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हम सबको वो आजादी चाहिए, जो संविधान ने हमें दी है

आजादी का मतलब है समाज के अंदर जितने तरह का शोषण हो रहा है उससे मुक्ति

Kanhaiya Kumar

आज जब हम आजादी के 70 साल होने वाले हैं तो सबसे पहले यह देखना होगा कि इस दौरान हमने क्या खोया और क्या पाया.

हमने पाया क्या?


आजादी के आंदोलन के जरिए हमें ब्रिटिश उपनिवेशवाद और साम्राज्यवाद से मुक्ति मिली. उस वक्त देश के कई नेताओं ने कहा था कि हमें अंग्रेजों से राजनीतिक आजादी तो मिली है लेकिन बहुत से आर्थिक और सामाजिक लक्ष्यों को हमें पाना है. इन्हीं लक्ष्यों को हमारे संविधान की प्रस्तावना और नीति-निर्देशक तत्व के द्वारा राज्य को क्या करना चाहिए यह निर्देशित किया गया है. इसमें अगर हम देखें तो राजनीतिक तौर पर हमारी सबसे उपलब्धि यह थी कि भारत में लोकतंत्र की स्थापना हुई और सभी वर्ग के लोगों को बिना किसी जातिगत और लैंगिक भेदभाव के मतदान का अधिकार मिला. इसके द्वारा एक बेहतर लोकतंत्र की स्थापना का लक्ष्य रखा गया.

शिक्षा के क्षेत्र में निरक्षरता को दूर करने का प्रयास किया गया और देश में साक्षरता बढ़ी. जनसंख्या पर नियंत्रण के लिए परिवार नियोजन का कार्यक्रम शुरू किया गया.

समाज में शैक्षणिक और सामाजिक रूप से पिछड़े हुए लोगों को मुख्यधारा में शामिल करने के लिए सामाजिक न्याय की अवधारणा के तहत आरक्षण की व्यवस्था की गई.

आर्थिक क्षेत्र में हरित क्रांति के द्वारा खाद्यान्न के क्षेत्र में आत्मनिर्भरता आई. ‘अनेकता में एकता’ हमारे देश की एक खास विशेषता है. इसे लेकर हम आगे लेकर कैसे चलें ताकि देश की एकता और अखंडता सुरक्षित रहे. इसके तहत भाषा, बहुसंस्कृतिवाद जैसे महत्वपूर्ण सवालों को सर्वसम्मति से सुलझाया गया. इसके साथ-साथ स्वतंत्रता आंदोलन में जितने तरह के सवाल थे उनके बारे में भारत के संविधान के तहत लक्ष्य रखे गए. इसके जरिए ही हमने औद्योगिक उत्पादन, तकनीक, कृषि और रोजगार के क्षेत्र में हमने कई लक्ष्य प्राप्त किए. हमारी पहुंच चांद और मंगल तक हुई. भारी मशीनरी और बड़े-बड़े बांधों के जरिए बिजली और कृषि उत्पादन के क्षेत्र में हमने उल्लेखनीय प्रगति की है. कई सारे अच्छे काम भारत की आजादी के बाद हुए हैं.

क्या खोया और किन लक्ष्यों से हम चूक गए

आरक्षण के बावजूद आज भी देश में हम अलग-अलग रूपों में जाति आधारित भेदभाव को देख सकते हैं. जाति और लिंग आधारित शोषण आज भी देश में समाप्त नहीं हुआ है. आईएएस की बेटी होने के बावजूद वर्णिका कुंडू जैसी लड़कियां भी इस देश में सुरक्षित नहीं हैं.

सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि जिन आदिवासियों को समाज की मुख्यधारा में लाना था, वे आज भी हाशिये पर ही हैं. हमारे विकास के मॉडल में वे पीछे छूट गए हैं और अपने ‘जल, जंगल जमीन’ को बचाने की लड़ाई लड़ रहे हैं. अंधाधुंध विकास की इस दौड़ में उन्हें उनकी पहचान और संस्कृति से काटने की कोशिश हो रही है.

आजादी के मायने क्या हैं?

आजादी का मतलब है समाज के अंदर जितने तरह का शोषण हो रहा है उससे मुक्ति. चाहे वह जातिगत हो, सामाजिक हो, सांस्कृतिक हो, आर्थिक हो या राजनीतिक हो. सभी तरह की गुलामी से मुक्ति ही आजादी का मतलब होता है.

मौजूदा दौर में निजीकरण के नाम पर देश के अंदर लूट की संस्कृति को बढ़ावा दिया जा रहा है. अंग्रेजों के समय ‘कंपनी राज’ था और आज देश की तथाकथित राष्ट्रवादी सरकार देश में ‘कॉर्पोरेट राज’ स्थापित करना चाह रही है.

‘एक भारत, श्रेष्ठ भारत’ के नाम पर सभी लोगों पर एक खास तरह की संस्कृति को थोपा जा रहा है. चाहे वह खाने-पीने का मसला हो, भाषा का मसला हो या अपने हिसाब से रोजगार चुनने का मसला हो. इस सभी क्षेत्रों में भारत के बहुलतावाद पर हमला हो रहा है.

भारत एक कृषि-प्रधान देश है. आज भी भारत की आबादी का  60 फीसदी से अधिक हिस्सा खेती-किसानी से जुड़ा है. अगर हम आंकड़ों के लिहाज से देखें तो साल 2014 के बाद प्रति माह 1000 किसान आत्महत्या कर रहे हैं. आज लोग अगर किसी प्रोफेशन को तेजी से छोड़ रहे हैं तो वह खेती है. बाकी प्रोफेशंस को देखें तो डॉक्टर का बच्चा डॉक्टर, इंजीनियर का बच्चा इंजीनियर, आईएएस का बच्चा आईएएस या प्रोफेसर का बच्चा प्रोफेसर बनना चाहता है लेकिन किसान का बच्चा किसान नहीं बनना चाहता है.

कृषि क्षेत्र में हालत काफी खराब है.नकदी फसल, डंकल प्रस्ताव आदि के नाम पर बीजों के दाम बढ़ा दिए गए हैं. खेती के नाम पर दी जा रही सब्सिडी को अलग-अलग तरीकों से खत्म किया जा रहा है. सरकार न्यूनतम समर्थन मूल्य को ख्त्म करने की कोशिश कर रही है. कृषि और पशुपालन क्षेत्र की कॉपरेटिव सोसाइटियों को खत्म किया जा रहा है.

सेना को भी चाहिए भ्रष्टाचार से आजादी

इसी किसान, गरीब, दलित और आदिवासी का बच्चा सैनिक के रूप में सरहद पर देश की आजादी और अखंडता की रक्षा करता है. इन सैनिकों की स्थिति देखें तो हाल ही में हिंदुस्तान टाइम्स के प्रकाशित आंकड़ों के अनुसार 2014 से अब तक 310 सैनिकों ने आत्महत्या की है. यानी जितने सैनिक आतंकी हमले या युद्ध में नहीं मरते उससे अधिक दोषपूर्ण व्यवस्था की वजह से आत्महत्या कर रहे हैं.

साथ ही हम यह भी देखते हैं कि देश के हुक्मरानों के भीतर इनके लिए कोई सम्मान की भावना नहीं है. ये शहीदों के लिए बड़े-बड़े वादे तो करते हैं लेकिन उसे पूरा नहीं करते हैं. हाल ही में यूपी के मुख्यमंत्री के दौरे को देखते हुए प्रशासन से जिस शहीद के घर में सोफा-कुर्सी और एसी लगवाया था, उसे मुख्यमंत्री के जाते ही प्रशासन ने शहीद के घर से हटवा दिया.

सैनिकों की ‘वन रैंक वन पेंशन’ की मांग अभी तक पूरी नहीं हुई है. जितने सैनिक युद्धकाल में मरते हैं उससे अधिक संसाधनों के अभाव में मरते हैं. लांसनायक हनुमंथप्पा की मौत के वक्त बार-बार यह सवाल सामने आया था कि हमारे पास एवलांच प्रूफ टेंट क्यों नहीं है? जब पीएम की गाड़ी बुलेट प्रूफ हो सकती है तो सैनिकों का टेंट एवलांच प्रूफ क्यों नहीं हो सकता है?

सेना के साजोसामान और हथियारों की खरीद में दलाली होती है. यहां तक कि ताबूत की खरीद में भी घोटाले की बात सामने आई है. जो देश की आजादी को सुरक्षित रखने का काम कर रहे हैं, उनको यह आजादी नहीं है कि वे अपने बच्चों को बेहतर शिक्षा दिलवा सकें. सेना में सैनिकों को आज भी अंदर के इस भ्रष्टाचार और दलाली खाने वाले नेताओं से आजादी चाहिए.

शिक्षा को बाजार की वस्तु के रूप में पेश किया जा रहा है.  शिक्षा के बजट में लगातार कटौती की जा रही है. सवाल यह है कि अगर हम देश के लोगों को शिक्षित नहीं बनाएंगे तो भारत को विकसित और मजबूत राष्ट्र कैसे बनाएंगे? सबको बेहतर ढंग से शिक्षित करना ही असली आजादी का लक्ष्य होना चाहिए.

शिक्षा से जुड़ा सवाल रोजगार से भी जुड़ा है. हर साल देश में 5 से 6 लाख छात्र इंजीनियर बनकर निकलते हैं. जबकि 2015 के आंकड़ों के अनुसार हर साल सिर्फ 1.35 लाख नौकरियों के ही अवसर उपलब्ध होते हैं.  नोटबंदी से 15 लाख लोगों की नौकरियां खत्म हो गई हैं. अतः आज भी हमारे सामने इस बेकारी से आजादी का सवाल बरकरार है.

इसी तरह स्वास्थ्य की बात करें तो सरकार के पास रैली करने और विधायक खरीदने के लिए पैसे हैं लेकिन बच्चों के लिए ऑक्सीजन सिलिंडर खरीदने के लिए पैसा नहीं है. जीडीपी का सिर्फ 1 फीसदी की स्वास्थ्य के क्षेत्र में खर्च किया जा रहा है.

सबसे बुरी हालात सरकारी यानी पब्लिक सेक्टर की है. बार-बार ये कहा जाता है कि पब्लिक सेक्टर में काम नहीं होता है. जबकि हम देखते हैं कि आईआईएम, आईआईटी, एम्स और जेएनयू जैसे देश के टॉप संस्थान सरकारी हैं. फिर सरकार इन संस्थानों को बंद क्यों करना चाहती है? क्यों पब्लिक सेक्टर को बर्बाद किया जा रहा है. प्राइवेटाइजेशन के नाम पर जो लूट चल रही है, आज उस लूट से आजादी की जरूरत है.

हो रही है असली मुद्दों को दबाने की कोशिश

धर्म और संस्कृति के सवाल पर विचार करें तो ‘राष्ट्रवाद’ की बहस को असली मुद्दों को दबाने के लिए फिर से जानबूझकर उछाला जा रहा है. जबकि इस बहस को कई साल पहले ही हल किया जा चुका है. आजाद भारत का धर्म, संस्कृति, भाषा आदि को लेकर क्या रुख रहेगा यह संविधान में साफ-साफ दर्ज है.

नई सरकार इन बहसों को फिर से उछालकर देश में जाति, धर्म, भाषा, इतिहास और संस्कृति के नाम पर देश के लोगों को बांटने की कोशिश कर रही है. जातिवादी-मनुवादी संस्कृति लोगों पर थोपने की कोशिश हो रही है. इसकी वजह से आजादी का सवाल आज और भी जरूरी है.

नि:संदेह आजादी के इन 70 सालों में हमने कई क्षेत्रों में प्रगति की है लेकिन आज संविधान में घोषित समानता, बंधुत्व, न्याय और स्वतंत्रता जैसी स्थापनाओं की गला घोटने की कोशिश हो रही है. शिक्षा, रोजगार, स्वास्थ्य जैसी बुनियादी जरूरतों से लोगों का ध्यान भटकाने की कोशिश हो रही है.

आज संविधान द्वारा स्थापित लक्ष्यों को तोड़-मरोड़कर उंच-नीच पर आधारित भारत को बनाने की कोशिश हो रही है. इसके खिलाफ संघर्ष की जरूरत है.

मेरे लिए आजादी का मतलब यही है कि लोगों को संविधान द्वारा जो राजनीतिक, सांस्कृतिक, आर्थिक और सामाजिक आजादी मिली है उसे अक्षुण्ण रखा जाए.

(कन्हैया कुमार जेएनयू छात्रसंघ के पूर्व अध्यक्ष और लोकप्रिय छात्र नेता हैं)