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विष्णु दिगंबर पलुस्कर: गायकों को सम्मान दिलाने की लड़ाई लड़ने वाला 'शास्त्रीय' सितारा

पंडित विष्णु दिगंबर पलुस्कर के जन्मदिन पर विशेष

Shivendra Kumar Singh

बचपन में आंखों की रोशनी गवाने के बाद सुरों की नजर से देखी दुनिया

ये कहानी महाराष्ट्र के एक शहर मीरज की है. एक वक्त था जब ये शहर बीजापुर की जागीर हुआ करता था. मीरज में त्योहारों पर सांस्कृतिक कार्यक्रमों की पुरानी परंपरा थी. ऐसे ही एक कार्यक्रम में मीरज के तमाम नामी गिरामी लोगों को बुलाया गया लेकिन गायकों को कार्यक्रम में आमंत्रित नहीं किया गया. ऐसा शायद इसलिए हुआ था क्योंकि उस दौर में गायकों को सम्मान की नजर से नहीं देखा जाता था.


ये बात जब उस दौर के एक उभरते हुए गायक को जब पता चली तो उसे बहुत कष्ट हुआ. उसे बुरा लगा कि उस कार्यक्रम में उसके गुरु को क्यों नहीं बुलाया गया. विरोधाभास ये था कि इस उभरते हुए कलाकार को मीरज के महाराज ने रहने खाने और संगीत सीखने के लिए सारी सुविधाएं दे रखी थीं.

बावजूद इसके 23-24 साल की उम्र में उस कलाकार ने दुखी होकर मीरज छोड़ दिया और कसम ले ली कि वो गायकों को समाज में सम्मान दिलाकर ही दम लेंगे. ये कलाकार थे भारतीय शास्त्रीय संगीत की महान शख्सियत पंडित विष्णु दिगंबर पलुस्कर. ये पंडित जी की ही देन थी कि बाद में मीरज में होने वाले सांस्कृतिक कार्यक्रमों में उनके अलावा उस्ताद अब्दुल करीम खान, हीराबाई बाडोडेकर, विनायकराव पटवर्धन, उस्ताद अब्दुल करीम खान जैसे दिग्गज कलाकारों को भी आमंत्रित किया गया.

पंडित विष्णु दिगंबर पलुस्कर का जन्म 18 अगस्त 1872 को कुरूंदवार रियासत के बेलगांव में हुआ था. उनका उपनाम था गाडगिल. लेकिन सांगली के करीब पालुस गांव का होने की वजह से नाम के साथ पलुस्कर जुड़ गया. पंडित विष्णु दिगंबर पलुस्कर के पिता दिगंबर गोपाल कीर्तन किया करते थे. उन्होंने अपने बेटे को संगीत की शिक्षा देना शुरू किया. उनकी ख्वाहिश थी कि उनका बच्चा पढ़ाई लिखाई में भी अव्वल हो.

उन्होंने कुरूंदवार के एक प्राइमरी स्कूल में अपने बेटे का एडमिशन भी करा दिया. किसी को अंदाजा भी नहीं था कि छोटी सी उम्र में उनके बेटे को एक त्रासदी का शिकार होना पड़ेगा. हुआ यूं कि दीपावली के त्योहार पर आतिशबाजी के दौरान विष्णु दिगंबर पलुस्कर के चेहरे पर गंभीर चोट आ गई. इस चोट ने उनकी आंखों की रोशनी छीन ली. पूरे परिवार के लिए ये बहुत बड़ा सदमा था.

विष्णु दिगंबर पलुस्कर की आंखों की रोशनी जाने से उन्हें अपनी पढ़ाई लिखाई भी छोड़नी पड़ी. ऐसे मुश्किल वक्त में विष्णु दिगंबर पलुस्कर के पिता ने उन्हें पूरी तरह संगीत के प्रति समर्पित कर दिया. मीरज के संगीतज्ञ बालकृष्ण इचलकरंजीकर ने विष्णु दिगंबर पलुस्कर को शास्त्रीय संगीत की बारीकियों के बारे में जानकारी दी.

1896 में जब उन्होंने मीरज छोड़ा तो उनके दिमाग में सिर्फ एक ही लक्ष्य था. वो चाहते थे कि गायकों को सम्मान में इज्जत की निगाह से देखा जाए. इसके लिए जरूरी था कि पहले कलाकार सम्मान अर्जित करे. उस दौर में चले आ रहे संगीत के एक खास अंदाज से खुद को दूर रखे और शास्त्रीयता को तरजीह दे. विष्णु दिगंबर पलुस्कर ने जब सतारा में अपना कार्यक्रम प्रस्तुत किया तो उन्हें बड़ी वाहवाही मिली. कहा जाता है कि कलाकारों के ‘पब्लिक परफॉर्मेंस’ की शुरुआत यहीं से हुई. इससे पहले कार्यक्रम या तो महलों में होते थे या मंदिरों में.

इसके बाद वो पूरे देश में घूम-घूमकर शास्त्रीय संगीत के कार्यक्रम प्रस्तुत करते रहे और इस कला का प्रचार प्रसार भी करते रहे. 1901 में उन्होंने एक और बड़ा लक्ष्य हासिल करने की ठान ली. उन्होंने लाहौर में गंधर्व महाविद्यालय की स्थापना की. मुसीबत तब आई जब उनके विद्यालय में संगीत सीखने के लिए एक भी विद्यार्थी नहीं आया. ये किस्सा बड़ा मशहूर है कि जब कोई भी विद्यार्थी महाविद्यालय में नहीं आया तो पंडित विष्णु दिगंबर पलुस्कर खुद ही तानपुरा लेकर बैठ जाते थे और वहां रियाज करते थे. वक्त बदला और धीरे-धीरे गंधर्व महाविद्यालय में संगीत की कक्षाएं सजने लगीं.

ऐसा कहा जाता है कि गंधर्व महाविद्यालय की व्यवस्थाओं की देखरेख के दौरान ही पंडित विष्णु दिगंबर पलुस्कर के पिता का निधन हो गया. पंडित विष्णु दिगंबर पलुस्कर पर विद्यालय को व्यवस्थित करने की ऐसी धुन सवार थी कि वो अपने पिता के श्राद्ध तक में नहीं जा पाए.

ये उनके जुनून का ही नतीजा था कि 1908 में उन्होंने बंबई (अब मुंबई) में भी गंधर्व महाविद्यालय की स्थापना की. ये अलग बात है कि इस दौरान उन पर जरूरत से ज्यादा पैसों का कर्ज हो गया. जिसे वो उतार नहीं पाए. पैसों का तनाव उनके दिमाग पर बढ़ता चला गया. उन दिनों वो एक ही रट लगाया करते थे- रघुपति राघव राजा राम. कम ही लोग जानते हैं कि इस अत्यंत लोकप्रिय भजन को सबसे पहले उन्होंने ही गाया था.

इसके अलावा वंदे मातरम की धुन भी उन्होंने ही तैयार की थी. पंडित विष्णु दिगंबर पलुस्कर ने संगीत की तमाम किताबें लिखीं. उन्होंने स्वरलिपियां भी तैयार की थीं लेकिन उन्हें बाद में कठिन माना गया.

पंडित विष्णु दिगंबर पलुस्कर की निजी जिंदगी दुखों से भरपूर रही. उन्हें 12 बच्चे हुए लेकिन उसमें से सिर्फ एक बच्चे को ही वो बचा पाए. दत्तात्रेय विष्णु पलुस्कर यानी डीवी पलुस्कर उन्हीं की संतान थे. जिन्होंने कम उम्र में ही संगीत की दुनिया में जमकर ख्याति कमाई. 1930 के आस पास की बात है.

पंडित विष्णु दिगंबर पलुस्कर का स्वास्थय खराब रहने लगा. उन्हें लकवा हो गया. उस वक्त उनकी उम्र भी ज्यादा नहीं थी लेकिन होनी को शायद ये ही मंजूर था. अगले ही साल 21 अगस्त 1931 को उन्होंने आखिरी सांस ली. दुर्भाग्य देखिए कि उनके पुत्र दत्तात्रेय विष्णु पलुस्कर भी ज्यादा दिन जीवित नहीं रहे. सिर्फ 34 साल की उम्र में शास्त्रीय संगीत में ऊंचा मुकाम हासिल करने के बाद उन्होंने भी दुनिया को अलविदा कह दिया.

पंडित विष्णु दिगंबर पलुस्कर के शिष्यों में विनायक राव पटवर्धन, ओंकारनाथ ठाकुर, नारायण राव व्यास, बीआर देवधर ने बहुत नाम कमाया. पंडित विष्णु दिगंबर पलुस्कर के सभी शिष्यों ने संगीत के शीर्ष मुकाम को हासिल किया. अपने गुरु के प्रति इससे बेहतर श्रद्धांजलि और क्या हो सकती है.