view all

जन्मदिन विशेष: उस गावस्कर को जानिए, जो बीसीसीआई नहीं, भारतीय क्रिकेट का प्रवक्ता था

सुनील गावस्कर ने भारतीय क्रिकेट को दुनिया में पहचान दिलाने का काम किया

Rajendra Dhodapkar

बहुत पुरानी बात नहीं है. नेता या क्रिकेट खिलाड़ियों का प्रेस से सचमुच का सामना होता था जिसमें सवाल... और वाकई मुश्किल सवाल पूछे जाते थे. आज की तरह नहीं कि आए, अपना वक्तव्य दिया और चाहा तो एक दो आसान सवालों के जवाब दे दिए. मुझे याद पड़ता है कि सुनील गावस्कर किसी विदेशी दौरे से जीत कर लौटे थे. अगर सही याद है, तो शायद ऑस्ट्रेलिया में बेन्सन एंड हेजेज कप जीत कर लौटे थे.

बतौर कप्तान हवाई अड्डे पर ही पत्रकारों से सवालों का जवाब दे रहे थे. वे भीड़ से घिरे एक कुर्सी पर बैठे थे और चारों तरफ खड़े पत्रकार उन पर सवाल दाग रहे थे. एक पत्रकार ने शायद कुछ ऐसा सवाल पूछा कि अमुक मैच में आपने उस गेंदबाज से उस मौके पर गेंदबाजी क्यों नही करवाई. गावस्कर ने ऊपर देखा और बोले - शायद मैं ज्यादा विवादास्पद होना चाहता था.


इस बात से यह तो जाहिर हुआ कि गावस्कर का टाइमिंग और शॉट सिलेक्शन मैदान के बाहर भी और किसी भी परिस्थिति में एकदम अचूक होता था. यह भी सही है कि वे हमेशा विवादों में घिरे रहते थे और उनसे बचते या डरते नहीं थे. वे झगड़ा मोल लेने से कभी नहीं डरे और वही करते या कहते रहे जो उन्हें ठीक लगता था.

बीसीसीआई से लगातार किया संघर्ष

अपने खेल करियर में उनका लगातार संघर्ष बीसीसीआई से चलता रहा. हम जानते हैं कि बीसीसीआई चाहती है कि खिलाड़ी स्कूली बच्चों की तरह आज्ञाकारी और अनुशासित रहें और वह उनसे व्यवहार भी स्कूली बच्चों जैसा ही करती है. ऐसे में बीसीसीआई से लड़ना कितना जोखिम भरा है यह बताने  की जरूरत नहीं है. ऐसे में टीम में लगातार बने रहने का एक ही तरीका था कि अपने प्रदर्शन से टीम के लिए खुद को अनिवार्य बनाए रखना. गावस्कर ने अपने लिए यह चुनौती स्वीकार की और उस पर खरे उतरे.

यह गावस्कर का तरीका था. अपने लिए कोई कठिन चुनौती या कसौटी चुन कर उस पर खरा उतरना. प्रभाष जोशी ने गावस्कर के रिटायर होने पर लिखे अपने लेख ‘शिखर पर संन्यास’ में इस बात को रेखांकित किया है. लॉर्ड्स की द्विशताब्दी के अवसर पर हुए टेस्ट मैच में दूसरे दिन के अंत में गावस्कर अस्सी रन पर खेल रहे थे. उस शाम को उन्होंने प्रथम श्रेणी क्रिकेट से अपना रिटायरमेंट घोषित किया, और अगले दिन अपना शतक पूरा किया. वे चाहते तो एक दिन बाद रिटायरमेंट घोषित कर सकते थे. लेकिन यह गावस्कर का तरीका नहीं था.

गावस्कर का डिफेंस दरअसल टीम इंडिया के लिए जरूरी था

सुनील गावस्कर की बल्लेबाजी भी उनके इसी अंदाज को रेखांकित करती है. गावस्कर को रक्षात्मक बल्लेबाज कहा जाता है और काफी हद तक यह सही भी है. लेकिन अगर हम ध्यान से देखें तो इस रक्षात्मकता के पीछे साहस, जुझारूपन और जीवन है.

गावस्कर ने जब अपना करियर शुरू किया तो भारत को कमजोर टीम माना जाता था जिसे हराना आसान था. गावस्कर ने भारत को एक ऐसी टीम बनाया जो भले ही विश्व विजेता न हो लेकिन जो आसानी से हारती  नहीं थी. भारतीय टीम को जूझना गावस्कर ने सिखाया.

इसके लिए गावस्कर ने अपने तमाम आक्रामक शॉट तरकश में रख दिए. लेकिन रक्षात्मक खेल को भी उन्होंने नई ऊंचाई पर पहुंचाया. आक्रामक खेल को ही आम तौर पर आकर्षक माना जाता है. लेकिन गावस्कर ने रक्षात्मक खेल, यहां तक कि गेंद छोड़ने तक को कलात्मक बना दिया.

गावस्कर के बाद कई खिलाड़ी हुए जिनके रिकॉर्ड उनसे बेहतर हैं. लेकिन सिर्फ क्रिकेट ही नहीं, एक खेल व्यक्तित्व की तरह गावस्कर की ऊंचाई कोई छू नहीं सकता. उन्होंने क्रिकेट खिलाड़ियों को बेहतर सुविधाएं और सम्मान दिलवाया. उन्होंने नए खिलाड़ियों के सामने खेल की मर्यादाओं और परंपराओं का सम्मान करने की मिसाल कायम की.

गावस्कर के बारे में कहा जाता था कि किसी भी पूर्व खिलाड़ी के बेनेफिट मैच में खेलने वे जरूर जाते थे. यह भी हुआ कि किसी विदेशी दौरे से लौटते ही उसी दिन वे लंबी रेलयात्रा करके किसी पूर्व खिलाड़ी के सम्मान में बेनेफिट मैच खेलने पहुँच गए.

गावस्कर ने दी इंग्लैंड और ऑस्ट्रेलिया के वर्चस्व को चुनौती

एक बड़ा साहस का काम उन्होंने यह किया कि क्रिकेट में इंग्लैंड और ऑस्ट्रेलिया के वर्चस्व को चुनौती दी. क्रिकेट में इस किस्म के पूर्वाग्रह व्याप्त थे कि इंग्लैंड और ऑस्ट्रेलिया के खिलाड़ी और अंपायर ईमानदार होते हैं और दूसरे देशों के लोग बेईमानी करते हैं. इसके पीछे नस्ली वर्चस्व की भावना भी काम करती थी. खासकर एशियाई देशों का क्रिकेट काफी हद तक हीन भावना से ग्रस्त था.

गावस्कर ने बार-बार लिखकर और बोलकर ऐसी धारणाओं को चुनौती दी. वे एशियाई देशों के क्रिकेट के प्रवक्ता और प्रतिनिधि बन कर खड़े हुए. इंग्लैंड और ऑस्ट्रेलिया जैसे देशों को उनके पाखंड, दुराग्रह और दोहरे मापदंडों की हकीकत दिखाई. हमारी पीढ़ी ने यह बदलाव और संघर्ष होते हुए देखा है.

मुंबई दंगों के दौरान बचाई थी एक इंसान की जान

हमने वह दौर भी देखा है जब भारत के खिलाड़ियों को इंग्लैंड दौरे पर घटिया होटल में ठहराया जाता था. दूसरी ओर अंग्रेज खिलाड़ी भारत के दौरे पर आना अपनी शान के खिलाफ समझते थे. गावस्कर वे खिलाड़ी थे जो बदलाव के दौर में देश ही नहीं बल्कि भारतीय उपमहाद्वीप के क्रिकेट की रीढ़ की हड्डी थे. यही साहस था कि  गावस्कर ने  एक बार मुंबई में हो रहे दंगे में दंगाइयों का सामना करके एक व्यक्ति की जान बचाई थी.

इसीलिए भारतीय क्रिकेट में गावस्कर का कद बहुत बड़ा है. उनके इसी कद के चलते उनसे उम्मीदें भी ज्यादा होती हैं और कभी कभी उम्मीदें टूटती भी हैं. जैसे आईपीएल के बाद वे जैसे बीसीसीआई के प्रवक्ता बन गए, तो थोड़ा बुरा लगा. लेकिन फिर लगा कि किसी ने जिंदगी भर विद्रोही रहने का ठेका अकेले ही तो नहीं ले रखा है. फिर आईपीएल के बाद के दौर में दांव इतने बड़े थे कि किसी के लिए निकल पाना मुश्किल था.

1971 में अपनी शानदार शुरुआत के तुरंत बाद गावस्कर गैरी सोबर्स के नेतृत्व में शेष विश्व की टीम के साथ ऑस्ट्रेलिया गए थे. वहां वे लगातार नाकाम रहे. जब सोबर्स से पूछा गया कि नाकामी के बावजूद वे गावस्कर को टीम में क्यों लिए हुए हैं तो सोबर्स ने जवाब दिया कि अगर चीन की दीवार  में दरार पड़ जाए तो उसे ढहा नहीं दिया जाता. हम कह सकते हैं कि इस दीवार ने हमारे क्रिकेट को बड़ी मजबूती दी.

गावस्कर के लिए वेस्टइंडीज के कैलिप्सो गायक लॉर्ड रिलेटर ने यह खास गाना बनाया था.