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ट्रांसजेंडर समुदाय के लिए 70 बरस बाद भी 'आजादी' का इंतजार

70 साल इस उम्मीद में निकले हैं कि हालात बदलेंगे. आजादी के रोज हम भी इस नफरत, अलग-थलग किए जाने की सोच से 'आजादी' चाहते हैं

Rudrani Chettri Chauhan

सत्तर साल हो गए. हम आजाद भारत में सांस ले रहे हैं. लेकिन अब भी कुछ लोग हैं, जो पूरी तरह आजाद नहीं हैं. आजादी के 70 साल बाद भी उनके लिए हालात बदले नहीं हैं. मैं ऐसे ही एक समुदाय का हिस्सा हूं. किन्नर समुदाय.

जब देश की 70वीं स्वतंत्रता दिवस पर लिखने का मौका मिला तो मेरे लिए तय करना मुश्किल हो गया कि शुरू कहां से करूं. 38 साल पहले मेरे जन्म से, या वहां से जब मेरे बॉयज स्कूल में मुझे लड़की की तरह बर्ताव करने के लिए चिढ़ाया जाने लगा, या तब से जब जिंदगी में नौकरी पाने का संघर्ष शुरू हुआ.


चलिए शुरू से ही शुरुआत करते हैं. मैं 38 साल पहले दिल्ली में एक लड़के के तौर पर पैदा हुई थी. मेरे माता-पिता ने मेरा दाखिला दिल्ली के एक अच्छे बॉयज स्कूल में करवाया. ये जाहिर होने में ज्यादा वक्त नहीं लगा कि मेरा स्वभाव लड़कियों जैसा था. लेकिन मुझे लड़की जैसा महसूस करने की आजादी नहीं थी.

आजाद भारत में आजादी के लिए मेरा संघर्ष तभी से शुरू हो गया था. जैसे-जैसे मैं बड़ी हुई, ये संघर्ष बढ़ता चला गया. स्कूल में लड़के अक्सर मुझे माधुरी दीक्षित बुलाते और हर ताने के बाद मैं लड़कों की तरह बरताव करने की पहले से ज्यादा कोशिश करती. वो बनने की कोशिश करती जो मैं हूं ही नहीं.

अपनी पहचान छिपाना आसान नहीं था. अकसर मेरे मन में ये ख्याल आता था कि जरूर मैंने पिछले जन्म में कोई बुरे कर्म किए होंगे जो आज भगवान मुझे इस तरह सजा दे रहे हैं! लेकिन धीरे-धीरे मुझे अपनी पहचान समझ में आई और मैंने जिंदगी का सामना करने का फैसला किया. जब ऐसा हुआ तो सबसे बड़ी समस्या थी नौकरी. दिल्ली यूनिवर्सिटी से पढ़ाई पूरी करने के बाद भी मैं मनचाहा करियर नहीं चुन पाई. मेरी पहचान मेरे सपनों के आड़े आ गई. क्वॉलिफाइड होने के बाद भी आत्मनिर्भर होने की आजादी मुझे नहीं मिली. ऐसे में किसी भी तरह का फेमिनाइजेशन या लिंग परिवर्तन के बारे में तो मैं सोच भी नहीं सकती थी.

ट्रांसजेंडरों की मदद और उन्हें सशक्त बनाने के उद्देश्य से ट्रस्ट

जब सभी रास्ते बंद हो गए तो मैंने खुद ही बदलाव लाने की ठानी. 2005 में मैंने कुछ लोगों के साथ मिलकर मित्र ट्रस्ट शुरू किया. यह ट्रस्ट ट्रांसजेंडर समुदाय के लोगों की मदद करने और उन्हें सशक्त बनाने के उद्देश्य से बनाया गया. आज पांच हजार से ज्यादा किन्नर इससे जुड़ चुके हैं. मगर सच बताऊं तो इस ट्रस्ट को शुरू करने के बारह साल बाद मुझे लगता है कि जैसे हम लोगों के लिए दिक्कतें कम होने के बजाय बढ़ी हैं.

एक वक्त था जब किन्नरों को धार्मिक तौर पर सम्मान मिलता था. लेकिन आधुनिक समय में नफरत, कलंक, भेदभाव का सामना करना पड़ता है. कई हालात में तो मौत के घाट उतार दिया जाता है. हमारी कम्युनिटी चार हजार साल से ज्यादा पुरानी है. हमें गुड लक का प्रतीक माना जाता रहा है. हमारा आशीर्वाद परिवार को फलने-फूलने में मदद करता है, यह भी माना जाता रहा है. कई सदियों तक हमें समाज में आध्यात्मिक लोगों की तरह देखा जाता रहा. लेकिन आज ऐसा लगता है जैसे हम आगे बढ़ने की बजाय पीछे जा रहे हैं.

जहां लोगों में हमारे लिए स्वीकार्यता बढ़नी चाहिए थी, वो उल्टा घटती जा रही है. भले ही इतिहास में हमें सम्मान मिला हो, लेकिन अब हालात यह हैं कि एक अदद घर मिलना बेहद मुश्किल है. अक्सर होता यही है कि हमें समाज से अलग अपने समुदाय के साथ एक झुंड की तरह रहना पड़ता है. दो साल पहले जब मैंने अलग घर लेना चाहा तो घर खरीदने से पहले मैं सिर्फ एक बार उस सोसाइटी में गई क्योंकि मुझे एहसास था कि अगर वहां के लोगों को भनक पड़ी कि एक किन्नर वहां घर ले रहा है, तो शायद मैं ये घर इतनी आसानी से नहीं खरीद पाती.

हालांकि आज मुझे जानने के बाद वही लोग मुझे पूरी तरह अपना चुके हैं और बेहद सम्मान देते हैं. आज मैं यहां अपने पार्टनर के साथ रहती हूं. लेकिन मैं जानना चाहती हूं कि बाकी आम नागरिकों की तरह मुझे उससे शादी करने की आजादी क्यों नहीं? ये कैसा नियम-कानून है हमारे देश का जो आपके लिए कुछ और है और मेरे लिए कुछ और!

घर से बाहर कदम रखते ही मेरे मसले शुरू हो जाते हैं 

आजादी के 70 साल पूरे होने पर हम बराबरी की बात करते हैं. मगर एक कामयाब प्रोफेशनल होने के बावजूद मैं बाकियों की तरह बच्चा गोद नहीं ले सकती तो मेरे लिए ये बातें बेमानी लगती हैं. आपके लिए ज़िंदगी में बड़े-बड़े मसले होंगे. मेरे मसले तो घर से बाहर कदम रखते ही शुरू हो जाते हैं. बस या टैक्सी लेने से लेकर अस्पताल में भर्ती होने तक. डॉक्टरों को ये नहीं पता कि मुझे कौन से वॉर्ड में भर्ती करें. महिलाओं के या पुरुषों के! उन्हें स्कूल और कॉलेज में मेल और फीमेल के शरीर के बारे में पढ़ाया गया है. हमारी ऐनाटॉमी के बारे में ज्यादातर डॉक्टर जानते ही नहीं.

सफाई से लेकर टॉयलेट तक हर चीज पर ऐड बनते हैं. लेकिन किसी ने आज तक किन्नरों की स्वीकार्यता पर कोई विज्ञापन क्यों नहीं बनाया? मैं अक्सर सोचती हूं कि हाथ धोना ज्यादा जरूरी है या एक जीता जागता इंसान! ये सवाल अक्सर मुझे परेशान करते हैं. महिलाओं की सुरक्षा के बारे खूब चर्चा होती है. हमारी सुरक्षा का क्या? हमें तो हमारे देश का कानून रेप विक्टिम ही नहीं मानता.

15 अप्रैल, 2014 को सुप्रीम कोर्ट ने थर्ड जेंडर के पक्ष में फैसला सुनाया. इसके तहत हिजड़ा समुदाय को पहचान देने की बात हुई. कोर्ट ने केंद्र और राज्य सरकार को दिशा-निर्देश दिए कि वो पुरुष, महिला या तीसरे जेंडर को कानूनी वैधता दें. थर्ड जेंडर कैटेगरी को पहचान देते हुए कोर्ट ने कहा कि जिस तरह पुरुष या महिला के मौलिक अधिकार हैं, वैसे ही अधिकार तीसरे जेंडर के लिए भी हैं.

अदालत के फैसले से ट्रांसजेडर को राजनीतिक और आर्थिक अधिकार मिले. लेकिन भेदभाव और तमाम मुद्दे हैं, जो अब भी वैसे ही हैं. तमाम राज्य ऐसे हैं, जहां सुप्रीम कोर्ट के निर्देश के बावजूद अब तक ट्रांसजेंडर वेलफेयर बोर्ड बनाने की शुरुआत तक नहीं हुई है. हमारी ट्रांसजेंडर कम्युनिटी अब भी सामान्य जीवन जीने से महरूम है.

ये दिक्कतें शिक्षा से शुरू होती हैं. उसके बाद जॉब पाना बेहद मुश्किल होता है. फिर किसी भी ‘आम इंसान’ की तरह जीवन बिताने की तो सोचना भी बहुत मुश्किल है. समाज और लोगों के लिए हम महज आम लोगों का कैरिकेचर हैं. उनके मुताबिक हमें अलग-थलग करने, नफरत करने और खत्म कर देने का अधिकार उनके पास है.

ज्यादातर पुरुष किन्नरों से नफरत करते हैं

मेरा मानना है कि हम पुरुषवादी समाज का हिस्सा हैं. ज्यादातर पुरुष हमसे नफरत करते हैं, क्योंकि उनके लिए कोई भी फेमिनिन, महिला या हमारे जैसे लोग महज एक प्रॉपर्टी की तरह हैं. उन्हें वो सब करने का अधिकार है, जो वह करना चाहते हैं.

आजादी की 70वीं वर्षगांठ पर मैं तीन चीजों से आजादी चाहती हूं. पहला, किसी भी तरह के भेदभाव से आजादी खास तौर से रंग भेद. दूसरा, फॉर्म पर जेंडर बॉक्स से आजादी. क्योंकि अपना लिंग बताते ही हर चीज जेंडर से जुड़ जाती है. लोग आपसे उसी हिसाब से उम्मीद करने लगते हैं. और तीसरा, लोगों की गलत सोच से आजादी. उनकी नफरत से आजादी. लोग किन्नर समुदाय के लिए बहुत गलत सोचते हैं. हम उनकी सोच जैसे नहीं. हम भी आप जैसे ही हैं.

बीते 70 साल इस उम्मीद में निकले हैं कि हालात बदलेंगे. आजादी के रोज हम भी इस नफरत, अलग-थलग किए जाने की सोच से आजादी चाहते हैं.