'जब ज़ीरो दिया मेरे भारत ने दुनिया को तब गिनती आई.' भारत की बात करने और सुनाने वाले हर शख्स ने ये गाना सुना होगा. इस बात पर भारतीय गर्व करते हैं. गर्व करना भी चाहिए. लेकिन कम ही लोग जानते हैं कि भारत में पहली बार ज़ीरो का लिखित इस्तेमाल कहां हुआ.
मध्यप्रदेश के ग्वालियर में एक छोटा सा मंदिर है. 9वीं शताब्दी के इस चतुर्भुज मंदिर में शून्य का सबसे शुरुआती इन्स्क्रिप्टेड (शिलालेख पर उकेरा हुआ) प्रमाण मौजूद है. इस मंदिर को दुनिया में 'टेंपल ऑफ ज़ीरो' के नाम से भी पहचाना जाता है. वो अलग बात है कि आपको मध्यप्रदेश टूरिज्म के बेहतरीन विज्ञापनों में इसका जिक्र नहीं मिलेगा.
कहां है ये शून्य का मंदिर
ग्वालियर के किले को ‘मान मंदिर’ के नाम से जाना जाता है. लगभग 7 किलोमीटर में फैले इस किले के दो मुख्य दरवाजे हैं. एक दरवाजा शहर की तरफ खुलता है, जिससे ज्यादातर पर्यटक आते-जाते हैं. दूसरी तरफ कम आवाजाही है. इसी तरफ नीचे गूजरी महल और आर्कियोलॉजिकल सर्वे का म्यूज़ियम है. किले के इस दरवाजे के बगल से सीधी चढ़ाई का रास्ता है. इसपर काफी ऊपर जाने पर आपको बोर्ड मिलता टेंपल ऑफ ज़ीरो का. इस बोर्ड से थोड़ी दूर रास्ते से हटकर एक बेहद छोटा सा मंदिर है. मंदिर इतना छोटा है कि इसका अंदर एक आदमी भी मुश्किल से खड़ा हो सके. लेकिन इस मंदिर का आकार गणित और दुनिया के इतिहास में बहुत बड़ा है. मंदिर के बाहर नोट करने वाली एक खास बात है.
इस मंदिर के बाहर आर्कियोलॉजिकल सर्वे ऑफ इंडिया के सारे बोर्ड (हिंदी और अंग्रेजी) कहते हैं कि ‘ग्वालियर क्षेत्र में पहली बार शून्य का पहली बार इस्तेमाल इस मंदिर में हुआ.’ इसका सीधा सा मतलब हुआ कि शून्य का इस्तेमाल दुनिया भर में कई जगह हो रहा था, ग्वालियर में पहली बार यहां पर हुआ. अगर ऐसा है तो इस मंदिर का महत्व काफी कम हो जाता है. तो आखिर सच क्या है?
तो क्या ये सच में शून्य का पहला प्रमाण नहीं है?
नागवंश के इस मंदिर में शून्य का सबसे शुरुआती पत्थर पर खुदा न्यूमैरिक (0 बना हुआ) प्रमाण मिलता है. ये ज़ीरो का वर्तमान स्वरूप है. जैसे आप किसी संख्या के आगे जीरो लगाते जाएं तो हर ज़ीरो के साथ उसका मान 10 गुना होता जाएगा. 10, 100, 1000... इस मंदिर के पहले शून्य के इस्तेमाल का प्रमाण काबुल के आस-पास मिले कुछ भोजपत्रों में मिलता है लेकिन उसमें जीरो का इस्तेमाल आज की तरह नहीं है. उन पत्रों में शून्य का इस्तेमाल अलग तरह से हुआ है.
इसके अलावा कंबोडिया के मंदिरों में कुछ शिलालेख हैं जिनमें ज़ीरो का इस्तेमाल छपा हुआ है. इनको लेकर माना जा रहा है कि ये शून्य के इस्तेमाल के सबसे शुरुआती प्रमाण (ग्वालियर के मंदिर से 100-200 साल पुराने) हो सकते हैं. लेकिन इसके बाद भी चतुर्भुज मंदिर सिर्फ ग्वालियर क्षेत्र में शून्य का सबसे पुराना प्रमाण देने वाला मंदिर नहीं है. ये दुनिया में सबसे शुरुआती इस्तेमाल में से है. जो निश्चित रूप से सरकारों की लापरवाही का शिकार है.
शून्य का ‘आविष्कार’ भारत ने नहीं किया!
कवि की कल्पना गणित के नियमों की तरह नहीं होती. उसमें काफी इधर-उधर जाने की गुंजाइश होती है. हम गीत में कह देते हैं कि जब ज़ीरो दिया मेरे भारत ने दुनिया को तब गिनती आई. ये आधा सच है. शून्य (0) चिह्न का इस्तेमाल प्राचीन समय में भारत, मिस्र और चीन में एक साथ हो रहा था. इनमें से सबसे पहले ये किसने किया पता कर पाना मुश्किल है. लेकिन इनमें से किसी ने भी शून्य के आज के नियम नहीं बनाए थे. ज़ीरो के आज के नियम भारत की देन हैं कि किसी संख्या में ज़ीरो से गुणा करने पर वो ज़ीरो हो जाती है. संख्या में ज़ीरो जोड़ने या घटाने पर उसका मान नहीं बदलता इत्यादि.
यह भी पढ़ें: George Melies: दुनिया की पहली साइंस-फिक्शन फिल्म में चांद तक पहुंचाने वाला जादूगर
शून्य से जुड़े ये नियम ब्रह्मगुप्त की देन हैं. ब्रह्मगुप्त ने शून्य से जुड़े चार नियम दिए उनमें से तीन सही थे. शून्य के आविष्कार से अक्सर लोग आर्यभट्ट का नाम जोड़ देते हैं. आर्यभट्ट ने दशमलव पद्धति के नियम बनाए थे. उन्होंने शून्य का ‘आविष्कार’ नहीं किया. आगे चलकर ये दोनों मिलकर वर्तमान संख्या प्रणाली की नींव बने.
क्यों अदभुत है ज़ीरो की कल्पना?
इंसान ने गिनती प्रकृति से सीखी. एक, दो, तीन से शुरू होकर ये संख्याएं अनंत तक जाती हैं. ऐसे में शून्य की कल्पना करना एक ऐसी संख्या की कल्पना करना है जो है ही नहीं. ये बात शुरुआत में समझना बड़ा मुश्किल थी कि जो चीज़ है ही नहीं उसके लिए एक नंबर क्यों बनाया जाए? अगर बनाया जाएगा तो उससे क्या फर्क पड़ जाएगा?
रोमन इस बात को नहीं समझ पाए. उन्हें 1 से 9 तक गिनती पर्याप्त लगी. इसके आगे 10 लिखने के लिए एक नया प्रतीक (x) बना लिया. 100, 1000 सबके लिए नए प्रतीक बनाते गए. लेकिन समस्या ये कि आदमी कितने प्रतीक याद रखे. अगर 1.058 जैसा कुछ लिखना हो तो क्या करे?
हमारे भारतीय गणितज्ञों की महानता यहीं समझ में आती है. शून्य की कल्पना एक ऐसी संख्या की कल्पना है जो है ही नहीं. लेकिन इसका न होना इसे गणित का जादूगर बनाता है. ज़ीरो को किसी में जोड़ने, घटाने से कोई फर्क नहीं पड़ता है लेकिन किसी गिनती के आगे लगाने से वो बदल जाती है. दशमलव के साथ ये सारे नियम और बदल जाते हैं.
क्या कारण हो सकता है इस उपेक्षा का
अगर पर्यटन की नज़र से देखें तो इस जगह की खासी उपेक्षा होती है. ग्वालियर का किला एक प्रसिद्ध जगह है. लेकिन उसकी चारदीवारी से लगे इस मंदिर तक पहुंचना खासा मुश्किल और मेहनत भरा काम है. आधुनिक पर्यटन किलों, मंदिरों और स्मारकों को देखने तक सीमित नहीं रह गया है. आजकल लोग ‘कम्प्लीट एक्सपीरिएंस’ चाहते हैं. जिसमें रहना, स्थानीय गीत-संगीत, नए तरह का खाना, कम बजट में ज्यादा जगहों पर घूमना. 2 दिन में भी तरोताजा करने वाले अनुभव लेना शामिल होता है.
ग्वालियर इन सबके लिए एक अच्छी जगह हो सकती है लेकिन ऐसा होने के लक्षण दूर-दूर तक नहीं दिखते. ग्वालियर में तानसेन की समाधि है. हिंदुस्तानी संगीत के कद्रदानों के लिए इस जगह को तीर्थ की तरह विकसित किया जा सकता है. जहां भारतीय शास्त्रीय संगीत के विकसित होने की कहानी, रागों की जानकारी मिल सके. तानसेन की समाधि की इमारत इतनी खूबसूरत है कि उसकी डिज़ाइन को कला का प्रतीक बनाया जा सकता है.
इसी तरह शून्य का सबसे पहला प्रमाण इंजीनियरिंग, गणित और विज्ञान के छात्रों को आकर्षित करने के लिए बेहद खास जगह बन सकती है. एक ऐसा म्यूज़ियम बन सकता है जहां आपको संख्या के इतिहास और उसके विज्ञान की जानकारी दी जा सके. संख्याओं से जुड़े कुछ रोचक प्रयोग दिखाए जा सकें. अगर ज़ीरो न होता तो दुनिया कैसी होती? बताया जा सके.
मगर इन सबमें एक समस्या भी है. जब हम गणित के इतिहास की बात करेंगे तो न्यूटन और आइंस्टीन की बात भी करनी होगी. ये भी बताना होगा कि आर्यभट्ट और ब्रह्मगुप्त क्यों महान थे और कहां-कहां पर गलत थे. ऐसा सच बताने में भड़काने वाली महानता और वोट दिलाने वाला विज्ञान पीछे छूट जाएगा. जबकि इतनी मेहनत करने की जगह 30 सेकेंड का खूबसूरत विज्ञापन बनाना आसान है.