एक सामान्य कामकाजी दिन, सुबह 8:45 का वक्त है. प्रतिष्ठित बॉम्बे हाउस की लॉबी में चहल-पहल शुरु हो चुकी है.
टाटा समूह के पुराने कर्मचारी रोज जमशेदजी टाटा की प्रतिमा के आगे सिर झुकाकर अपने दिन की शुरुआत करते हैं.
आज से 15 साल पहले मैंने वहां अपने करियर की शुरुआत की तो उस पवित्र गलियारे की छवि मेरे मन में कैद होकर रह गई.
मेरे जैसे कई लोग टाटा समूह की इस परंपरा का हिस्सा हैं.
टाटा जैसी बड़ी कंपनी जो प्राइवेट सेक्टर में सबसे ज्यादा नौकरी देती है. (ग्लोबल स्टैंडर्ड के अनुसार भी, 2015-16 में इस समूह ने 6,77,556 करोड़ का राजस्व पैदा किया, इसमें से 67.3 फीसदी विदेशी कारोबार से आया.
सूत्र- tata.com ) ऐसी कंपनी के ग्रुप चेयरमैन साइरस मिस्त्री (जिन्हें डिजिटल वर्ल्ड में कंपनी का झंडा बुलंद करने वाला माना जाता है) को विवादास्पद तरीके से बोर्डरूम की लड़ाई के जरिए अचानक निकाले जाने की जरूरत नहीं थी.
खासकर इस बुरे दौर में.
टाटा समूह पहले से ही डोकोमो विवाद सहित कई दूसरे मोर्चों पर उलझा है. ये कंपनी के आईटी बिजनेस को दांव पर लगाने जैसा है.
अचानक इस निष्कासन का सच कोई नहीं जानता. हालांकि न्यूजरूम की बहसों और ट्विटरबाजी पर कई तरह की बातें निकलकर सामने आ रही है.
मसलन, ये क्षमता और प्रदर्शन का सवाल है, टाटा समूह के मूल्यों की लड़ाई है या ग्रुप के दो बड़े शेयरधारकों के बीच बोर्डरूम लड़ाई का नतीजा है.
शुरुआती तौर पर सिर्फ यही कहा जा सकता है कि ये रक्तहीन तख्तापलट नहीं हो सकता. और यही सबसे दुखद पहलू है.
हालांकि मीडिया ट्रायल और लीगल ट्रायल में कारोबार और ब्रांड को मुश्किल दौर से गुजरना होगा.
पब्लिक प्लेटफॉर्म पर इतनी बड़ी कंपनी को सार्वजनिक जांच परख का खामियाजा सहना होगा.
ये कहना कोई बड़ी बात नहीं होगी, कि इस सबसे ग्रुप के विज़न पर असर पड़ेगा, निवेशक, कर्मचारी और शेयरधारक परेशान होंगे.
टाटा ग्रुप के लिए मुश्किल वक्त
कम से कम इतनी कोशिश करनी होगी कि सामान्य बिजनेस प्रभावित न होने पाए. इस पर सबसे ज्यादा जोर देना होगा और व्यक्तिगत स्तर तक जाकर व्यवसायों को संभालने वाले काबिल लोगों को प्रोत्साहित करना होगा.
टाटा समूह बीएसई के कुल बाजार पूंजी के 7.4 फीसदी का प्रतिनिधित्व करता है. ( 6 अक्टूबर 2016 के tata.com के आंकड़ों के मुताबिक ) ग्रुप की चार कंपनियां निफ्टी का हिस्सा हैं. अगर बड़े व्यवसायों को धक्का पहुंचता है तो असर छोटे खिलाड़ियों (सप्लायर्स, वेंडर्स, डिस्ट्रीब्यूटर्स) तक पहुंचेगा.
हालांकि ये कयामत का दिन भी नहीं है. बस टाटा ग्रुप के लिए मुश्किल वक्त है. शायद अब तक का सबसे मुश्किल वक्त. भारतीय कॉरपोरेट के लिए ये हिसाब लगाने का वक्त है.
उत्तराधिकार की उलझनें, संकट के समय कॉरपोरेट गवर्नेंस के साथ पारदर्शिता और नेतृत्व की क्षमता के सिद्धातों को फिर से लिखने का वक्त है.
कॉरपोरेट इंडिया के इतिहास में भरोसेमंद बॉन्ड्स लाने वाले एक ग्रुप को मशक्कत करनी होगी. उसे अपने शेयरधारकों, कर्मचारियों और दूसरे स्टेक होल्डरों को यकीन दिलाना होगा कि वो अब भी भरोसे के काबिल है.
ये साबित करना होगा कि जिस बिजनेस को दशकों की मेहनत से खड़ा किया गया है. वो व्यक्तिगत नुकसानों की भरपाई करने में सक्षम है. ये अपना बेहतर दिन देखने के लिए अभी बढ़ेगा, फलेगा-फूलेगा.
ये साबित करना होगा कि टाटा का ब्रांड और टाटा के मूल्य ऐसे हर तरह के तूफान को झेल जाएगा.
(लेखिका स्ट्रैटेजी कंसल्टेंट हैं, इन्होंने अपने कॉरपोरेट करियर की शुरुआत टाटा एडमिनिस्ट्रेटिव सर्विसेज से किया था)