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हमारे देश को आज मॉब नहीं जॉब की जरूरत है

सभी के डाइवर्स कल्चर को ध्यान में रखते हुए एक ‘कॉमन सिविक सेंस’ बनाने की जरूरत है

Shehla Rashid

किसी भी देश की आजादी का को दो चीजों की आजादी से तय किया जाता है. ये दो चीजें हैं राजनीतिक आजादी और दूसरी आर्थिक आजादी. राजनीतिक रूप से तो हम अपनी सरकारों को चुनने के लिए आजाद हैं लेकिन आर्थिक रूप से नहीं.

खासतौर से 1990 के बाद जो लिबरलाइजेशन, प्राइवेटाइजेशन और ग्लोबलाइजेशन के आने के बाद अब वर्ल्ड बैंक हमारी आर्थिक नीतियों को प्रत्यक्ष और परोक्ष रूप से तय करता है. शिक्षा और स्वास्थ्य के क्षेत्र में रिफॉर्म्स के पहले भी हालात ठीक नहीं थे और इन रिफॉर्म्स के बाद इन क्षेत्रों में हालत और भी खराब हो गई है.


सबको मुफ्त और समान शिक्षा देने की जिम्मेदारी किसी भी सरकार ने नहीं उठाई. आज भी देश में ज्यादातर बच्चे मदरसे, मिशन स्कूलों, आरएसएस द्वारा संचालित शिशु मंदिरों और आर्यसमाज द्वारा चलाए जा रहे डीएवी स्कूलों में पढ़ाई कर रहे हैं. इन स्कूलों में एक खास तरह की धार्मिक शिक्षा भी दी जाती है.

जबकि भारत जैसे मल्टीकल्चरल देश में सरकार को इसकी जिम्मेदारी लेनी चाहिए ताकि कम उम्र से ही बच्चों को 'अनेकता में एकता' का पाठ सिखाया जा सके और यह सिर्फ सरकार द्वारा सेक्युलर शिक्षा व्यवस्था द्वारा की किया जा सकता है.

कॉमन सिविक सेंस की जरूरत

जिस देश में राजनीतिक रूप से एक होते हुए एक लद्दाखी एक तमिल से सांस्कृतिक एकता नहीं महसूस करता है वहां सभी के डाइवर्स कल्चर को ध्यान में रखते हुए एक ‘कॉमन सिविक सेंस’ बनाने की जरूरत है. इस ‘कॉमन सिविक सेंस’ में सभी की धार्मिक और सांस्कृतिक विभिन्नता के सम्मान का खयाल रखा जाना भी जरूरी है. इस 'कॉमन सिविक सेंस' की कमी की वजह से ही लोग आज छोटी से छोटी बात एक-दूसरे की जान लेने पर उतर जाते हैं.

लेकिन चाहे वो भारत हो या हमसे से ही अलग होकर बना पाकिस्तान हो. दोनों देशों की सरकारों का आजादी के 70 साल के बाद भी बुनियादी सुविधाओं की तरफ कोई ध्यान नहीं है. दोनों देश परमाणु हथियारों की खरीद और शक्ति प्रदर्शन में अधिक खर्च कर रहे हैं.

भारत में चाहे वो शिक्षा का सवाल हो या रोजगार या स्वास्थ्य का, इन सभी क्षेत्रों में हालात खराब होती जा रही है. ज्यादातर लोगों को सर्विस सेक्टर में नौकरियां मिल रही हैं, जिसमें जॉब सिक्योरिटी अमेरिका की मंदी पर निर्भर है. वहां मंदी हुई नहीं कि लोगों की नौकरियां गईं.

हमें रोजगार और तकनीक के क्षेत्र में आत्मनिर्भर बनना होगा तभी असली मायने में हम एक आजाद मुल्क कहे जाने के हकदार होंगे.

किसके लिए हो आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस?

भारत के सब कुछ है. हर तरह के संसाधन मौजूद हैं लेकिन हम सिर्फ क्लर्क पैदा कर रहे हैं. राइट टू एजुकेशन ठीक तरीके से लागू नहीं किया गया है और उच्च शिक्षा में रिसर्च फंडिंग में कटौती की जा रही है. जब तक रिसर्च नहीं होगा तब तक हम तकनीक के क्षेत्र में आत्मनिर्भर कैसे होंगे?

आजकल आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस के इस्तेमाल की बात कही जा रही है. यह कहा जा रहा है दिल्ली मेट्रो में 3300 ड्राइवरों की जगह रोबोट लेंगे. आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस के इस्तेमाल से किसी को गुरेज नहीं है. लेकिन आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस का इस्तेमाल करते वक्त यह ध्यान देने की जरूरत है भारत में सबसे पहले इसकी जरूरत कहां है.

अगर आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस का इस्तेमाल करना ही है तो सिर पर आज भी मैला ढोने वाले और सीवर वगैरह में उतरने वाले दलित और गरीब मजदूरों के काम को आसान और मानवीय बनाने के लिए इसका सबसे पहले इस्तेमाल हो. साथ ही यह भी ध्यान रखा जाए कि इन मजदूरों की नौकरियां नहीं जाए.

दरअसल आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस की इन मशीनों को अमेरिका और जापान की बड़ी कॉर्पोरेट कंपनियों ने तैयार किया है. जो इन देशों रेलवे और मेट्रो को सक्षम बनाने के लिए सही हो सकते हैं पर भारत जैसे देशों में इनकी प्राथमिकताएं दूसरी होनी चाहिए. साथ आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस सप्लाई करने वाली मशीनों पर किसी एक कंपनी का एकाधिकार नहीं हो. यह कॉपरेटिव मॉडल पर चलना चाहिए.

क्या ऐसे बनेंगे सुपर पॉवर?

रिसर्च को बढ़ावा नहीं देने की वजह से ही भारत आज ‘ब्रेन ड्रेन’ की समस्या से गुजर रहा है. अधिकतर सक्षम भारतीय रिसर्च के लिए विदेशों का रुख कर रहे हैं.

रिसर्च से जुड़ी दूसरी समस्या यह है हमारे ‘फ्रीडम ऑफ एक्सप्रेशन’ पर सेंसर लगाया जा रहा है. जबकि स्वतंत्र सोच किसी भी रिसर्च की बुनियाद होती है. क्यूबा जैसा छोटा देश स्वास्थ्य के क्षेत्र में काफी प्रगति कर गया है. अफ्रीकी देशों को वह इबोला जैसी बीमारी से निपटने में मदद कर रहा है. एड्स पीड़ित मां से बच्चों को होने वाले एचआईवी ट्रांसफर को क्यूबा के डॉक्टर आज रोकने में सक्षम हैं.

जबकि हमारे यहां स्थिति बिल्कुल उलटी है.बच्चे सिग्नल पर भीख मांग रहे हैं.अस्पतालों में उनके लिए ऑक्सीजन सिलिंडर नहीं हैं. यहां महिलाएं पहले से खून की कमी का शिकार हैं और एनिमिक हैं. दूसरी तरफ भारत सरकार का आयुष मंत्रालय गर्भवती महिलाओं को यह कह रहा है कि वो मांस नहीं खाएं.

सवाल यह है कि भूखे पेट निरक्षर भारत आगे कैसे बढ़ेगा? कैसे सुपर पॉवर बनेगा और विकसित बनेगा?

पीछे जा रहा है देश

भारत को आज आगे बढ़ाने की बजाय पीछे धकेला जा रहा है. पहले जहां आईपीसी सेक्शन 377 को हटाने की बात हो रही थी और वैवाहिक-बलात्कार को कानूनी दर्जा देने की मांग हो रही थी, वहीं आज वर्णिका कुंडू के मामले में हम देखते हैं कि सरकारी पार्टी बीजेपी पीड़िता को दोषी ठहराने ने लिप्त है.

आगे आने वाला समय और मुश्किलों से भरा होने वाला है. नोटबंदी और जीएसटी की वजह से छोटे व्यापारियों का कारोबार उजड़ गया है. वे बाजार से तेजी से बाहर हो रहे हैं.

दूसरी तरफ ‘मॉब लिंचिंग’ जैसी घटनाओं को धार्मिक आधार पर शह दिया जा रहा है. लेकिन इसके पीछे एक सुनियोजित आर्थिक हमला भी है. एक तरफ गौरक्षा की बात हो रही है तो दूसरी तरफ भारत से बीफ का निर्यात हो रहा है. सभी राज्यों में बीफ को लेकर अलग-अलग कानून हैं और इसी को आधार बनाकर लोगों पर हमला हो रहा है. वहीं बड़े-बड़े मीट और बीफ व्यापारी बीजेपी से जुड़े हैं. इनके लिए कोई कानून नहीं है.

सांप्रदायिकता के नाम पर छोटे-छोटे मीट व्यापारियों को हटाकर बड़े मीट व्यापारियों के एकाधिकार को स्थापित करने की साजिश चल रही है.

हमारे देश में मुद्दों को सांप्रदायिक बनाकर न्यूनतम सोशल सिक्योरिटी जैसे शिक्षा, स्वास्थ्य और रोजगार के सवालों को दरकिनार किया जा रहा है. आजादी के 70 साल हो जाने पर भी आम लोगों की इन बुनियादी सुविधाओं से पहुंच दूर है.

(शेहला रशीद जेएनयू छात्रसंघ की पूर्व उपाध्यक्ष और लोकप्रिय स्टूडेंट लीडर हैं. यह लेख फ़र्स्टपोस्ट से उनकी बातचीत पर आधारित है)