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अभिनव तो हालिया शिकार हैं, क्रिकेट में नस्लभेद का इतिहास पुराना है

क्रिकेट में नस्लभेद का लम्बा इतिहास, बड़े बड़े दिग्गज हुए इसका शिकार

Neeraj Jha

पूरी दुनिया नस्लभेद और रंगभेद की समस्या से जूझ रही है. हम कहते ही दुनिया बदल रही है, लेकिन रंगों में भेद को लेकर हम आज भी वही खड़े है. विज्ञान और तकनीक ने हमें कहां से कहां पहुंचा दिया लेकिन आज भी अखबारों में मैट्रिमोनियल वाले पन्नों पर मिल्की वाइट और गोरे शब्द हमें यूं ही नजर आ जाते हैं. मैंने कभी भी किसी मैट्रिमोनियल कॉलम में ये लिखा नहीं देखा की हमें सांवला दूल्हा या दुल्हन चाहिए, शायद आप लोगों ने भी नहीं देखा होगा.

बेबाक मुकुंद -  भेदभाव पर उठाये सवाल


भले ही क्रिकेट खिलाडी अभिनव मुकुंद का ओहदा टीम आज के परपेक्ष्य  को देखते हुए इतना बड़ा ना हो, लेकिन जिस मुद्दे पर उन्होंने अपनी राय रखी है, उस से उन्होंने कई लोगों के दिलों को जीत लिया है. मुकुंद ने सोशल मीडिया पर नस्लवादी टिप्पणियों पर करारा जवाब देते हुए कहा है कि अपनी त्वचा के रंग के कारण वह खुद बरसों से यह अपमान झेलते आए हैं.  उन्होंन रंगभेद और नस्लभेद से जुड़ी पुरानी बहस को नया तेवर दे दिया है.

मुकंद पर पिछले कई सालों से उनके रंग को लेकर सोशल मीडिया पर उनका मजाक उड़ाया जाता रहा है लेकिन कोई भी संस्थान या फिर ऑथोर्टी ने इस मुद्दे पर किसी के खिलाफ कोई करवाई नहीं की और आखिरकार उन्हें खुद ही सामने आना पड़ा.  उनका टेस्ट करियर भले उतार-चढ़ाव वाला रहा हो, लेकिन बतौर क्रिकेटर उनका जज्बे की तारीफ करनी होगी. मुकुंद ने सोशल मीडिया पर नस्लवादी टिप्पणियों पर करारा जवाब देते हुए कहा है कि अपनी त्वचा के रंग के कारण वह खुद बरसों से यह अपमान झेलते आए हैं.

रंगभेद के खिलाफ अपनी आवाज बुलंद करके उन्होंने उन लोगों को जबाब दिया जो खेल के बजाय उनके रंग को लेकर उनपर उलटी-सीधी टिप्पणियां करते रहते हैं। इस मामले में उन्हें कप्तान विराट कोहली, रविचंद्रन अश्विन और हार्दिक पांड्या का समर्थन भी मिला है.

क्रिकेट में नस्लभेद का लम्बा इतिहास

जब दुनिया इतनी तेजी से बढ़ रही है ऐसे में इस तरह की घटनाएं असामान्य दिखती है. फिर भी ऐसी घटनाएं हुई है और अभी भी हो रही है. अगर इतिहास के पन्नों को पलटे तो आपको याद होगा की करीब एक दशक पहले साइमंड्स ने हरभजन सिंह पर नस्लभेदी टिप्पणी का आरोप लगाया था जिसे लेकर विवाद काफी बढ़ गया था. साइमंड्स ने हरभजन पर उन्हें ' बिग मंकी' कहने का आरोप लगाया था. लेकिन कुछ सालों बाद दोनों ही आईपीएल के एक ही टीम के हिस्से थे और उसी दौरान दोनों ने अपने सारे गीले शिकवे दूर कर लिए.

मोंटी पनेसर के साथ जो क्रिकेट ऑस्ट्रेलिया ने किया था उसको कौन भुला सकता है. उनके एक विज्ञापन में पूरे सिख समुदाय का मजाक उड़ाया गया था.

जिस देश की धरती पर महात्मा गांधी ने नस्लभेद और जातिवाद के खिलाफ लड़ाई लड़ी थी वही वेस्टइंडीज के पूर्व महान तेज गेंदबाज कोलिन क्रॉफ्ट को उसी तरीके से एक ट्रेन से उतर दिया गया था जैसे की गाँधी जी को - यह कहकर की ये डब्बा सिर्फ गोरे लोगों के लिए है

और हद तो तब हो गयी जब पूर्व ऑस्ट्रेलियाई खिलाडी ने कमेंटरी ब्रेक के दौरान हाशिम अमला को टेररिस्ट कहकर बार बार सम्बोधित किया, हालांकि टेन स्पोर्ट्स ने इस मामले की गंभीरता को देखते हुए उन्हें तत्काल बर्खास्त कर दिया था.

क्रिकेट के मैदान पर नस्लभेद के बादशाह - टोनी ग्रेग

अगर एक ऐसा क्रिकेट खिलाडी जिसे एक खास रंग से नफरत था वो थे टोनी ग्रेग. उन्होंने हर प्लेटफार्म पर एशियाई, अफ्रीकी और वेस्टइंडीज के खिलड़ियों पर नस्लभेद की टिपण्णी करने से कभी भी नहीं चुके.

भारतीय खिलाडियों को वो नाम के बजाय 'इंडियंस' कहकर पुकारते थे और उन पर निरंतर अपमानजनक टिप्पणी करते थे. मुझे भी उनके साथ काम करने  का मौका मिला और उनके इस नज़रिये को हमलोग हर दिन महसूस करते थे. उन्होंने तो पाकिस्तानी खिलाडियों को भी नहीं बक्शा - उन्हें वो पाकी कहकर बुलाते थे. एक बार कमेंटरी करने के दौरान  तो उन्होंने यह कह दिया की पाकिस्तानियों को बहस करने के अलावा कुछ नहीं आता है.

अगर आपने "फायर इन बेबीलोन" फिल्म देखी होगी तो आपको याद होगा कैसे  1977  में वेस्ट इंडीज के खिलाफ सीरीज से पहले उनकी टिपण्णी ने सबको चौका दिया था. जिस तरह के शब्दों का प्रयोग उन्होंने वेस्टइंडीज के खिलाडियों के लिए किया था वो शर्मनाक था.

ऐसा लग रहा था की क्रिकेट के मैदान में क्रिकेट के खिलाफ कोई और ही खेल खेला जा रहा है. लेकिन वेस्टइंडीज ने अपने बेहतरीन खेल की बदौलत उनको करारा जबाब दिया. विवियन रिचर्ड्स और माइकल होल्डिंग सरीखे खिलाडियों ने संयम रखते हुए सबको ये दिखा दिया की कैसे किसी के बेतुके सवालों का जबाब दिया जाता है.

नहीं बच पाए टाइगर वुड्स और प्रियंका चोपड़ा भी

खेल में नस्लभेद पूरी दुनिया में एक ज्वलंत मुद्दा रहा है, और खासकर अफ्रीकी-अमेरिकियों और एशियाई नागरिको के बीच

2011 में वुड्स के पूर्व कैडी स्टीव विलियम्स ने वुड्स को "काला गधा " के रूप में वर्णित किया, उनकी टिप्पणी ने गोल्फ में मौजूद संभावित नस्लीय तनावों पर एक पूरी बहस खोल दी. वो अलग बात है की विलियम्स ने अपनी टिप्पणी के लिए बाद में माफी मांगी।

बास्केटबॉल के खेल में भी  लॉस एंजेल्स क्लिपर्स के मालिक डोनाल्ड स्टर्लिंग को उनके नस्लभेदी कमेंट के लिए एनबीए ने करीब 16 करोड़ रुपए का फाइन भी लगाया और आजीवन के लिए उन्हें बैन भी कर दिया.

यहां तक की बॉलीवुड सुपरस्टार प्रियंका चोपड़ा भी इससे नहीं बच पाई. 12 साल की उम्र में स्कूली पढाई करने के लिए अमेरिका गई थी लेकिन कथित रंगभेदी भावनाओं से आहत होकर स्वदेश लौट गई थीं. प्रियंका के मुताबिक उन्होंने जिंदगी में बहुत नस्लभेद सहा है और वो बताती है की जब वो स्कूल जाती थी तब उन्हें सब  "ब्राउनी" कहकर बुलाया करते थे.

नस्लभेद के खिलाफ जंग

महात्मा गांधी ने जिसकी लड़ाई सालों तक न सिर्फ भारत में लड़ी बल्कि विदेशों में भी इसके खिलाफ मुहीम चलाई- शर्म की बात ये है की आज भी हम इस मुद्दे पर बहस कर रहे है.  मुल्क में जीने की आजादी तो हमें मिल गयी लेकिन कहीं न कहीं आज भी हमारे समाज में गोरों और कालों की बीच की जो दीवार है उसे गिराने में हम असफल रहे है.

सबसे बड़ी बात है की लोग इसके खिलाफ आवाज भी उठाने से डरते है, और ऐसे में जब कोई एक जाना माना खिलाडी इस मुद्दे पर लोगों के बीच अपनी राय रखता है तो हम फिर से कुछ दिनों के लिए जाग जाते है. सवाल तो यही है की जब हमारे साथ दूसरे देशों में ऐसा होता है तो हमें चोट पहुंचती है, लेकिन वापस अपने देश में भी हमने जाति, रंग और नस्ल के हिसाब से लोगो को बांटने और भेदभाव करने में कोई कसर नहीं छोड़ी है.

नस्लवादी टिप्पणी से बचने का अधिकांश लोगों की रणनीति यह है की चुप रहो. चुप रहने से इस समस्या का समाधान नहीं होगा और इससे उल्टा हम दोषियों को ये भरोसा देते है है को वो सही कर रहे है.  अगर हमें इससे निजात पाना है तो इसके खिलाफ आवाज उठानी होगी. अभिनव मुकुंद ने जो सवाल उठाए है  उसका जवाब उन्हें शायद ही मिले लेकिन एक बात तो निश्चित है इससे आमलोगों को ताकत जरूर मिली होगी.

नीरज झा-  (लेखक करीब 2 दशक से खेल पत्रकारिता में सक्रिय हैं और फिलहाल टेन स्पोर्ट्स से जुड़े हुए हैं. इस आलेख में प्रकाशित विचार उनके अपने हैं. आलेख के विचारों में फर्स्टपोस्ट की सहमति होना जरूरी नहीं है.)