एक हवाई यात्रा के दौरान हुई अपनी मौत से सिर्फ पांच महीने पहले जियाउल हक़ 'पकिस्तान-दिवस' पर मुल्क को संबोधित करते हुए कह रहे थे, 'हमें अपनी व्यक्तिगत और सामाजिक जिंदगी को खुदा के निर्देशों और शरीयत-ए-मुहम्मदी के अधीन रखना है क्योंकि इसीलिए अल्लाह ने हमें एक अलग वतन दिया है... हमें मूल्यांकन करना है कि हमने अलग मुल्क हासिल करने के बाद खुदा के निर्देशों और शरीयत-ए-मुहम्मदी का काम किस हद तक अंजाम दिया है... और ये प्रतिज्ञा करनी है कि मुल्क को इस्लामी कानून के तहत चलाने का मकसद हर कीमत पर हासिल करना है.'
शायद उस दिन पकिस्तान की अवाम इस संबोधन को एक राष्ट्राध्यक्ष की रस्मी-गुफ्तुगू समझकर आगे बढ़ गई होगी लेकिन आज जब वो पीछे पलट कर देखती है तो, समझ में आता है कि जियाउल हक़ के इस जुमले, 'हर कीमत पर', का क्या मतलब था.
11 साल के शासन में पाकिस्तान को 1100 साल पीछे धकेल दिया
पकिस्तान के एक बहुत चर्चित विचारक, हसन निस्सार, का कहना है कि 'जिया ने बेरहमी के साथ जात-बिरादरी का इस्तेमाल किया, मजहब का इस्तेमाल किया... वतन परस्ती को भी इस्तेमाल किया...वो एक अजीबो-गरीब तरह की चीज थी... जिसने अपने 11 साल के दौरे-हुकूमत में पाकिस्तान को 11 सौ साल पीछे धकेल दिया.'
जियाउल हक़ ने अपने उसी संबोधन में आगे कहा- 'हमने पिछले आठ-दस बरसों में इसी मकसद को सामने रखकर काम किया है... मेरा ये पक्का यकीन है कि इस्लाम से ज्यादा जम्हूरी, रौशन ख्याल कोई और नजरिया-ए-हयात नहीं.'
हमें पता नहीं कि पूर्वी पकिस्तान में जब पाकिस्तानी सेना द्वारा अपने ही भाई-बंधु (मुक्ति-वाहिनी) गाजर-मूली की तरह काटे जा रहे थे, उस समय, जियाउल हक़ सेना के किस ओहदे पर थे लेकिन जब एक तानाशाह अपने भाषण में 'जम्हूरियत' शब्द का उच्चारण कर रहा था तो उसे ये जरूर याद होगा कि किस तरह 1971 में, पकिस्तान ने अपने ही एक हिस्से 'पूर्वी-पकिस्तान' को, अपनी अलोकतांत्रिक नीतियों के तहत कुचला था और फलस्वरूप एक अलग राह पर जाने के लिए मजबूर किया था.
किसी को बरसी या वर्षगांठ पर याद करना एक परंपरा है. अक्सर ये मौका दिवंगत आत्मा से संबंधित अच्छी बातों के लिए होता है. लेकिन इस अवसर का लाभ कभी-कभी उन सनकी शासकों को याद करने के लिए भी कर ही लिया जाता है जिनके फैसले भविष्य को इतना अंधकारमय बना देते हैं कि जिन्हें दूर करने में सदियां गुजर जाती हैं.
एक मामूली क्लर्क के यहां एक साधारण लड़के ने जन्म लिया
होना तो ये चाहिए था कि लेखक को ये लेख जियाउल हक़ के जन्म-दिन 12 अगस्त की बजाय 1 मार्च को लिखना चाहिए था क्योंकि 12 अगस्त 1924 को तो, जालंधर निवासी और भारत में ब्रितानी-सेना के एक मामूली क्लर्क मोहम्मद अकबर के यहां, बस एक साधारण लड़के ने जन्म लिया था.
असली जियाउल हक़ तो पहली मार्च 1976 को पैदा हुआ था जब पाकिस्तान के तत्कालीन प्रधानमंत्री ज़ुल्फ़ीकार अली भुट्टो ने अपने कई सीनियर सेना अधिकारियों की वरीयता-क्रम को धता बताते हुए जियाउल हक़ को चार सितारों वाला जनरल और सेना प्रमुख बनाया था. दरअसल भुट्टो जियाउल हक़ को जनरल बनाने की संस्तुति पर नहीं अपनी मौत के वारंट पर दस्तखत कर रहे थे.
ऐसा नहीं है कि पकिस्तान में अब जनरल जिया का कोई नामलेवा ही नहीं है, वहां का मुल्ला वर्ग अब भी उन्हें अपना हीरो मानता है. मुल्लाओं के अलावा कुछ अतिवादी भी हैं जो अब भी तुर्की के साथ मिल कर इजरायल पर हमले के ख्वाब देखते हैं या लाल किले पर पाकिस्तान का झंडा देर-सवेर फहराने की बात करते हैं.
इन सबके हीरो जियाउल हक़ हैं. लेकिन पाकिस्तान का एक बड़ा तबका, वहां के प्रबुद्ध लोग खुलकर ये कहते हैं कि जियाउल हक़ की नीतियों ने पकिस्तान को किस तरह और कितने अंदर तक तबाह कर दिया है.
पाकिस्तान के इस तानाशाह का मूल्यांकन अक्सर औरंगजेब से किया जाता है. हसन निस्सार कहते हैं कि औरंगजेब की ही तरह जिया भी निहायत विनम्र, साधारण जीवन बिताने वाले, लोगों से बड़ी आत्मीयता से मिलने वाले थे. उनका कुरान और अल्लाह पर अटूट विश्वास था. लेकिन औरंगजेब की ही तरह वो भी राजनीतिक कुचक्र रचते रहते थे.
सेनाध्यक्ष बनाने वाले भुट्टो को फांसी पर चढ़ा दिया
औरंगजेब की ही तरह उन्होंने भी अनेक वरिष्ठ सेनाधिकारियों को दरकिनार कर, उनको सेनाध्यक्ष बनाने वाले भुट्टो को फांसी पर चढ़ा दिया. औरंगजेब की ही तरह उनके असहिष्णुशील इस्लाम को बढ़ावा देने से पकिस्तान तबाह हो गया और शायद अब वह मुगल साम्राज्य की तरह बिखर जाएगा.'
सच्चाई ये है कि पाकिस्तान के इस न भुलाए जाने वाले शासक का मूल्यांकन वैसा नहीं हुआ जैसी कि जरूरत थी. पकिस्तान में भी कभी-कभी ये मांग उठती रही है कि जिया हुकूमत के 11 वर्षों का पूरी तरह से मूल्यांकन होना चाहिए अगर उस गंभीर संकट से उबरना है कि जिसका पाकिस्तान सामना कर रहा है.
जैसा कि किसी भी तानाशाह के साथ होता है, जनरल जियाउल हक़ को भी किसी पर विश्वास नहीं था. वो शासन करने के बजाय, शासक के रुतबे में ही कहीं ऐसे खो गए थे कि शायद उन्हें भी इसका पता नहीं चल सका या फिर पता चलने नहीं दिया. वो राष्ट्रपति थे, उस राष्ट्रपति के वित्त मंत्री भी खुद ही थे, उस राष्ट्रपति के सेनाध्यक्ष भी वही थे, फिर राष्ट्रपति की ओर से सूचनातंत्र को जानकारी देने वाले की भूमिका भी वो खुद ही निभा रहे थे.
कुल मिलाकर जिया एक ऐसे व्यक्तित्व से ग्रसित थे जो सैद्धांतिक रूप से या सुचारू रूप से किसी व्यवस्था को बेहतर बनाने के बजाय इस बात में सारी ऊर्जा लगा देते हैं कि व्यवस्था की बाग-डोर कितनी मजबूती से और कितनी देर तक अपने हाथ में रख सकते हैं.
अपनी सफलता के लिए अल्लाह के सिवा किसी के शुक्रगुजार नहीं
हम पहले ही कह चुके हैं कि जनरल जिया को अपने अल्लाह पर अटूट विश्वास था, औरंगजेब को भी था, और औरंगजेब या जिया ही क्यों, इस दुनिया के अरबों-खरबों लोगों को उस सर्वशक्तिमान पर अटूट विश्वास है लेकिन फिर भी ये दोनों व्यक्ति सबसे जुदा हैं. वजह साफ है, दोनों ही वरीयता-क्रम में न होते हुए भी शीर्ष तक पहुंचे और अपनी इस सफलता के लिए सिवा अपने अल्लाह के, किसी के शुक्रगुजार नहीं थे. वो ये समझते रहे कि जो कुछ वो कर रहे हैं, अल्लाह उससे खुश है क्योंकि उसी के हुक्म से वो इस लायक बने हैं.
औरंगजेब ने तो फिर भी लड़कर या अपने बड़े भाई (उत्तराधिकारी) को मार कर तख्त पाया था लेकिन जिया के लिए सेनाध्यक्ष का पद तो ख्वाब जैसा था. दरअसल जिया बेहतरीन मिसाल हैं उस कुलीन-वर्ग द्वारा भ्रष्ट की गई उस व्यवस्था की, जो अपने ही कानून को इसलिए तोड़ देती है कि ये कानून भी उसी ने बनाए हैं. जैसा कि मुहम्मद अली जिन्नाह ये समझते रहे कि पकिस्तान उन्होंने और उनके टाइप-राइटर ने बनाया था. हालांकि उन्हें इस बात का अंदाजा हुआ, लेकिन तब तक, तीर कमान से निकल चुका था.