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बिस्मिल्लाह खां: जब शहनाई ने सुर छेड़े– हमारे दिल से न जाना

पिछले करीब सात दशक में जब भी शहनाई गूंजी, बिस्मिल्लाह याद आए

Shailesh Chaturvedi

वो वक्त आ गया था, जब शहनाई का नाम लेते ही बिस्मिल्लाह खां साहब का अक्स उभरता था. वो शहनाई का पर्याय हो गए थे. लेकिन रियाज वैसे ही जारी था, जैसे वो शुरुआती दौर में करते थे. फर्क यह था कि अब रियाज के बीच कभी-कभी थोड़ी आजादी ले लिया करते थे. आजादी से मतलब ये कि किसी राग का रियाज करते-करते अपना पसंदीदा फिल्मी गाना बजाने लगना.

खासतौर पर एक गाना था, जो उन्हें पसंद था - हमारे दिल से न जाना, धोखा न खाना... उनकी पत्नी इसे सुनकर बेटे से कहतीं – आज बुढ़ऊ मूड में हैं... सारे फिल्मी गाने याद आ रहे हैं. यह उनका मस्तमौला अंदाज था, जो किसी भी बनारसी के साथ जुड़ता है.


बनारसी ठसक, मस्ती सब कुछ बिस्मिल्लाह खां साहब के साथ जुड़ता है. वो भाषा भी, जिसे गालियों से सजा कहना किसी बनारसी का अपमान होगा. वो वहां की सहज भाषा है. वो तहजीब भी, जो बनारस की मिट्टी में रही है. ऐसी तहजीब, जहां खुदा और भगवान अलग नहीं दिखते. तभी तो वो मंदिर हमेशा से बिस्मिल्लाह साहब के लिए शिक्षा स्थल जैसा रहा, जहां उनके मामू और गुरु अली बख्श भी सीखा करते थे.

बिहार में जन्मे, लेकिन बनारस में सीखा संगीत

एक पारंपरिक मुस्लिम परिवार में जन्मे थे कमरुद्दीन. कुछ लोग साल 1913 मानते हैं और कुछ 1916. दिन माना जाता है 21 मार्च. जन्म भी बनारस नहीं, बिहार के डुमरांव में हुआ था. दादा ने पहली बार चेहरा देखा तो बरबस मुंह से निकला बिस्मिल्लाह... कहा जाता है कि उसके बाद उन्हें बिस्मिल्लाह कहा जाने लगा. वो तो ईद मनाने मामू के घर बनारस गए थे. क्या पता था कि यही उनकी कर्मस्थली बन जाएगी. मामू शहनाई बजाते थे और छोटे मामू यानी अली बख्श साहब भी. अली बख्श बालाजी मंदिर में शहनाई बजाते थे और वहीं रियाज भी करते थे. बिस्मिल्लाह साथ होते.

एक रोज उन्होंने मामू से पूछ ही लिया- 'मुझे शहनाई बजाना कब आएगा.' मामू ने जवाब दिया कि जब सीखोगे. बिस्मिल्लाह का अगला सवाल था- कबसे सीखें. जवाब मिला – आज से. शिक्षा की शुरुआत हो गई. अली बख्श साहब जो बजाते, उसे दोहराने की कोशिश बिस्मिल्लाह करते. शहनाई से अजीब-अजीब आवाज आती थी. बिस्मिल्लाह निराश होते, तो मामू उनका हौसला बढ़ाते. आधे घंटे से शुरुआत होकर रियाज का वक्त बढ़ता गया. दिन में छह घंटे रियाज होने लगा.

बिस्मिल्लाह खां साहब का पहला पब्लिक परफॉर्मेंस कहां था, इसे लेकर भी अलग-अलग राय हैं. बनारस से बाहर पहला परफॉर्मेंस कलकत्ता में बताया जाता है. लेकिन एक परफॉर्मेंस है, जिसने बिस्मिल्लाह खां साहब की जिंदगी की राह तय की. यह 1930 के आसपास की बात है. मामू को इलाहाबाद जाना था. बिस्मिल्लाह रोने लगे तो मामू उन्हें साथ ले गए. वहां संगीत समारोह में अली बख्श साहब ने शहनाई बजानी शुरू की. वो राग केदार बजा रहे थे. बीच में उन्होंने बिस्मिल्लाह की तरफ इशारा किया कि वो भी बजाएं. बिस्मिल्लाह ने बिल्कुल वैसे ही बजाना शुरू किया. उन्हीं सुर और नोट्स के बावजूद अंदाज अलग था. उस्ताद फैयाज खां के मुंह से वाह-वाह निकला. यहीं से तय हो गया कि बिस्मिल्लाह खां संगीत का बड़ा नाम बनेंगे.

धर्म की राजनीति के बीच दिलचस्प बात यही रही कि बिस्मिल्लाह खां के ज्यादातर शिष्य हिंदू थे. बागेश्वरी देवी भी, जिन्हें पहली महिला शहनाई वादक माना जाता है. वो अपने एक सपने के बारे में बताते रहे. बड़ा दिलचस्प है वो. एक किताब में उनकी जुबानी ये किस्सा है. इसके मुताबिक मामू मंदिर में रियाज के लिए कहते थे. उन्होंने कहा था कि अगर यहां कुछ हो, तो किसी को बताना मत.

जब बिस्मिल्लाह खां को ‘बाबा’ ने दिए दर्शन

बिस्मिल्लाह साहब के मुताबिक, ‘एक रात मुझे कुछ महक आई. महक बढ़ती गई. मैं आंख बंद करके रियाज कर रहा था. मेरी आंख खुली, तो देखा हाथ में कमंडल लेकर बाबा खड़े हैं. दरवाजा अंदर से बंद था, तो किसी के कमरे में आने का मतलब ही नहीं था. मैं रुक गया. उन्होंने कहा बेटा बजाओ. लेकिन मैं पसीना-पसीना था. वो हंसे, बोले खूब बजाओ.. खूब मौज करो और गायब हो गए. मुझे लगा कि कोई फकीर घुस आया होगा. लेकिन आसपास सब खाली था.’ बिस्मिल्लाह साहब घर आए. उनके मुताबिक मामू समझ गए थे कि क्या हुआ है. बिस्मिल्लाह ने मामू को बता दिया. इस पर थप्पड़ खाया, क्योंकि मामू ने किसी को बताने से मना किया था.

बिस्मिल्लाह साहब की कहानी की सच्चाई सिर्फ वही जानते होंगे.लेकिन जिस संस्कृति को वो मानते थे, उसे बताने का काम यह किस्सा करता है. शिया मुस्लिम होने के बावजूद वो हमेशा सरस्वती को पूजते थे. उनका मानना था कि जो कुछ हैं, वो मां सरस्वती की कृपा है.

फिल्म गूंज उठी शहनाई में गूंजे थे बिस्मिल्लाह साहब की शहनाई के सुर

करीब 70 साल तक बिस्मिल्लाह साहब अपनी शहनाई के साथ संगीत की दुनिया पर राज करते रहे. आजादी के दिन लाल किले से और पहले गणतंत्र दिवस पर शहनाई बजाने से लेकर उन्होंने हर बड़ी महफिल में तान छेड़ी. पांच वक्त के नमाजी, सिर्फ हलाल खाने वाले थे. उन्होंने एक हिंदी फिल्म में भी शहनाई बजाई, फिल्म थी – गूंज उठी शहनाई. लेकिन उन्हें फिल्म का माहौल पसंद नहीं आया. बाद में एक कन्नड़ फिल्म में भी शहनाई बजाई.

बिस्मिल्लाह साहब को हवाई यात्रा से डर लगता था. वो भारत में ट्रेन से जाना पसंद करते थे. कहते थे कि हवाई जहाज में सब बड़े लोग होते हैं. वे मुझे पहचानते नहीं. जब मैं कुछ गुनगुनाता हूं, तो गुस्सा होते हैं. अंग्रेजी बोलते हैं, मैं बात भी नहीं कर पाता.

ज्यादातर बनारसियों की तरह वो इसी शहर में आखिरी सांस लेना चाहते थे. 17 अगस्त 2006 को वो बीमार पड़े. उन्हें वाराणसी के हेरिटेज अस्पताल में भर्ती कराया गया. दिल का दौरा पड़ने की वजह से वो 21 अगस्त को दुनिया से रुखसत हुए. उनकी पांच बेटियां और तीन बेटे हैं. एक दत्तक पुत्री हैं. अंतिम वक्त में उन्हें आलोचना भी झेलनी पड़ी. ये वक्त था, जब उन्होंने उस वक्त के प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी की आलोचना की थी कि उनके परिवार के लिए आर्थिक मदद और पेट्रोल पंप नहीं दिया जा रहा.

एक आलोचना यह थी कि उन्होंने कोई ऐसा शिष्य नहीं दिया, जो उनके मुकाम को पा सके. सनातन धर्म में कहा जाता है कि गुरु को मोक्ष तभी मिलता है, जब उसका शिष्य उससे बड़ा हो जाए. लेकिन अपने से बड़ा शिष्य न दे पाने की वजह से आलोचना ठीक नहीं लगती. वो हमेशा कहते थे कि कोई उनका बेटा है, इसलिए अच्छी शहनाई बजाए, ऐसा संभव नहीं है. वैसे भी जब किसी का कद उतना ऊंचा हो, तो उसके आसपास पहुंचना भी आसान नहीं होता. पिछले करीब सात दशक में जब भी शहनाई गूंजी, बिस्मिल्लाह याद आए. वो आगे भी याद आएंगे. हमेशा याद आएंगे, क्योंकि बिस्मिल्लाह खां जैसे फनकार सदियों में होते हैं.