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खजुराहो: कामसूत्र का ठप्पा इस जगह की खूबसूरती को खा जाता है!

खजुराहो में टूरिज़्म को अधिक बढ़ावा क्यों नहीं मिला है इसका कोई पुख्ता जवाब नहीं है. मगर कुल मिलाकर इस ऐतिहासिक जगह को कामसूत्र के ठप्पे से इतर जाकर देखने की जरूरत है

Animesh Mukharjee

खजुराहो का नाम लेते ही दिमाग में उसका पूरक शब्द कामसूत्र दिमाग में आता है. देश की तमाम चर्चाओं में प्राचीन भारतीय संस्कृति की उदारता और उदात्ता के उदाहरण देते समय खजुराहो की मूर्तियों के उदाहरण दिए जाते हैं. दुनिया भर में तमाम गुरू और योग गुरू कामा और कर्मा का ज्ञान बांटते हैं. इन्हीं मूर्तियों के चलते तमाम देशी-विदेशी सैलानी खजुराहो आते हैं, जिनसे खजुराहो आर्कियोलॉजिकल सर्वे ऑफ इंडिया (एएसआई) की 10 सबसे ज्यादा मुनाफा कमाने वाली साइट्स में से एक है. लेकिन खजुराहो पहुंचकर लगता है कि कामसूत्र और मैथुनरत मूर्तियों का ठप्पा इस जगह के तमाम आयामों को कांट-छांट दे रहा है. खजुराहो एक ऐसे हीरे की तरह है जिसको सिर्फ एक ओर से तराश दिया गया है, बाकी सतह अनगढ़ रह गई है.


मंदिरों के बीच बसा एक ‘अधार्मिक’ शहर

किसी जमाने में खजुराहो में 85 मंदिर हुआ करते थे. अब यह घटकर लगभग 20 रह गए हैं. इन 20 मंदिरों को 3 हिस्सों में बांटा गया है, पूर्वी, दक्षिणी और पश्चिमी समूह के मंदिर. इनके बीच बसा है खजुराहो. जो बिना किसी टूरिस्ट एटरैक्शन के शायद एक बड़े गांव के बराबर ही हो. लेकिन मंदिरों से घिरा खजुराहो किसी भी तरह से धार्मिक जगह के रूप में विकसित नहीं हुआ. इसकी कामसूत्र की ब्रांडिंग इसके मंदिरों के बाकी पहलुओं को छिपा लेती है. हालांकि जैन तीर्थस्थल होने के कारण खजुराहो में आपको गुजरात और राजस्थान से सपरिवार आए जैन दर्शनार्थी मिल जाएंगे, लेकिन मोटे तौर पर ये जगह न कभी धार्मिक पर्यटन में पहली पसंद बनती है, न पारिवारिक छुट्टियों के लिए एक विकल्प.

अगर किसी को लगता है कि खजुराहो सिर्फ कामुक मूर्तियों से घिरा हुआ एक मंदिरों का समूह है, तो ये महज पूर्वाग्रह है. खजुराहो में कुछ ही मंदिर हैं जिनमें आपको कामसूत्र के पोज़ वाली मूर्तियां मिलेंगी. यहां के मंदिरों में बेहद कलात्मक मूर्तियां हैं और ज्यादातर अश्लील या कामुक नहीं हैं. उत्तर भारत के सबसे बड़े शिवलिंग (12 फीट से ज्यादा) वाला मतंगेश्वर महादेव का मंदिर है. कंदारिया महादेव का प्रसिद्ध और भव्य मंदिर है. और जैन मंदिर हैं.

कंदरिया महादेव का मंदिर (फोटो: अनिमेष मुखर्जी)

कितने ‘काम’ का है खजुराहो

खजुराहो के बाकी पक्षों पर बात करने से पहले उसके सबसे चर्चित पक्ष का जिक्र होना चाहिए. दुनिया के दूसरे मुल्कों से आने वाले सैलानी ‘Land of Kama sutra’ में क्या आशा लेकर आते हैं. हिंदुस्तानियों के लिए ये अनुभव कुछ मामलों में निराश और असहज करने वाला हो सकता है. पूर्वी मंदिरों के बाहर आपको छोटे-छोटे बच्चे कामसूत्र के चित्रों वाली किताब, चाबी के छल्ले बेचते दिख जाते हैं. जिनमें ज्यादातर फूहड़ किस्म के होते हैं.

कुछ समय पहले मध्य प्रदेश सरकार ने इन मंदिरों के बाहर कामसूत्र बेचने पर पाबंदी लगाने की बात कही थी. जिसका सोशल मीडिया पर काफी मजाक भी उड़ा था. इनके अलावा आपको पश्चिमी समूह के दूल्हा देव जैसे मंदिरों में यौन क्रिया में शामिल लोगों की मूर्तियां मिल जाएंगी. इन मूर्तियों में प्रेमी जोड़े हैं. सार्वजनिक और सामूहिक संबंधों को दर्शाती मूर्तियां हैं. जानवरों के साथ अपनी ‘भूख’ मिटाते सैनिक भी हैं. इन सबमें एक बात कॉमन है. इन मूर्तियों में चित्रित स्त्रियां ताकतवर और सबकुछ तय करने वाली हैं.

(फोटो: अनिमेष मुखर्जी)

खजुराहो में मंदिर के बाहर बनीं मूर्तियां क्यों बनीं, इस बात को लेकर कई मत हैं. इनमें से एक दंतकथा है जो कहती है कि चंदेल वंश की शुरुआत, चंद्रमा के एक युवती से बिना विवाह बने संबंध से हुई. और चंदेल राजा ने अपनी मां को सम्मान दिलवाने के लिए ये मंदिर बनवाने शुरू किए. इस कहानी का सच चाहे जो हो मंदिर की मूर्तियां महिला प्रधान हैं, उनमें कलात्मकता तो है ही, हर जगह वही निर्णायक स्थिति में हैं.

मंदिरों से बाहर की दुनिया

खजुराहो सोलो ट्रिप पर जाने वालों के लिए जन्नत की तरह है. सामान्य भारतीय मध्यवर्ग की पारिवारिक हॉलीडे डेस्टिनेशन न होने के कारण यहां अकेले, खुद को तलाश करने निकले लोगों के लिए बेहद सुकून भरी जगह हैं. पश्चिमी मंदिरों से 30 मिनट की दूरी पर रेने फॉल्स नाम का झरना है. लगभग 30 मीटर ऊंचा ये झरना भारत में अपनी तरह का इकलौता झरना है. ज्वालामुखी के फूटने से बने इस झरने में 8 रंगों के पत्थर मिलते हैं. दरअसल गर्म पत्थरों पर जैसे-जैसे पानी पड़ा उनका रंग वैसे ही बदलता गया. यकीन मानिए कि रेने फॉल्स का ये सफर आपको बाहुबली के माहिष्मति साम्राज्य की याद दिला देगा. इसके अलावा यहां पांडव फॉल्स भी हैं.

रेने फॉल्स 

खजुराहो में ज़ॉस्टल जैसे कई बैकपैकर्स के हिसाब से बने खूबसूरत और आरामदेह हॉस्टल हैं जो 300-400 रुपए रोज में रहने की अच्छी व्यवस्था उपलब्ध करवाते हैं. यहीं से आप 250-350 रुपए प्रति व्यक्ति के खर्च पर इन फॉल्स में ट्रैकिंग पर जा सकते हैं. इसके अलावा आसपास आदिवासियों के गांव हैं, कम समय लेकर आए लोग किराए की बाइक या ऑटो से इन गांवों का एक चक्कर लगा सकते हैं, वहीं जिनके पास थोड़ा ज्यादा समय हो वो इन गांवों में कुछ देर ठहर सकते हैं.

ये ट्राइबल गांवों में तमाम समय में ठहरी हुई चीजें, सादगी से दिख जाएंगी. हो सकता है इन गांवों में आपको बिना ब्लाउज के घूमती या नहाती महिलाएं दिख जाएं. अगर ऐसा हो तो उनकी जीवनशैली और निजता का सम्मान और अपनी गरिमा बनाए रखें. और हां, यहां बांस के रेशों से बनी साड़ियां, गहने भी बेहद सस्ते दामों पर मिलते हैं. जिनमें आदिवासी कला की झलक दिखती है.

विदेशियों की पसंद के स्वाद

खजुराहो में रहने पर दो बातें परेशान करती हैं. एक यहां पर गाइड के दाम. सरकार को शायद ये लगता हो कि भारतीयों की रुचि कला, स्थापत्य और मूर्तियों को समझने में नहीं होगी. इसीलिए यहां गाइड का चार्ज विदेशियों के हिसाब से ही रखा गया है. 1700-2000 रुपए के बीच खर्च कर के ही आप पश्चिमी समूह के मंदिरों में गाइड की सुविधा ले सकते हैं. हां, यहां 20 से 100 रुपए के बीच बिकती किताबें जरूर मिल जाएंगी जो आपको इन मंदिरों का मोटा-मोटा इतिहास बता देंगी.

हालांकि यहां पर हमें उम्र का छठा दशक पार कर चुके ए के खरे मिले, जिन्होंने अपनी तरफ से इन मंदिरों को समझने में मदद का ऑफर दिया. खरे जी का दावा है कि वो रघु राय को खजुराहो की फोटोग्राफी में मदद कर चुके हैं. उनका ये भी दावा है कि 8 साल की उम्र में वो डॉक्टर राजेंद्र प्रसाद से भी मिले थे. इन मंदिरों को छतरपुर के महाराज ने सरकार को सौंपा था ताकि सरकार इन धरोहरों की देखभाल कर सके और इन्हें सभी लोग देख सकें. खरे जी की जानकारी को देखते हुए उनके ये दावे सही लगते हैं.

ए के खरे (फोटो: अनिमेष मुखर्जी)

खजुराहो में दूसरी परेशानी खाने को लेकर है. खजुराहो में साल के 8 महीने ही टूरिस्ट आते हैं इसलिए आपको खाने की कम से कम दोगुनी कीमत चुकानी पड़ेगी. दूसरी तरफ आपको या तो जैन तीर्थयात्रियों के हिसाब से बने ढाबे मिलेंगे, जिनमें बिना प्याज-लहसुन वाला मसाला डोसा, सांबर या कुछ भी ऐसा खाने को मिल सकता है. या तमाम होटलों की छतों पर बने रेस्तरां जिनमें इटैलियन, स्पैनिश, इज़रायली, हंगेरियन तमाम तरह की क्वीज़ीन मिल जाएंगे. इनमें मसाले भी विदेशियों के हिसाब से पड़े मिलते हैं.

पश्चिमी मंदिरों के ठीक सामने राजा कैफे है. इसे दो स्विस बहनों ने 70 के दशक के अंत में शुरू किया था. पुराने नीम के पेड़ के इर्द-गिर्द बने इस कैफे की लोकप्रियता दुनिया भर में है. पेड़ के बीच ऊंचाई पर चिड़ियों के साथ बैठकर खाना खाना बेहद खूबसूरत अनुभव है, साथ ही आपको सामने कंदारिया महादेव का भव्य मंदिर दिख रहा होता है. हां, खाने में मसालों की तादाद आपको परेशान कर सकती है. लग सकता है कि सब्जी में नमक तो लगभग है ही नहीं. मगर फिर भी जगह आपको जीवन भर याद रहने वाला अनुभव देती है.

नीम के पेड़ से घिरा राजा कैफे (फोटो: अनिमेष मुखर्जी)

खजुराहो में स्थानीय खाना नहीं बेचा जाता

खजुराहो में कामसूत्र के नाम पर बहुत कुछ बेचा जाता है. एक चीज जो नहीं बेची जाती है वो है स्थानीय खाना. पंजाब में आपको लस्सी, दाल और पराठे मिलेंगे. राजस्थान में लाल मांस से लेकर कैर सांगरी और दाल बाटी तक बहुत कुछ. बिहार का लिट्टी-चोखा और सत्तू के पराठे भी तमाम जगहों पर मिल जाएंगे. बुंदेलखंड का कोई खाना आपको खजुराहो में नहीं मिलेगा. ये समस्या बुंदेलखंड के पूरे क्षेत्र में मिलती है.

महोबा के पान बेहद प्रसिद्ध हैं. पान का ‘काम’ से सीधा संबंध जोड़ा जाता है. बनारस का जर्दा और कलकत्ते का पान, या पलंगतोड़ किमाम जैसी कहावतें सबने सुनी हैं. लेकिन 1 घंटे की दूरी पर बसे महोबा के पान का कोई अंश यहां नहीं दिखता. टूरिज़्म के इस पहलू को क्यों बढ़ावा नहीं मिला है इसका कोई पुख्ता जवाब नहीं है.

खजुराहो पश्चिमी मंदिर पर बनी एक मूर्ति (फोटो: अनिमेष मुखर्जी)

कुल मिलाकर खजुराहो को कामसूत्र के ठप्पे से इतर जाकर देखने की जरूरत है. मंदिरों और स्थापत्यकला की कलात्मकता अपनी जगह है. यहां आपको बनारस के घाट जैसी शांति और एकांत भी मिलेंगे. आदिवासी संस्कृति से दो चार होने का मौका भी मिलेगा. अकेले ट्रैकिंग पर जाने के रोमांचक मौके भी मिलेंगे. कम बजट में अच्छी वीकएंड ट्रिप भी मिलेगी. बस एक पारंपरिक पारिवारिक (बच्चे, मां-बाप, दादा-दादी) वाली छुट्टी की इच्छा न रखें.