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नहीं रहे अजित वाडेकर, जिसकी कप्तानी ने विदेश में दिलाई थी जीत

वेस्टइंडीज का वो दौरा जिसमें सुनील गावस्कर की तरह चमक नही सके कई खिलाड़ी

Rajendra Dhodapkar

अजित वाडेकर के नेतृत्व में 1971 में वेस्टइंडीज का दौरा ऐतिहासिक है क्योंकि पहली बार भारतीय टीम ने विदेश में कोई सीरीज जीती थी. यह सीरीज सुनील गावस्कर के करियर का शानदार आगाज करने वाली सीरीज की तरह भी याद की जाती है.

गावस्कर ने पहली ही सीरीज में सारी दुनिया को चौंका दिया था और यह भी सौभाग्य है कि पहली सीरीज से जो उम्मीदें बंधी थीं, वे बाद में फलीभूत भी हुईं. दिलीप सरदेसाई की शानदार बल्लेबाजी भी इस दौरे की एक उपलब्धि थी. ये बातें सभी क्रिकेट प्रेमियों को याद होंगी.


यहां हम इस ऐतिहासिक दौरे के उन खिलाड़ियों को याद करना चाहते हैं जो बहुत जल्दी भुला दिए गए, यह इसलिए भी जरूरी है कि खेल का इतिहास सिर्फ कामयाब खिलाड़ियों के गौरवान्वित से नहीं बनता. वह उन भुला दिए गए खिलाड़ियों के बिना अधूरा होता है, जिनकी तादाद ज्यादा बड़ी होती है.

 दौरे पर मुंबई और हैदराबाद के पांच खिलाड़ी

1971 के दौरे पर तत्कालीन बंबई और अबकी मुंबई के पांच खिलाड़ी थे, यह बात आश्चर्य की नहीं है क्योंकि उस दौर में भारतीय क्रिकेट पर मुंबई का वर्चस्व था. उस वक्त चयनकर्ताओं ने एक नियम बनाया था कि जो खिलाड़ी भारत में घरेलू क्रिकेट नहीं खेलेगा वह टीम में नहीं चुना जाएगा.

फारुख इंजीनियर चूंकि लंकाशायर से पेशेवर क्रिकेट खेलते थे इसलिए वे रणजी ट्रॉफी नहीं खेलते थे. इस वजह से उन्हें टीम में नहीं चुना गया, वरना मुंबई के छह खिलाड़ी होते. इंजीनियर की जगह हैदराबाद के पोचैया कृष्णमूर्ति को चुना गया. यह विशेष बात थी कि उस दौरे पर कृष्णमूर्ति समेत हैदराबाद के भी पांच खिलाड़ी थे.

एम एल जयसिम्हा, केनिया जयंतीलाल, सैयद आबिद अली,  तेज गेंदबाज देवराज गोविन्दराज और कृष्णमूर्ति. जयसिम्हा और आबिद अली तो वरिष्ठ खिलाड़ी थे लेकिन बाकी तीनों पहली बार भारतीय टीम में चुने गए थे. दूसरे विकेटकीपर रूसी जीजीभॉय बंगाल के पारसी खिलाड़ी थे, वे भी पहली बार भारतीय टीम में चुने गए थे. ऐसा कम ही होता है कि किसी विदेशी दौरे की टीम में पांच एकदम नए चेहरे हों.

सुनील गावस्कर स्कूल और विश्वविद्यालय स्तरीय क्रिकेट में इतना नाम कमा चुके थे कि वे रणजी ट्रॉफी खेलने के पहले ही भारतीय टीम में चुन लिए गए थे. उस जमाने में विश्वविद्यालय  क्रिकेट बहुत बड़ी बात होती थी और अमूमन भविष्य के सितारे वहीं से पहचाने जाते थे.

अब तो क्रिकेटर स्कूल के आगे पढ़ते ही नहीं हैं, इसलिए विश्वविद्यालय  क्रिकेट का कोई महत्व नहीं बचा है. उस वक्त अक्सर बाहर से दौरे पर आई टीमों का एकाध मैच संयुक्त विश्वविद्यालय की टीम से होता था और उस टीम से एकाध साल में एक दो लोग भारतीय टीम में आ जाते थे. बहरहाल, अपनी नाखून चबाने की आदत की वजह से गावस्कर की उंगली में घाव हो गया था और वे पहला टेस्ट नहीं खेल सके. के जयंतीलाल को इस वजह से पहले टेस्ट में मौका मिल गया.

जयंतीलाल ने पांच रन बनाए थे कि शिलिंगफोर्ड की एक तेज गेंद पर वे बल्ला हटाते हटाते बाहरी किनारा दे बैठे. गैरी सोबर्स ने स्लिप में एक ऐसा शानदार कैच पकड़ा कि पैवेलियन में बैठे सुनील गावस्कर ने कहा कि अब हम रोहन कन्हाई का लेट कर मारा हुआ स्वीप और देख लें तो हमारा वेस्टइंडीज आना सार्थक हो जाए.

खैर गावस्कर के लिए तो दौरा उनकी कल्पना से कई गुना ज्यादा सार्थक हो गया लेकिन सोबर्स के कैच ने जयंतीलाल के टेस्ट करियर पर पूर्णविराम लगा दिया. भारत ने पहली बार उस टेस्ट में वेस्टइंडीज तो फॉलोऑन दिया, और दूसरी बार भारत की बल्लेबाजी का मौका ही नहीं आया. अगले टेस्ट में उनकी जगह गावस्कर आ गए और जयंतीलाल को दूसरा मौका नहीं मिला.

जयंतीलाल ने उस दौरे के प्रथम श्रेणी मैचों में बहुत अच्छा प्रदर्शन किया, और हम कह सकते हैं कि वे दूसरे मौके के हकदार थे लेकिन भारत में शुरुआती बल्लेबाजों की किस्मत भी शुरुआती गेंदबाजों से बेहतर नहीं थी, जिन्हें चयनकर्ता टीम से अंदर बाहर करते रहते थे. जयंतीलाल उसके बाद इंग्लैंड के दौरे पर भी गए, वहां भी उन्हें टेस्ट खेलने का मौका नहीं मिला. उस दौरे पर प्रथम श्रेणी मैचों में भी उनका प्रदर्शन अच्छा नहीं रहा. उसके बाद चयनकर्ता उन्हें भूल गए हालांकि वे घरेलू क्रिकेट में रन बनाते रहे.

इंजीनियर ने ली कृष्णमूर्ति की जगह

कृष्णमूर्ति पांचो टेस्ट मैच खेले. वे बेहतरीन विकेटकीपर थे, विकेट के पीछे उनका प्रदर्शन बढ़िया रहा हालांकि बल्लेबाजी में कुछ नहीं कर सके. अगले इंग्लैंड दौरे पर इंजीनियर टीम में थे इसलिए कृष्णमूर्ति दूसरे विकेटकीपर थे . उन्हे एक भी टेस्ट खेलने का मौका नहीं मिला.

जाहिर है जब तक इंजीनियर थे उनकी टीम में कोई जगह नहीं थी. उनके साथी बताते हैं कि धीरे धीरे वे निराश होते गए और घरेलू क्रिकेट में भी उनका प्रदर्शन गिरता गया. तब तक इंजीनियर के वारिस के रूप में सैयद किरमानी आ चुके थे. कृष्णमूर्ति के नाम तो पांच टेस्ट मैच दर्ज हो गए लेकिन वेस्टइंडीज दौरे के दूसरे विकेटकीपर  रूसी जीजीभॉय तो एक टेस्ट भी नहीं खेल पाए और उस दौरे के बाद चयनकर्ताओं के राडार से गायब हो गए.

देवराज गोविंदराज भी वेस्टइंडीज और इंग्लैंड के दोनों ऐतिहासिक दौरों पर भारतीय टीम के सदस्य होने के बावजूद एक भी टेस्ट मैच नहीं खेल पाए. गोविंदराज का कसूर यह था कि वे एक ऐसे दौर में तेज गेंदबाज थे जब भारतीय क्रिकेट में यह माना ही नहीं जाता था कि भारत में कोई तेज गेंदबाज हो सकता है. तब भारत के लिए शुरुआती गेंदबाजी के लिए ऐसे खिलाड़ियों को चुना जाता था जो भले ही गेंदबाज कुछ कमतर हों लेकिन थोड़ी बहुत बल्लेबाजी जरूर कर सकें. तब उनका काम सिर्फ कुछ  शुरुआती ओवर डालने की औपचारिकता निभाकर  गेंद को इतना घिस देना होता था ताकि स्पिनर अपना काम कर सकें.

गोविंदराज काफी तेज गेंदबाज थे और वेस्टइंडीज में क्लाइड वॉलकॉट जैसे दिग्गजों ने उनके उज्ज्वल भविष्य की उम्मीद जताई थी लेकिन भारत में किसी को किसी तेज गेंदबाज पर यकीन कैसे हो सकता था?. वे भी बिना कोई टेस्ट खेले दृश्य से बाहर हो गए. वे बाद में इंग्लैंड जाकर बस गए और काफी आर्थिक संकटों से जूझने के बाद ठीक ठाक हालत में पहुंचे.

तो यह किस्सा है उन पांच युवा खिलाड़ियों का जो वेस्टइंडीज के उस दौरे पर गए थे. उनमें से सिर्फ सुनील गावस्कर ही अपना मुकाम हासिल कर पाए, बाकी लोग प्रतिभाशाली होने के बावजूद किसी न किसी वजह से कहीं नहीं नहीं पहुँच पाए.