का और अपनी टीम के महान आतंककारी गेंदबाज़ों की चौकड़ियों का ज़िक्र तो किया ही. फिर अपनी ओर से जोड़ा कि लोग समझते नहीं हैं, लेकिन प्रसन्ना, बेदी, वेंकटराघवन और चंद्रशेखर की महान स्पिन चौकड़ी भी उतनी ही डरावनी होती थी.

किसी टीम में प्रतिभाशाली, घातक गेंदबाज़ों का इकट्ठा होना कई संयोगों पर निर्भर रहता है. लेकिन उसमें एक बड़ी भूमिका कप्तान की होती है. बल्लेबाजों के मुकाबले गेंदबाजों को कप्तान के प्रोत्साहन की और सहारे की ज्यादा जरूरत रहती है. नए गेंदबाजों को निखारने में कप्तान और आजकल कोच की बड़ी भूमिका होती है. क्रिकेट वैसे भी बल्लेबाजी के पक्ष में ज्यादा झुका हुआ खेल है. ऐसे में कप्तान का सहयोग न मिलना गेंदबाज को प्रभावहीन बना सकता है.

गेंदबाजों के कप्तान बनकर उभर रहे हैं विराट

अगर इन दिनों भारतीय गेंदबाज़ लगातार बीस विकेट लेने में कामयाब हो रहे हैं तो इसका काफी श्रेय विराट कोहली, अनिल कुंबले और इसके पहले रवि शास्त्री को जाता है. इनके सहयोग की वजह से गेंदबाज़ लगातार आक्रामक और घातक गेंदबाजी कर पा रहे हैं. इन में से ज़्यादातर गेंदबाज नए नहीं हैं. लेकिन यह दिखता है कि पिछले दिनों उनकी गेंदबाजी पर धार चढ़ाने के लिए ख़ास काम हुआ है. बड़े अरसे बाद विराट ऐसे कप्तान हुए हैं, जो गेंदबाजों के कप्तान हैं. यह गेंदबाजों के प्रदर्शन से जाहिर होता है.

नवाब पटौदी की याद दिलाते हैं विराट

अपने आक्रामक और गेंदबाज़ों को प्रोत्साहित करने वाले अंदाज़ से विराट, नवाब पटौदी की याद दिलाते हैं. पटौदी के दौर में भारत की खतरनाक स्पिन चौकड़ी विकसित हुई. इक्का दुक्का अपवादों को छोड़ दें तो पटौदी को भारत का पहला आक्रामक कप्तान माना जा सकता है. पटौदी का आक्रामक होना इसलिए भी विशेष है, क्योंकि उनके पास औसत किस्म के मध्यमगति गेंदबाज़ भी नहीं थे. तेज़ गेंदबाज की तो बात ही छोड़ दीजिए.

उनके दौर में स्पिनर एमएल जयसिम्हा ने 19 टेस्ट मैचों के कामचलाऊ ओपनिंग गेंदबाजी की और एक भी विकेट नहीं लिया, जो एक किस्म का रिकॉर्ड है. जयसिम्हा को सारे विकेट स्पिन से मिले. उस दौर में विकेटकीपर बुधी कुंदरन ने भी एक टेस्ट में शुरुआती गेंदबाजी की थी. अगर पटौदी का रिकॉर्ड बहुत अच्छा नहीं है, तो इसकी वजह यह भी है. लेकिन इसके बावजूद उन्होंने अपना आक्रामक अंदाज नहीं छोड़ा. इस वजह से वे अपने गेंदबाजों के प्रिय कप्तान रहे.

गेंदबाज आक्रामक कप्तान को पसंद करते हैं, क्योंकि वह उन्हें विकेट लेने के लिए प्रोत्साहित करता है. वह तेज गेंदबाज को अपनी गति कम करने या स्पिनर को रन रोकने के लिए नकारात्मक गेंदबाजी करने के लिए नहीं कहता. न एकाध चौका पड़ जाने पर नाक-भौं सिकोड़ता है. भारत में सचमुच ऐसे आक्रामक कप्तान कम हुए हैं. याद कीजिए, कितने गेंदबाज़ों ने पिछले वर्षों में तेज गेंदबाज़ की तरह शुरुआत की और एकाध साल बाद मध्यमगति, निरीह गेंदबाज़ी शुरू कर दी. या स्पिन गेंदबाज़ों ने फ्लाइट घटा कर सपाट गेंदबाज़ी शुरू की. मौजूदा तेज़ गेंदबाजों की यह शायद पहली पीढ़ी है, जिसे तेज गेंद फेंकने के लिए प्रोत्साहित किया जा रहा है. पिछले कई दशकों में अनिल कुंबले को छोड़ दें तो ये स्पिनर हैं, जो वक्त के साथ बेहतर हो रहे हैं.

पटौदी ने जिस गेंदबाज़ी को प्रोत्साहित किया, उसका यश बाद में अजित वाडेकर को भी मिला. लेकिन भारतीय क्रिकेट में मुंबई घराने का प्रभुत्व रहा है, जो बल्लेबाजी पर ही निर्भर है और जिसकी शैली मुख्यतः रक्षात्मक है. पटौदी इस घराने के नहीं थे, खैर मुंबई की परंपरा पर फिर कभी विस्तार से.

विराट और पटौदी में क्या है फर्क

विराट और पटौदी के बीच एक बड़ा फर्क यह है कि विराट 21वीं शताब्दी के पेशेवर क्रिकेटर हैं. पटौदी का अंदाज कुछ नवाबी था. उनके लिए क्रिकेट शतरंज की तरह दिमागी खेल ज्यादा था. हालांकि वे खुद बहुत फिट, चुस्त फील्डर थे. उनके मित्र जयसिम्हा और उनके प्रिय गेंदबाज प्रसन्ना, बेदी भी ऐसे ही दिमागी, कलात्मक खेल में यकीन करते थे.

प्रसन्ना के बारे में सुनील गावस्कर ने जैसा लिखा है, उससे यह बात समझी जा सकती है. गावस्कर लिखते हैं कि प्रसन्ना और बेदी मिलकर किसी बल्लेबाज़ को आउट करने के लिए रणनीति बनाते थे. जब कोई बल्लेबाज़ आउट होता था तो ये दोनों दौड़ कर एक-दूसरे के पास जाते थे और मिलकर हंसते थे कि कैसे बुद्धू बनाया.

गावस्कर आगे लिखते हैं कि प्रसन्ना का मानना था कि घुमावदार पिच पर बल्लेबाज को लेग साइड में कैच करवाने में कोई मजा नहीं है. ऐसा तो कोई औसत गेंदबाज भी कर सकता है. असली कला तो ऐसे में बल्लेबाज को फ्लाइट से चकमा देकर कैच एंड बोल्ड करने या मिड ऑफ, मिड ऑन पर कैच उठावाने में है. पटौदी अपने इन कलाकारों को अपनी कला का प्रदर्शन करने का पूरा मौका देते थे. इसलिए वे अपने गेंदबाजों के प्रिय कप्तान थे.

पटौदी ने अपने आक्रामक अंदाज से विदेशी टीमों के खिलाफ भारतीयों की हीनताग्रंथि को हटाने में मदद की. भारत ने उनके नेतृत्व में ही विदेशी धरती पर पहला टेस्ट जीता और अपने वक्त की बड़ी टीमों को कड़ी टक्कर दी. वे अपने दौर के विराट कप्तान थे.

(यह लेख 25 दिसंबर 2016 तो प्रकाशित किया जा चुका है)