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वैलेंटाइन्स डे: वो फिल्मी सीन जिन्होंने हमें इश्क़ करना सिखाया

90 के दशक में सिमरन को राज के पास जाने के लिए बाबूजी की इजाजत चाहिए थी, वासेपुर में मोहसिना खुद परमीशन देती है

Animesh Mukharjee

फरवरी यानी प्रेम का महीना. इसलिए भी कि इसमें वैलेंटाइन डे पड़ता है, इसलिए भी कि इसमें बसंत भी पड़ता है. भारतीय पंचांग का सबसे बहकाने वाला महीना फागुन भी कमोबेश फरवरी ही है.

इसी फरवरी की शुरुआत में हम सब अंकित सक्सेना की बात कर रहे थे. जिसे प्रेम करने की सजा मिली. अभी हम नेशनल क्रश बनी प्रिया वारियर के पीछे दीवाने हैं. मगर भारतीय समाज में प्रेम को लेकर एक अलग तरह का विरोध है. एक ऐसी हकीकत जिस पर तमाम तरह की बंदिशें लगाने की बात होती है. बशीर बद्र के शेर में कहें तो भूल कर अपना ज़माना ये ज़माने वाले. आज के प्यार को मायूब(बुरा) समझते होंगे.


सिनेमा और खासतौर पर उसका नायक हमारे समाज के बदलते दौर, उसूलों और कायदों का प्रतिनिधित्व करता रहा है. आजादी के बाद समाज सुधार करने वाले मास्टर जी की प्रेमिका अक्सर राधा या सुधा होती थी जो किसी गरीब की पढ़ी-लिखी बेटी हुआ करती थी. हीरो जब राज बना तो सिमरन के पास सपने तो होते थे मगर उन्हें पूरा करने के लिए बाबूजी की इजाज़त जरूरी थी.

यही इजाज़त परमीशन बन गई जब फैजलवा जैसा कालां सैंया होने लगा. मतलब कुछ मना नहीं था मगर परमीशन तो लेनी चाहिए थी. नजर डालते हैं ऐसे ही कुछ हिंदी सिनेमा के ऐसे मौकों का जिन्होंने हिंदुस्तान के इश्क करने के तरीकों को 'डिफाइन' किया.

छिप न सकेगा इश्क हमारा

हिंदी सिनेमा में बाकी सारी फिल्में एक तरफ हैं और एक ओर मुगल-ए-आज़म है. मुगल-ए-आज़म में प्रेम करने का तरीका भी शाही है. दुनिया का कोई देश हो, कोई दौर हो, दो पीढ़ियों के बीच का टकराव बना रहता है. मुगल-ए-आज़म इसके मानक स्थापित करती है. हमारा दिल भी कोई आपका हिंदुस्तान नहीं... जैसे डायलॉग और छिप न सकेगा इश्क हमारा  जैसी लिरिक्स इसकी तस्दीक करती हैं. मगर मुगल-ए-आज़म का एक सीन है जो सिनेमाई रोमांस की खूबसूरती को इंतहां पर ले जाता है. दिलीप कुमार मधुबाला को चूमने के लिए आगे बढ़ते हैं, उनके हाथ में एक पंख है, इससे वो पहले मधुबाला के चेहरे को सहलाते हैं और फिर पंख चेहरे को ढक लेता है. इसके बहुत सी फिल्मों में इसको फूल-पत्ती से दोहराने की कोशिश हुई मगर ऐसा जादू नहीं जाग पाया.

राजू गाइड और रोज़ी

वहीदा रहमान उदयपुर शहर में घूमने निकली है. पैरों में घुंघरू बंधे हुए हैं. लोग कौतूहल से देख रहे हैं और देवानंद पीछे-पीछे चल रहे हैं. राजू गाइड और रोज़ी के बीच का जो प्रेम 60 के दशक में देव साहब बेहद संजीदगी से दिखा गए, आज उसे रोल रिवर्सल के तौर पर शोर-शराबे के साथ दोबारा दिखाने की कोशिश हो रही है. बाकी इस फिल्म के गाने तो अपने आप में अलग कहानी हैं.

राधा-जय और माउथ ऑर्गन

शोले का जय एक चोर है. सजा काट चुका अपराधी. राधा विधवा है. ठाकुर के घर में बिना किसी कारण बेरंग जिंदगी काट रही विधवा छोटी बहू. जया बच्चन का किरदार शाम को एक-एक कर लैंप की रौशनी धीमी करता जाता है, दूसरी तरफ अमिताभ माउथ ऑर्गन बजा रहे होते हैं. इस तसल्ली बख्श रोमांस की दुखद परिणिती फिल्म के क्लाइमैक्स में जय की मौत के साथ दिखाई पड़ती है. जब राधा अपने ससुर ठाकुर बलदेव सिंह के सामने रोती है. हिंदी सिनेमा के सबसे दुखद इज़हारों में से एक सीन.

प्यार में कपड़े फाड़ना

इक दूजे के लिए कमल हासन और रति अग्निहोत्री की यादगार प्रेम कहानी है. इसके गाने और दुखद अंत के अलावा इसका अनगढ़ रोमांस याद है. घर से छिप कर घूमने जाना फिर फंस जाने पर गलती से लड़की के बाप से ही मदद मांगना. इस फिल्म में प्यार में कपड़े फाड़ने को एक अलग तरीके से दिखाया गया है. लड़का लड़की बिना बात किए एक दूसरे को इशारे करते हैं और इसमें कपड़े फटते हैं. वैसे लैंडलाइन फोन के दौर में अफेयर वालों को इस तरह के दो घंटी बजाकर इशारा करना खूब याद होगा.

पलट!

शाहरुख खान ने डीडीएलजे में राज के किरदार के जरिए अपने से पहले के कई स्टीरियो टाइप तोड़े. हीरो को अच्छा होने के लिए क्लास में फर्स्ट आने या गरीब होने की जरूरत नहीं थी. इसी तरह उसे माचो मैन बनने की भी जरूरत नहीं थी. मगर इस फिल्म ने एक मिथक गढ़ दिया, अगर वो पलट कर देखेगी तो... इस ‘तो’ ने दुनिया भर के तमाम लोगों को समझा दिया कि जाते समय पलट कर देखना जरूरी है. आपने अगर ये फिल्म देखी है तो किसी न किसी के पलट कर देखने का इंतज़ार जरूर किया होगा. वैसे इस फिल्म के चलते कई लड़कों और कुंवारी लड़कियों ने करवा चौथ का व्रत रखा होगा.

हीरोइन, साइकिल और गद्दा

शाहरुख खान के बाद कॉलेज, रोमांस और तमाम चीज़ें सिनेमा में चलने लगीं. ‘कुछ-कुछ होता है’ से ‘हम-तुम’ तक तमाम जगह दोहराया गया कि प्यार दोस्ती है, दोस्ती प्यार है. जिस युग में रोमांटिक होने की शर्त करवाचौथ पर चुनरी के साथ कढ़ाई वाला कुर्ता पहनना मान लिया गया था. एक अलग सी फिल्म आई जिसके एक सीन ने काफी कुछ बदल दिया.

देव डी में एक सीन है. पारो यानी माही गिल सायकिल के करियर पर गद्दा बांधकर खेत में ले जाती हैं. ताकि ‘ढंग से’ काम कर सकें. इसमें गानों का सहारा लेकर हीरोइन जोरा-जोरी करने की बात नहीं कर रही थी. प्रेमी के आवेदन पर लज्जा से सिकुड़ती नहीं है. खुद मूव बनाती है. अनुराग कश्यप ने सिनेमा में काफी कुछ बदला इसमें अभिव्यक्ति का ये तरीका भी बहुत खास है.

परमीशन तो लेनी चाहिए न

अनुराग कश्यप की पारो शहर की लड़की थी. गैंग्स ऑफ वासेपुर में मोहसिना (हुमा कुरैशी) महत्वकांक्षा वाली कस्बाई युवती. एक ऐसी लड़की जो कानून तोड़ने वाले समाज में पली बढ़ी है. जिसे तराशी हुई देह वाला ग्रीक गॉड नहीं, काली ज़ुंबा और काली नीयत वाला फैजल चाहिए. महिलाओं के लिए वहां बंदिशें हैं और बंदिशें तोड़ने की चाहत भी. ऐसे में जब फैजल उसका हाथ पकड़ने की कोशिश करता है तो वो उसे झिड़क देती है. फैजल मिमियाता है, रोता है. फैजल का निर्भीक होना ही उसकी पहचान है. ऐसे फैजल को मोहसिना कहती है, ‘मना नहीं है...’ प्रेम में सांत्वना मिला हुआ इजहार हीरोइन की तरफ से इससे बेहतर ढंग से शायद ही हुआ हो.

इस तरह के अलग-अलग भावनाओं के साथ मिला हुआ प्रेम प्रदर्शन कई और जगह दिखता है. वासेपुर में ही जहां मोहसिना फैजल से कहती है कि तो अपनी अम्मा के साथ ही जाओ न पिक्चर देखने.. या तनु वेड्स मनु के दोनों पार्ट्स में कुछ जगहों पर.

तू किसी रेल सी गुज़रती है

मसान फिल्म का ये गाना (जो दुष्यंत के शेर से प्रेरित है). बलून उड़ाने से शुरू होता है. लड़की और लड़का मेले में गुब्बारा उड़ाते हैं. छोटे शहरों में मोबाइल से पहले मोहब्बत के इस तरह के सिग्नल खूब होते थे. इसी तरह का इश्क फिल्म हासिल में दिखाया गया है. मगर वो भारत में मोबाइल युग आने से ठीक पहले की फिल्म हैं. गिनी चुनी फिल्में हैं जिनमें छोटे शहरों के इश्क को सही से दिखाया गया है. राझंणा ऐसे मौकों को अच्छे से दिखाती है, मगर आधी कहानी के बाद लय से भटक जाती है. हाथ काटना, लड़की जिस नल से पानी पिए उससे पानी पीना, ऐसा बहुत कुछ है जो इन गिनी चुनी फिल्मों में दिखाया गया है.

प्यार के बाद क्या होता है मैं बताउंगा

इन सबके बाद बहुत से ऐसे सीन हैं जो इस लिस्ट में बढ़ते चले जाएंगे. लेकिन एक सीन है जो शहरी प्रेम की समस्या को दिखाता है. अगर इसे सामान्य तौर पर देखेंगे तो  लगेगा कि ये लड़कियों के खिलाफ लड़कों की भड़ास है. मगर इन्हीं बातों का एक वर्जन लड़कियों की तरफ से बनाया जा सकता है. महिला वाला वर्जन जब बनेगा तब बनेगा, अभी के लिए तो सच है कि भागदौड़ की जीवनशैली में प्यार हुआ तो कभी न कभी पंचनामा भी होगा.