view all

कांग्रेस की ‘बाजीगर’ या बलि का बकरा ?

कुल मिलाकर ऐसा लग रहा है कि शीला दीक्षित को बलि का बकरा बनाया गया है.

Vivek Anand

राजनीति उतनी भी उबाऊ नहीं है. कांग्रेस ने इसका रोमांच बचाए रखा है. आप ही बताइए कि शीला दीक्षित ने कभी सोचा होगा.

कि राज्यपाल रहते हुए वो सीएम की रेस में उतार दी जाएंगी. वो भी तब, जब उनके 78 बसंत निकल चुके हों.


शीला दीक्षित ने लगातार 3 बार दिल्ली की कमान संभाली है. लेकिन दिल्ली के 15 साल के अनुभव से लखनऊ जीत लेने की जिद अनोखी जान पड़ती है. किसी भी तरीके से दिल्ली और यूपी की तुलना नहीं की जा सकती.

साइज में यूपी के सामने दिल्ली कहीं नहीं ठहरती. दोनों राज्यों के सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक चुनौतियां बिल्कुल अलग हैं.

इस मायने में शीला को सीएम उम्मीदवार बनाए जाने का फैसला एतिहासिक है.

कांग्रेस ने उस नेता पर दांव खेला है. जो दो साल पहले दिल्ली की कुर्सी नहीं बचा पाई. खुद अपनी विधानसभा में लोगों ने उन्हें नकार दिया.

विधानसभा और लोकसभा दोनों में पार्टी की दुर्गति हुई. शीला दीक्षित के नेतृत्व में पार्टी एक सीट के लिए तरस गई.

उन्हें गांधी-नेहरु परिवार की वफादारी का सिला मिला है. केरल के गवर्नर का पद पाकर वो दिल्ली की यादों से दूर चली गई थीं.

इस भयावह इतिहास के बाद कांग्रेस का कलेजा ही है. कि उसे शीला की राजनीति पर भरोसा है.

कांग्रेस हाईकमान ने बड़े हौसले के साथ प्रशांत किशोर की सलाह मानी है. शीला दीक्षित को सीएम के उम्मीदवार के तौर पर प्रोजेक्ट करने का फैसला प्रशांत किशोर का है. वही प्रशांत किशोर जो जेडीयू से आउटसोर्स होकर कांग्रेस में आए हैं.

शायद सोनिया और राहुल ये कभी नहीं करते. प्रशांत किशोर की बात उन्हें माननी पड़ी. क्योंकि उनके पास लगातार दो बार जीतने वाली पार्टी की रणनीति बनाने का अनुभव है.

शीला दीक्षित अपने राजनीतिक करियर के नए फैसले की सारी सच्चाई जानती हैं. लेकिन वफादारी की जंजीरो में जकड़ी शीला ने पार्टी हाईकमान को ही धन्यवाद भेजा. इसके साथ ही उन्होंने एलान भी कर दिया. गुटों में बंटी यूपी कांग्रेस को एकजुट करने में वो पूरा जोर लगा देंगी.

अग्निपरीक्षा है यूपी चुनाव

शीला दीक्षित मानती हैं कि यूपी चुनाव उनके लिए अंतिम अग्निपरीक्षा है. कांग्रेस को हार से उबारने का आखिरी मौका है.

संभावना है कि इस बार प्रियंका गांधी पूरे राज्य में चुनावी प्रचार की कमान संभालें. बस, इसी उम्मीद से शीला दीक्षित हौसले से भरी हैं.

शीला दीक्षित ने कहा है- “ प्रियंका गांधी लोगों के बीच काफी लोकप्रिय हैं. चुनावों में उनकी मौजूदगी पार्टी में नई जान फूंक देगी. मुझे यकीन है कि वो आएंगी ”

ये अपनेआप में मजेदार है. शीला के सीएम पद के उम्मीदवार घोषित होने के दो दिन पहले की बात है.

बीजेपी अपने दो केंद्रीय मंत्रियों की उम्र के आधार पर उनके पद से छुट्टी कर देती है. 75 पार की नजमा हेपतुल्ला और जीएम सिद्धेश्वरा राजनीति से वानप्रस्थ ग्रहण करते हैं.

और कांग्रेस युवा रणनीतिकार की सलाह पर 78 पार शीला को चुनावी जंग की कमान सौंपती है.

राजनीति के रोमांच को महसूस कीजिए. कि एक तरफ दिल्ली का एंटी क्रप्शन ब्यूरो करोड़ों के टैंकर घोटाले में शीला दीक्षित को सम्मन भेजता है.

इसके कुछ घंटे बाद ही उन्हें सीएम पद की उम्मीदवारी सौंप दी जाती है. किस्मत में दुर्भाग्य और सौभाग्य का ऐसा अद्भुत संयोग देखने को नहीं मिलता.

ये कांग्रेस की बरसों पुरानी परंपरा रही है. कि वो चुनावों से पहले मुख्यमंत्री पद के उम्मीदवार का एलान नहीं करती. प्रशांत किशोर की ताजा तरीन रणनीति है, कि चुनाव की कमान किसी ब्राह्मण के हाथ में हो. परंपरा तोड़कर शीला के नाम का एलान, इसी रणनीति के तहत हुई.

शीला दीक्षित पंजाबी खत्री परिवार से आती हैं. वो यूपी के ब्राह्मण नेता उमा शंकर दीक्षित की बहू हैं. शीला को अपनी ससुराल का फायदा मिला है.

प्रशांत ने कांग्रेस पार्टी को तीन ऑप्शन दिए थे- राहुल गांधी, प्रियंका गांधी और शीला दीक्षित. गांधी परिवार के चिराग अपना परीक्षण करवाने को राजी नहीं हुए. तो उम्मीदवारी शीला दीक्षित पर आकर अटक गई.

Getty Images

ये देखना मजेदार होगा. कि यूपी की युवा जनता शीला दीक्षित को कैसे देखती है. उनको अपने ससुर की राजनीतिक विरासत का फायदा किस तरह से मिलता है. उमाशंकर दीक्षित सत्तर के दशक में केंद्रीय मंत्री थे. अस्सी के दशक में वो कर्नाटक और पश्चिम बंगाल के राज्यपाल रहे.

मौका ही उपलब्धि

70 और 80 के दशक का फायदा 2017 के सीएम कैंडिटेट को कैसे मिलेगा ? ये अपनेआप में बड़ा सवाल है. अस्सी के मध्य में उमाशंकर दीक्षित ने अपना आखिरी पद संभाला था. उसके बाद वोटरों की बिल्कुल नई पीढ़ी वोट देने को तैयार है.

अगर रणनीति सिर्फ ब्राह्मण होने भर की है. तो यूपी की रीता बहुगुणा जोशी भी हैं. लेकिन दिग्गज ब्राह्मण नेता हेमवंती नंदन बहुगुणा की बेटी के नाम को सीरियसली नहीं लिया गया.

शीला दीक्षित ने सौम्यता और शिष्टता से भरी शहरी राजनीति की है. वो यूपी की सियासी गर्मी, धूल-धक्कड़ और गुटबाजी वाली राजनीति संभाल पाएंगी?

इसमें कई लोगों को शक है. दिल्ली ने उनकी जिंदगी के पॉलिटिकल चैप्टर को करीब क्लोज ही कर दिया था. यूपी की नई शुरुआत उनके लिए व्यक्तिगत उपलब्धि का पल है.

उन्हें यूपी के नए कांग्रेस अध्यक्ष बने राज बब्बर का समर्थन रहेगा. इमरान मसूद के तौर पर नए उपाध्यक्ष की मदद मिलेगी. कॉर्डिनेशन कमेटी की लंबी चौड़ी फौज है. जिसमें सभी जाति समुदाय के लोग भरे पड़े हैं.

इस कमेटी के मुखिया की भूमिका में संजय सिंह का होना, अपने आप में रोचक है. अमेठी के राजपरिवार से आने वाले संजय सिंह का पारिवारिक झगड़ा चर्चित रहा है.

कुल मिलाकर ऐसा लग रहा है. कि शीला दीक्षित को बलि का बकरा बनाया गया है. कांग्रेस के नुकसान का भार उन्हें ही उठाना है. पहले की तरह राहुल और प्रियंका को बचाने की कोशिश की गई है.

हालांकि शीला के पास खोने को कुछ नहीं है. जीत या हार, दोनों में वो इतिहास रचने जा रही हैं. उन्हें याद किया जाएगा.

क्योंकि कांग्रेस ने अपनी बरसों की परंपरा तोड़कर चुनाव से ठीक पहले उन्हें सीएम का उम्मीदवार घोषित किया.

उन्हें एक ऐसे इलाके की कमान सौंप दीं. जिसकी पगडंडियों को उनके कदमों की पहचान तक नहीं थी.