कहते हैं कि उर्दू ज़बां सीखनी है को इश्क़ कर लीजिए या फिर इश्क़ करना है तो उर्दू सीख लीजिए. मीर, ग़ालिब, ज़ौक़ और दाग़ जैसे तमाम शायरों ने प्रेम के तमाम तरीकों, पहलुओं पर बहुत कुछ लिखा है.
दरअसल उर्दू शायरी की तहजीब रही है कि इशारों में बात करना. हिंदुस्तान में मजबूरी, हालात और तमाम वजहों से प्रेम छुपा कर करने की परंपरा रही है. इसलिए अक्सर उर्दू के शेर मोहब्बत करने वालों के दिल को छूते हैं. वैसे भी कविता पीड़ा से ही निकलती है. कभी ये दर्द अपने दौर की मुश्किलों का यानी ग़म-ए-दौरा होता है, कभी अपनी जान का यानी ग़म-ए-जानां. नज़र डालते हैं उर्दू शायरी के कुछ बेहतरीन अशार और नज़्मों पर.
शायरी की बात हो तो ज़िक्र मीर तक़ी मीर से से ही शुरू होता है.
इब्तिदा-ए-इश्क़ है रोता है क्या
आगे-आगे देखिये होता है क्या
इब्तिदा-ए-इश्क का मतलब है प्रेम की शुरुआत. बाकी तो आप समझ ही गए होंगे.
पत्ता-पत्ता बूटा-बूटा हाल हमारा जाने है
जाने न जाने गुल ही न जाने, बाग़ तो सारा जाने है
इस गज़ल को कई बड़े गायकों ने गाया भी है. इज़हार से पहले की शायरी है ये. मीर ने इश्क को शायरी में बहुत आसान तरीके से परिभाषित किया है.
देख तो दिल कि जां से उठता है
ये धुआं सा कहां से उठता है
इसी ग़ज़ल में आगे शेर आता है.
इश्क इक 'मीर' भारी पत्थर है
बोझ कब नातावां से उठता है
इश्क़ क्या क्या आफ़तें लाता रहा
आख़िर अब दूरी में जी जाता रहा
इश्क़ में कुछ नहीं दवा से नफ़ा
कुढि़ए कब तक न हो बला से नफ़ा
नाज़ुकी उस के लब की क्या कहिए,
हर एक पंखुड़ी गुलाब की सी है.
‘मीर’ उन नीमबाज़ आंखों में,
सारी मस्ती शराब की सी है
ग़ालिब का अंदाज़-ए-बयां
ग़ालिब प्रेम में कुछ जगहों पर आसान होने को मीर से दो कदम आगे लेकर जाते हैं.
दिल-ए-नादां तुझे क्या है
आखिर इस दर्द की दवा क्या है
उन के देखे से जो आ जाती है मुंह पर रौनक़
वो समझते हैं कि बीमार का हाल अच्छा है
ये न थी हमारी क़िस्मत कि विसाल-ए-यार होता
अगर और जीते रहते यही इंतिज़ार होता
विसाल-ए-यार का मलतब है जिससे प्रेम करते हैं उससे मिलन.
मोहब्बत में नहीं है फ़र्क़ जीने और मरने का
उसी को देख कर जीते हैं जिस काफ़िर पे दम निकले
हम को मालूम है जन्नत की हक़ीक़त लेकिन
दिल के ख़ुश रखने को 'ग़ालिब' ये ख़याल अच्छा है
इश्क़ ने 'ग़ालिब' निकम्मा कर दिया
वर्ना हम भी आदमी थे काम के
वैसे ग़ालिब ने मोमिन के एक शेर को लेकर कहा था कि उनका पूरा दीवान एक तरफ और मोमिन का एक शेर एक तरफ
तुम मिरे पास होते हो गोया
जब कोई दूसरा नहीं होता
इन्हीं मोमिन की कही एक और ग़ज़ल बहुत चर्चित है.
वो जो हम में तुम में क़रार था तुम्हें याद हो कि न याद हो
वही यानी वादा निबाह का तुम्हें याद हो कि न याद हो
इसी तरह से वली मोहम्मद वली का भी एक शेर है
जिसे इश्क़ का तीर कारी लगे
उसे ज़िंदगी क्यूं न भारी लगे
प्रेम को लेकर अल्लामा इकबाल ने भी कहा है.
सितारों से आगे जहां और भी हैं
अभी इश्क़ के इम्तिहां और भी हैं
वैसे जिगर मुरादाबादी ने इश्क़ पर बहुत मशहूर बात कही है
ये इश्क़ नहीं आसां इतना ही समझ लीजे
इक आग का दरिया है और डूब के जाना है