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Sunday Special: कैसे वाडेकर से पूरी तरह जुदा होकर भी कोहली उनसे सीख सकते हैं

वाडेकर का दौर अलग था और कोहली का दौर अलग है लेकिन शायद बतौर कप्तान और खिलाडी कोहली वाडेकर से कुछ तो सीख ही सकते हैं

Rajendra Dhodapkar

कामयाब होने वाले का सब कुछ सही हो जाता है और नाकाम होने वाले का सब कुछ गलत दिखाई देता है. नाकाम होने वाले को इसीलिए सलाह देने वाले भी खूब मिलते हैं. इन दिनों इंग्लैंड में चल रही टेस्ट सीरीज में भारतीय टीम पहले दोनों टेस्ट मैच हार गई है इसलिए कप्तान विराट कोहली की काफी आलोचना हो रही है और उन्हें सलाहें भी बहुत मिल रही हैं.

इसी दौरान अजित वाडेकर का निधन हुआ है जो इंग्लैंड दौरे पर सीरीज जीतने वाले पहले कप्तान थे. 1971 में सीरीज जीतने के बाद उन्हें सारे देश ने सिर पर बिठा लिया था और तीन साल बाद जब वे तीनों टेस्ट हार कर वापस लौटे तो उनसे कप्तानी छीन ली गई. न पहली प्रतिक्रिया का अतिउत्साह ठीक था न ही हार के बाद उनसे कप्तानी छीन लेना. अपनी कप्तानी के छोटे से अर्से में कोहली भी ये दोनों अतियां देख रहे हैं. ऐसे में कप्तान वाडेकर को याद करना प्रासंगिक हो सकता है.


कुछ बातें ऐसी होती हैं जिन्हें सही परिप्रेक्ष्य में देखने की जरूरत होती है. जो टीम 1971 में हारी थी वह कोई महान टीम नहीं थी ,उसमें बहुत सी कमियाँ थी. उसका मध्यमगति आक्रमण औसत से भी ख़राब था और बल्लेबाज़ी भी बहुत भरोसेमंद नहीं थी. वह टीम दूसरा टेस्ट हारने से सिर्फ बारिश की वजह से बची थी. तीसरे टेस्ट की जीत मुख्यत दूसरी इनिंग्ज में चंद्रशेखर की जादुई गेंदबाज़ी की वजह से मुमकिन हुई थी , जैसी गेंदबाज़ी कोई गेंदबाज कभी कभार ही कर पाता है. इसी तरह 1974 में तीनों टेस्ट हारने वाली टीम कोई बुरी टीम नहीं थी , बल्कि कई मायनों में वह 1971 की टीम से बेहतर थी. यह टीम लगातार चार सीरीज जीत चुकी थी. गावस्कर, विश्वनाथ और सोलकर इस बीच ज्यादा अनुभवी और परिपक्व हो चुके थे , पहले दौरे पर प्रसन्ना नहीं गए थे वे भी अब उपलब्ध थे , चंद्रशेखर , बेदी और वेंकट का दबदबा ज्यादा बढ़ चुका था. फिर भी यह टीम बुरी तरह हार गई , यहाँ तक कि वह दूसरे टेस्ट मैच में 42 रनों पर ऑलआउट हो गई जो कि भारतीय टीम का सबसे कम स्कोर है.

वाडेकर और विराट कोहली बिल्कुल अलग क़िस्म के खिलाडी और कप्तान थे. विराट कोहली बहुत महत्वाकांक्षी और आक्रामक कप्तान है जिनका लक्ष्य हर मैच जीतना और टीम को अजेय बनाना है. उनके पूरे व्यक्तित्व में यह बेचैनी , आक्रामकता और 'इंटेंसिटी' हर पल दिखती है. वाडेकर इस मुक़ाबले बहुत महत्वाकांक्षी नहीं थे. उनका उद्देश्य हर वक्त जो काम सामने हो , उसे यथासंभव अच्छे ढंग से निभाना रहता था. क्रिकेट में संयोगवश आ गए थे , ऐसा नहीं था कि वे बचपन से क्रिकेट खिलाडी बनना चाहते हों. कॉलेज के पहले साल उन्होंंने क्रिकेट खेलना शुरु किया. टेस्ट मैच खेलने से पहले लगभग दस साल तक वे मुंबई से रणजी ट्रॉफ़ी खेलते रहे. कप्तान बनने की भी उनकी कोई महत्वाकांक्षा नहीं थी , संयोगवश ही वे भारतीय कप्तान बन गए. न वेस्टइंडीज के, नहींं इंग्लैंड के दौरे पर वे यह सोच कर गए थे कि वे सीरीज जीतेंगे. तब भारतीय कप्तान और खिलाड़ी जीतने की सोचकर विदेशी दौरों पर नहीं जाते थे, न ही भारतीय खेलप्रेमी उनसे ऐसी उम्मीद करते थे. सभी यही सोचते थे कि यथासंभव अच्छा खेलें और कम से कम हारें.

पहले दौरे पर वाडेकर को नहीं था खुद पर विश्वास!

अपने पहले दौरे पर तो वाडेकर कप्तान की तरह अपने रसूख को लेकर भी बहुत आश्वस्त नहीं थे, क्योंकि टीम में बहुत से सीनियर खिलाडी थे. सुनील गावस्कर ने करीब दस साल पहले एकनाथ सोलकर की याद में हुए एक कार्यक्रम में बताया था कि वाडेकर टीम मीटिंग में देर से आने वाले सीनियर खिलाड़ियों को सीधे कुछ कह नहीं पाते थे. सुनील गावस्कर और एकनाथ सोलकर, दोनों मुंबई के उनके जूनियर खिलाडी थे, तो वे इन दोनों को डाँट लगाते थे , ताकि अप्रत्यक्ष रूप से सीनियर खिलाड़ियों को संदेश मिल जाए. कभी कभी तो वे इन दोनों से कहते थे कि तुम मीटिंग में देर से आना ताकि मैं तुम्हारे बहाने सीनियर खिलाड़ियों को सुना सकू.लेकिन अजूबा यह हुआ कि वाडेकर वेस्टइंडीज की सीरीज जीत गए. वेस्टइंडीज की पुरानी टीम उस वक्त बिखर रही थी और नई बनी नहीं थी. हंट, बुचर, नर्स , हॉल रिटायर हो गए थे और उनका विकल्प तलाशना आसान नहीं था. इस सीरीज के पांच टेस्ट मैचों में वेस्टइंडीज ने बाईस खिलाड़ियों को खिलाया , इससे हम जान सकते हैं कि वेस्टइंडीज की क्या हालत थी. फिर भी सोबर्स, कन्हाई और लॉयड की टीम को वेस्टइंडीज जाकर हराना सचमुच अजूबा था. इंग्लैंड की टीम तो अच्छी खासी मजबूत थी, लेकिन वहाँ भी भारतीय टीम जीत ने अपना झंडा फहरा दिया. इसके बाद वेस्टइंडीज की टीम भारत आई , तब उसकी नई टीम बनने की शुरुआत हुई थी. विवियन रिचर्ड्स , गॉर्डन ग्रीनिज और एंडी रॉबर्ट्स ने अपने टेस्ट करियर की शुरुआत भारत के इसी दौरे से की. भारत ने यह सीरीज जीत ली. इसके बाद इंग्लैंड का भारत दौरा होना था, इंग्लैंड के कई नामी खिलाड़ियों ने भारत आने से मना कर दिया, इसलिए वेस्टइंडीज़ ने अब तक एक भी टेस्ट मैच न खेले हुए टोनी लुईस के नेतृत्व में तकरीबन पूरी एक नई टीम भारत भेजी, जिसे भारत ने हरा दिया.

अब तो भारतीय खेलप्रेमियों की उम्मीदें आसमान पर थीं.  चार लगातार सीरीज भारत जीता था और ऐसा लग ही नहीं रहा था कि भारत हार भी सकता है. ऐसी उम्मीदों के बीच भारतीय टीम सन 1974 में इंग्लैंड पहुँची , जहाँ वह तीन शून्य से बुरी तरह हारी.  इस हार का ज़िम्मेदार वाडेकर को ठहराना गलत था.  वाडेकर कोई माइक ब्रेयरली नहीं थे , लेकिन वे बुरे कप्तान भी नहीं थे. बल्कि उन्हें हम पहला ऐसा भारतीय कप्तान मान सकते हैं जिन्होंने पेशेवर रवैये ,अनुशासन और फ़िटनेस को इतना महत्व दिया.  सलीम दुर्रानी , प्रसन्ना और बेदी जैसे लोगों को छोड़ दिया जाए तो उनके दौर में भारतीय फील्डिंग जितनी अच्छी थी उतनी पहले कभी नहीं थी. उनकी टीम की सबसे बडी कमी यह थी कि उसमें ठीकठाक स्तर के मध्यमगति गेंदबाज भी नहीं थे. उनके चारों स्पिनर बेशक महान थे लेकिन उनसे हर टेस्ट मैच में बीस विकेट निकालने की उम्मीद करना ज़्यादती थी प्रतिकूल पिचों पर जरूरत से ज्यादा गेंदबाजी करने से उनकी धार भी लगातार कम होती गई थी. वाडेकर का बल्लेबाजी औसत इकत्तीस रन प्रति ओवर का है , और उनके नाम सिर्फ़ एक टेस्ट शतक है लेकिन एक मायने में वे कोहली के बहुत क़रीब हैं. कुछ साल पहले कुछ सांख्यिकीविद क्रिकेट प्रेमियों ने किसी बडी जटिल गणना के सहारे भारत के “हाई इंपेक्ट “ खिलाड़ियों का हिसाब लगाया था. आश्चर्य यह था कि भारत के सबसे हाई इंपेक्ट खिलाडी अजित वाडेकर निकले थे . यानी वे ऐसे खिलाडी थे जिनका असर अपने दौर में भारत की विजयों पर सबसे ज्यादा रहा.

वाडेकर का दौर अलग था और कोहली का दौर अलग है लेकिन शायद बतौर कप्तान और खिलाडी कोहली वाडेकर से कुछ तो सीख सकते हैं.  पहला तो यह कि खेल में हार जीत पर कप्तान का बस तो होता है लेकिन एक हद तक ही , इसलिए कप्तान को दोनों से थोड़ा अलग करके अपने को देखना सीख लेना चाहिए . दूसरे एक हद से ज्यादा इंटेंसिटी और आक्रामकता टीम के लिए नुकसानदेह भी हो सकती है जैसे गाड़ी को लगातार एक सी तेजी से चलाना नुक़सानदेह हो सकता है. अच्छे कप्तान को खुद भी थोड़ा सहज होना चाहिए और टीम को भी उसी मूड में रखने की कोशिश करनी चाहिए.  जरूरत से ज्यादा दबाव कभी भी ठीक नहीं होता , यह तो जानामाना सच है.