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इस राजनीतिक दल ने किया था इंदिरा गांधी और आपातकाल का समर्थन!

एकीकृत कम्युनिस्ट पार्टी में कांग्रेस के साथ रणनीतिक गठबंधन को लेकर 1964 में ही फूट पड़ चुकी थी

Piyush Raj

भारत का राजनीतिक इतिहास जितना रोचक रहा है, शायद ही किसी और देश का रहा होगा. कई रोचक किस्सों और उठापटक से भरे आधुनिक भारतीय राजनीति ने काफी कम वक्त में अच्छी-खासी दूरी तय कर ली है. खासकर भारत की आजादी के बाद भारतीय राजनीति में ऐसे कई मोड़ आए जो कांग्रेस के साथ-साथ कई राजनीतिक दलों के लिए खास थे.

25 जून,1975 में भारतीय राजनीति में एक ऐसा ही मोड़ आया जिसे हम आपातकाल यानी इमरजेंसी के नाम से जानते हैं. इस वक्त तक तत्कालीन इंदिरा गांधी भारतीय राजनीति की सबसे मजबूत शख्स बन चुकी थी. कांग्रेस के भीतर और बाहर वे अपने सभी विरोधियों को चित कर चुकी थीं. यह ऐसा वक्त था जब ‘इंदिरा इज इंडिया’ और ‘इंडिया इज इंदिरा’ कहा जाने लगा था.


सिर्फ घरेलू ही नहीं बाहरी मोर्चों पर इंदिरा की छवि एक कड़क नेता की थी. अमेरिका जैसी महाशक्ति भी इंदिरा गांधी का लोहा मानती थी. इंदिरा गांधी 1971 का भारत-पाक युद्ध जीतकर ‘गूंगी गुड़िया’ से ‘दुर्गा’ तक का सफर पूरा कर चुकी थीं. शासन-प्रशासन में इंदिरा के बेटे संजय गांधी और यूथ कांग्रेस की तूती बोलती थी. इन्हें किसी का विरोध बर्दाश्त नहीं था.

ऐसे वक्त में जयप्रकाश नारायण जैसे पुराने समाजवादियों और छात्र-युवाओं ने इंदिरा के विरोध का परचम अपने हाथों में लिया. इंदिरा गांधी को यह विरोध बर्दाश्त नहीं हुआ और आपातकाल लगाकर विरोध की आवाज को कुचलने का प्रयास किया.

विनोबा भावे ने भी किया था समर्थन

तकरीबन सभी राजनीतिक दलों और कई कांग्रेसियों ने इंदिरा गांधी के इस कदम की कड़ी निंदा की. लेकिन एक ऐसा भी राजनीतिक दल था जिसने आपातकाल का समर्थन किया. यह पार्टी थी कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ इंडिया (सीपीआई). सीपीआई के अलावा प्रसिद्ध गांधीवादी नेता विनोबा भावे ने भी आपातकाल का ‘अनुशासन का पर्व’ कहकर समर्थन किया था.

एकीकृत कम्युनिस्ट पार्टी में कांग्रेस के साथ रणनीतिक गठबंधन को लेकर 1964 में ही फूट पड़ चुकी थी. तब सीपीआई से अलग होकर एक नई पार्टी कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ इंडिया (मार्क्सवादी) यानी सीपीएम बनी. 1967 में नक्सलबाड़ी का विद्रोह भी हो चुका था. 70 के दशक में वामपंथ की इस नई धारा को भी कई विचारकों और लेखकों का समर्थन प्राप्त था.

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सीपीआई को छोड़कर सीपीएम सहित सभी वामपंथी संगठन कांग्रेस की सरकार के विरोध में थे. इस वजह से इन सभी दलों ने आपातकाल का विरोध किया. दरअसल उस वक्त इंदिरा गांधी अंतरराष्ट्रीय मोर्चे पर अमेरिका की नीतियों का खुलकर विरोध कर रही थीं और उन्हें सोवियत रूस के करीब माना जाता था. सीपीआई भी सोवियत रूस की नीतियों की समर्थक थी.

ये थी समर्थन की वजह

इस वक्त तक वैश्विक स्तर पर वामपंथ भी सोवियत रूस और कम्युनिस्ट चीन के आपसी मतभेदों की वजह से बंट चुका था. भारत में सीपीआई को रूस समर्थक और सीपीएम को चीन का समर्थक माना जाता था.

सीपीआई द्वारा आपातकाल के समर्थन की वजह सोवियत रूस की कम्युनिस्ट पार्टी के दबाब को भी माना जाता है. लेकिन इससे पहले इंदिरा गांधी की कई नीतियों का सीपीआई समर्थन कर चुकी थी. इंदिरा गांधी द्वारा बैंकों का राष्ट्रीयकरण और खाद्य सुरक्षा जैसी नीतियों का सीपीआई ने खुलकर समर्थन किया था. दूसरी तरफ इस दौरान सीपीएम अपने कांग्रेस विरोधी रुख पर कायम थी.

सीपीआई इंदिरा गांधी द्वारा लिए इन फैसलों को समाजवादी एजेंडे का अंग मानती थी. इंदिरा गांधी ने आपातकाल के दौरान 1976 में 42 वें संविधान के तहत संविधान की प्रस्तावना में समाजवाद, धर्मनिरपेक्षता और अखंडता शब्दों को भी जोड़ा था.

सीपीआई के भीतर था मतभेद

आपातकाल विरोधी आंदोलन का व्यापक असर था. जनता के अधिकांश हिस्से में इंदिरा सरकार के खिलाफ गुस्सा था. इस वजह से आपातकाल का समर्थन करने के लिए सीपीआई के भीतर भी मतभेद मुखर थे. सीपीआई से संबंधित इसके छात्र संगठन एआईएसएफ के कई नेताओं ने आपातकाल विरोधी आंदोलन में हिस्सा लिया.

सीपीआई के कई नेता भी आपातकाल के दौरान मीसा कानून के तहत गिरफ्तार किए गए थे. यहां तक कि एबी वर्धन जैसे बड़े नेता भी सीपीआई के तत्कालीन शीर्ष नेतृत्व के इस फैसले से खुश नहीं थे.

इस वजह से 1977 के आम चुनावों में सीपीआई ने नवगठित जनता पार्टी और कांग्रेस से बराबर की दूरी बनाए रखने का फैसला लिया. लेकिन तब तक देर हो चुकी थी. आपातकाल के दौरान डांवाडोल फैसले का खामियाजा पार्टी को लोकसभा चुनावों में भुगतना पड़ा.

1971 के आम चुनावों में सीपीआई को कुल 4.73 फीसदी वोटों के साथ 23 सीटें मिली थीं लेकिन 1977 के आम चुनावों में पार्टी को सिर्फ 2.8 फीसदी वोटों के साथ महज 7 सीटें ही मिली.

बाद में माना भयंकर भूल 

हालांकि 1976 में सीपीआई ने इमरजेंसी के दौरान की जा रही ज्यादतियों की आलोचना की  लेकिन तब तक देर हो चुकी थी. 1978 में पंजाब के भटिंडा हुए अपने 11 वें पार्टी कांग्रेस में सीपीआई ने आपातकाल के समर्थन को भयंकर भूल भी माना और यह भी कहा कि पार्टी से कांग्रेस और इंदिरा गांधी के चरित्र को समझने में गलती हुई.

लेकिन सीपीआई के लिए यह गलती ऐतिहासिक गलती साबित हुई. 1971 के बाद हुए किसी भी लोकसभा चुनाव में पार्टी 20 सीटों के आंकड़े को छू नहीं पाई और भारत की सबसे पुरानी कम्युनिस्ट पार्टी खुद से ही निकली हुई पार्टी (सीपीएम) का जूनियर पार्टनर बनकर रह गई है.

हालांकि बाद में कई बार सीपीआई के साथ-साथ सीपीएम ने भी कांग्रेस के साथ गठबंधन किए लेकिन एक जनउभार के वक्त सीपीआई की द्वारा की गई इस गलती ने उसके समर्थकों के एक बड़े हिस्से को हमेशा के लिए दूसरी वामपंथी और समाजवादी पार्टियों के करीब कर दिया.