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दादा ने छिपाया था भगत सिंह को, पोते को 55 साल बाद पता चला जब वो मुजरिम बनकर पहुंचा जेल!

1980 के दशक में देश और दिल्ली में कोहराम का कारण बनी, इसी शख्सियत से. जिसके काले-अतीत की कहानी उसी की मुंहजुबानी के

Sanjeev Kumar Singh Chauhan

‘अंधी और बहरी बनी ब्रिटिश सरकार के कान खोलने को दिल्ली विधानसभा में बम फेंकने की योजना तैयार हो चुकी थी. योजना को अंजाम तक पहुंचाने के लिए, सरदार भगत सिंह दिल्ली में छिपने को जगह तलाश रहे थे. यह बात है अब से करीब 90 साल पहले की. मेरे दादा (बाबा) राजबली सिंह किसी तरह से युवा क्रांतिकारी भगत सिंह के संपर्क में जा पहुंचे. उन्होंने भगत सिंह के छिपने को, किराS का एक मकान दिलवा दिया. पुरानी दिल्ली के सीताराम बाजार में. जग-जाहिर है कि बम फेंकने के साथ ही, भगत सिंह और उनके साथियों ने दिल्ली विधानसभा में इंकलाबी परचे भी फेंके थे. वे तमाम परचे (पम्फलेट) मेरे दादा जी ने ही अपने स्कूल के टाइपराइटर पर छापकर (टाइप करके) भगत सिंह को मुहैया कराये थे.

उस जमाने में राजबली सिंह, पुरानी दिल्ली के चरखावालान (अब नई सड़क) स्थित कामर्शियल स्कूल में शिक्षक थे. सौतेली दादी (राजबली सिंह की दूसरी पत्नी) झंडेवालान इलाके में स्थित एक ‘बम-फैक्टरी’ में काम करते संदिग्ध हालातों में पकड़ी गई थीं! करीब 80 साल से उनका भी कोई पता-ठिकाना किसी को नहीं मालूम. अपने बुजुर्गों के बारे में मुझे ये तमाम सनसनीखेज जानकारियां (कत्ल के मामले में उम्रकैद काट चुका पोता अजय कुमार सिंह), तिहाड़ जेल की ‘काल-कोठरी’ में हासिल हुईं’. करीब 11 महीने के भागीरथ प्रयासों के बाद, ‘संडे क्राइम स्पेशल’ की इस ‘एक्सक्लूसिव-स्टोरी’ में. आपको मैं रुबरु करा रहा हूं, 1980 के दशक में देश और दिल्ली में कोहराम का कारण बनी, इसी शख्सियत से. जिसके काले-अतीत की कहानी उसी की मुंहजुबानी के, चंद हैरतंगेज अल्फाज आपने ऊपर (शुरुआत में) पढ़े हैं.


पालिका-मार्केट की मनहूस खूनी-शाम

‘समय यही कोई शाम के सात-साढ़े सात के बीच का था. उस वक्त मेरी उम्र थी यही कोई 27-28 साल. अब मैं करीब 65 साल का हो चुका हूं. तारीख थी 6 अक्टूबर सन् 1982. यानी अब से करीब 36 साल पहले. कत्ल हुआ था विश्व-विख्यात और दिल्ली का दिल कहे जाने वाले कनाट-प्लेस की भीड़-भरी पालिका मार्केट में. मरने वाला था पालिका बाजार का एक युवा व्यापारी. उस दिन उस व्यापारी या मेरी, दोनों में से किसी एक की खौफनाक-मौत लिखी हुई थी. अगर वो नहीं मारा गया होता तो अब 36 साल बाद, आपको (इस लेखक को) अपना काला-अतीत सुनाने के लिए आज मैं जिंदा नहीं होता. गोली कांड को अंजाम दिया गया था वेब्ले स्कॉट जैसे खतरनाक और मंहगे विदेशी रिवाल्वर से. कत्ल का इल्जाम मढ़ा गया मुझ अदना से डीएवी कॉलेज स्टूडेंट यूनियन के पूर्व प्रेसीडेंट (अजय कुमार सिंह) के सिर. थाना कनाट प्लेस पुलिस ने कानूनी-कागजों में मुझे, रिवाल्वर सहित मौका-ए-वारदात से गिरफ्तार दिखा दिया. हाड़तोड़-पुलिसिया पूछताछ और कोर्ट में पेशी के बाद मुझे तिहाड़ जेल की ‘काल-कोठरी’ में ले जाकर ठूंस दिया गया.’

ज़िंदगी बदल गयी गलियां वही हैं

‘उस काले-दिन को कानूनी-किताबों में दर्ज हुए तीन दशक से ज्यादा का वक्त बीत चुका है. इस दौरान मैंने जवानी के खूबसूरत 18 साल तिहाड़ जेल की दमघोंटू काल-कोठरियों में, जाली लगी जेल-वैन्स में एक अदालत से दूसरी अदालत में धक्के खाते गुजार दिए. अब बुढ़ापे की दहलीज पर खड़ा हूं. उम्र के इस पड़ाव पर, अतीत की फटी-पुरानी किताब के पीले पड़ चुके पन्ने पलटकर, उन्हें पढ़ने का हौसला अब बाकी नहीं बचा है मुझमें. बाकी बची जिंदगी पत्नी, पुत्र-पुत्रवधूओं, पोता-पोती के साथ, गुजारने की जद्दोजहद में मशरूफ हूं. पुरानी दिल्ली के भीड़ भरे हौजकाजी इलाके की आड़ी-तिरछी भूल-भुल्लैया सी. छोटे-छोटे घुमाव वाली संकरी गलियों में. 5-10 साल की उम्र में इन्हीं गलियों में. कभी मैं भी खेला करता था. मुहल्ले के बच्चों के साथ. लुका-छिपी का खेल. गाय के चंचल बछड़े की सी, ऊंची-ऊंची कुलांचें मारते हुए. यह अंधेरी गलियां आज भी गवाह हैं मेरे हसीन बचपन की.’

100 साल पहले लाहौर से दिल्ली वाया बलिया

राजबली सिंह का जन्म 1900 सदी के शुरुआती दिनों में लाहौर में हुआ था. कालांतर में राजबली लाहौर के डीएवी कॉलेज में शिक्षक की नौकरी करने लगे थे. सन् 1920 के आसपास दादा राजबली सिंह युवावस्था में ही, लाहौर (पाकिस्तान) से भारत चले आए. यहां उन्होंने बनारस हिंदू विश्वविद्यालय (बीएचयू) में पढ़ाना शुरू कर दिया. भारत में राजबली सिंह उत्तर-प्रदेश के बलिया जिले की तहसील बांसडीह के हालपुर गांव में बस गए. पांच भाइयों में चार ज़मींदारी-खेती-किसानी से जुड़ गए. इकलौते राजबली सिंह शिक्षक बन गए. राजबली सिंह ने दो शादी की थीं. उनके तीन संतान विजय सिंह, शंकर सिंह और शांति देवी (बेटी) हुईं. 1925-26 के आसपास राजबली का बड़ा बेटा विजय जब बहुत छोटा था, तभी वे परिवार को दिल्ली ले आए. कालांतर में राजबली सिंह की पहली पत्नी का देहांत हो गया था.

अजय सिंह के माता-पिता.

राजघराने में पाला ‘कुलदीपक’!

दिल्ली पहुंचते ही बच्चों की परवरिश के लिए राजबली सिंह ने दूसरी शादी चंद्रवती उर्फ प्रकाशवती से कर ली. यहां उल्लेखनीय है कि, राजबली सिंह का बड़ा बेटा विजय सिंह (कालांतर के सजायाफ्ता मुजरिम अजय कुमार सिंह के पिता) एक राजघराने में रखकर बड़ी ही शान-ओ-शौकत से पाला-पोसा गया था. वो राजघराना किस हिंदुस्तानी रियासत और राजा का था? अब इस सवाल का जवाब देने वाला फिलहाल कोई इंसान जीवित नहीं है. दिल्ली पहुंचने पर राजबली सिंह सन् 1935 तक पुरानी दिल्ली के चरखेवालान इलाके में स्थित कमर्शियल स्कूल में पढ़ाते रहे. अब यह स्कूल दरियागंज इलाके में चल रहा है. 1935-36 के आसपास मानसिक स्थिति बिगड़ जाने पर राजबली सिंह का परिवार बदहाली के कगार पर पहुंच गया.

झंझावातों से जिंदगी हुई जहन्नुम

पिता राजबली सिंह की बिगड़ी मानसिक हालत ने परिवार की जिंदगी जहन्नुम बना दी. विपरीत हालातों में परिवार के पालन-पोषण का जिम्मा आ पड़ा मात्र 18 वर्षीय विजय सिंह के कंधों पर. मजबूरीवश विजय सिंह 18 साल की ही उम्र में भारतीय सेना में भर्ती हो गए. यह बात है सन् 1939-40 के आसपास की. परिस्थितिवश विजय सिंह को दो साल बाद ही सन् 1942 में फौज की नौकरी छोड़नी पड़ गई. सन् 1953 में विजय सिंह ने दादा राजबली के दोस्त प्यारे लाल की बेटी चंद्रकांता से शादी कर ली. कालांतर में विजय सिंह-चंद्रकांता से तीन बेटे, अजय कुमार सिंह (1980 के दशक में जिसके माथे पर दिल्ली के पालिका मार्केट में कत्ल का इल्जाम लगा), संजय सिंह (1993 में मृत्यु हो चुकी) और दिनेश सिंह (पुरानी दिल्ली के चाबड़ी बाजार में पिता का पुश्तैनी कारोबार संभाल रहे) का जन्म हुआ.

हर पन्ने पर खून के छींटे!

मैं ‘संडे क्राइम स्पेशल’ की इस एक्सक्लूसिव-किश्त में. विजय और चंद्रकांता के बड़े पुत्र अजय कुमार सिंह के, ‘इंसानी-खून’ में सराबोर कलम से लिखे. खौफनाक अतीत के फटे-पुराने पन्नों पर मौजूद. बदरंग इतिहास को आपके सामने दोहराने, आपको पढ़ाने की कोशिश कर रहा हूं करीब चार दशक बाद. एक सजायाफ्ता मुजरिम का, बिना कोई ‘महिमा-मंडन’ किए. महज उसकी वो मुंहजुबानी, आप तक लाया हूं जो, शायद ही आपसे सहयोगी हमारे जागरूक-पाठकों में से, किसी ने जमाने में इससे पहले कभी-कहीं सुनी-पढ़ी होगी. यहां उल्लेखनीय है कि दिल्ली के भीड़ भरे पालिका मार्केट में. अब से करीब 36 साल पहले (6 अक्टूबर सन् 1982 की शाम) खेली गई खूनी-होली का, जीते-जी न मिटने वाला ‘कलंक’ लगा था. डीएवी कॉलेज (दिल्ली विवि) के पूर्व प्रेसीडेंट अजय कुमार सिंह के माथे पर. वो कलंक जिसने बीते कल में, एक होनहार युवा को सजायाफ्ता (कातिल) मुजरिम साबित करा दिया.

जानता था ‘फांसी’ की सजा मिलेगी!

फांसी के तख्ते पर चढ़ने से बचे मगर, बहैसियत उम्रकैद के सजायाफ्ता मुजरिम, 18 साल तिहाड़ जेल की काल-कोठरी में गुजारकर बाहर आए, अजय कुमार सिंह की ही मुंहजुबानी, ‘अदालत में केस की दशा-दिशा से मैं समझ चुका था कि विरोधी पक्ष के वकील मुझे आज नहीं तो कल. फांसी के फंदे पर चढ़वाकर ही चैन लेंगे. कत्ल का मुजरिम साबित होते ही, उस दिन का भी ऐलान कर दिया गया, जिस दिन (24 मई सन् 1996) एडिश्नल सेशन जज एच.पी.एस. चौधरी द्वारा मेरी सजा का एलान किया जाना था. मैं जानता था कि, मुझे 'फांसी' की सजा ही मुकर्रर होगी. कई महीने के ‘भागीरथ’ प्रयासों के बाद. इन्हीं अजय कुमार सिंह को मैंने (कहानी लेखक) राजी किया. ‘फ़र्स्टपोस्ट हिंदी’ के पाठकों के सामने. बुरे वक्त की तूफानी हवाओं की जद में आकर, जिंदा ही ज़मींदोज (दफन) हो चुकी. जवानी की हसीन हसरतों के नेस्तनाबूद होने की, रुह कंपा देने वाली सच्ची कहानी. उनकी खुद की ही ‘मुंहजुबानी’ सुनाने के लिए.

दुश्मन को भी ये दिन न दिखाये ईश्वर...36 साल पहले सन् 1984-85 में (नीली जैकेट में) सीधे हाथ में हथकड़ी पहने हुए मौसा और छोटे भाई के साथ कोर्ट कचहरी के कागजात देखते अजय कुमार सिंह.

उस दिन पत्नी को कोर्ट नहीं बुलाया क्योंकि...

‘सजा सुनाए जाने वाले दिन से पहले ही मैंने, पत्नी कंचन तोमर को कह दिया कि सजा सुनाए जाने वाले दिन वो कोर्ट में न आए. मैं जानता था कि, कंचन मुझे सुनाई जाने वाली 'सजा-ए-मौत' का सदमा बरदाश्त नहीं कर सकेगी. हुआ भी वही. अदालत ने 575 पेज के भारी-भरकम फैसले के भीतर लिख दी मेरे नाम फांसी.’ बकौल अजय सिंह, ‘पालिका बाजार हत्याकांड में मुझ सहित 5 लोगों को मुलिजम बनाया गया था. ट्रायल के दौरान एक की मौत हो गई. बाकी बचे चार में से तीन मुजरिमों को कोर्ट ने आजीवन-कारावास और अकेले मुझे सजा-ए-मौत सुना दी. जेल की काल-कोठरी में अकेला मैं ही बंद रह गया. क्योंकि बाकी तीन साथी मुजरिम, उम्रकैद की सजा पाने के बाद भी जमानत पर जेल से बाहर आ गए थे.’ अतीत के पन्नों पर इंसानी खून से लिखी, तमाम इबारतें पढ़कर सुनाते हैं. मौत के मुंह से निकल आए अजय कुमार सिंह.

मुंसिफ ने ‘मौत’ को लिखा ‘जिंदगी’!

कत्ल के जुर्म में दिल्ली की सेशन कोर्ट (पटियाला हाउस) ने अजय सिंह को फांसी की सजा मुकर्रर की थी. कई साल तक कानून की फाइलों, थाने-पुलिस-कोर्ट-कचहरी की गलियों, खचाखच भरी अदालतों में देश के नामी-गिरामी वकीलों के अजीब-ओ-गरीब ‘तर्क-कुतर्कों’ (बहसों) के बीच झूलते रहने वाले, इस सनसनीखेज मामले में मिली सजा-ए-मौत को अगस्त 1998 में दिल्ली हाईकोर्ट ने, ‘उम्रकैद’ में तब्दील कर दिया. ‘रेयर-ऑफ-रेयरेस्ट’ की श्रेणी में न मानते हुए. इस तरह बड़ी अदालत (दिल्ली हाईकोर्ट) के मुंसिफ (जज) से हासिल ‘अभयदान’ ने कत्ल के सजायाफ्ता मुजरिम, अजय कुमार सिंह को मौत के फंदे पर टंगने से कर लिया महफूज. 18 साल की ब-मशक्कत उम्रकैद तिहाड़ जेल की सलाखों में काटने के बाद. 5 मई 2000 को अजय सिंह ‘काल-कोठरी’ से बाहर निकल आए थे.

हिरासत के दौरान अपनी पत्नी से बातचीत करते अजय सिंह.

कत्ल किया है भुगतना तो पड़ेगा!

‘पालिका बाजार हत्याकांड में मेरी गिरफ्तारी के वक्त कनाट प्लेस थाने के एसएचओ थे इंस्पेक्टर ठाकुर कंछी सिंह (रिटायर्ड एसीपी). सुना है कंछी सिंह साहब अभी भी जीवित हैं. जब थाने में मैं पहुंचा तो, उन्होंने साफ कह दिया कि, कत्ल किया है तो भुगतो. जबकि मैं उन्हें मौका-ए-वारदात की हकीकत बताना चाह रहा था.’ बताते हैं अजय सिंह. इस संवाददाता ने नई दिल्ली स्थित निवास पर 90 साल से ज्यादा उम्र के हो चुके ठाकुर कंछी सिंह को भी तलाश लिया. बकौल ठाकुर कंछी सिंह, ‘हां, उस हत्याकांड ने दिल्ली को दहला दिया था. बाद में पड़ताल दिल्ली पुलिस क्राइम ब्रांच इंस्पेक्टर कुलपाल राय मेहता को सौंप दी गयी थी. दिल्ली पुलिस ने उसमें लाजवाब तफ्तीश की थी. उम्दा पड़ताल की बदौलत ही उस मामले में, अजय कुमार सिंह उम्रकैद की सजा हो पाई थी.’

जेल से थी पुरानी जान-पहचान

अजय कुमार सिंह ने सलाखों में रहते हुए ही ग्रेजुएशन की पढ़ाई की. जिंदगी में तूफान ला देने वाली पालिका मार्केट हत्याकांड की घटना से पहले भी अजय सिंह की जान-पहचान तिहाड़ जेल की काल-कोठरी और वहां की आब-ओ-हवा से हो चुकी थी. दौरान-ए-आपातकाल (इमरजेंसी) अजय सिंह को पुलिस ने गिरफ्तार करके तिहाड़ जेल में डाल दिया था. यह बात है दिसंबर 1975 की. सरकार को अंदेशा था कि, उस जमाने में डीएवी कॉलेज (दिल्ली) प्रेसीडेंट होने के नाते अजय कोई भी बवाल करा सकते हैं. अजय को डिफेंस ऑफ इंडिया रुल्स (DIR) की धारा/सेक्शन-33 के तहत गिरफ्तार किया गया था. तब अजय दिल्ली विश्वविद्यालय स्टूडेंट यूनियन की एक्जीक्यूटिव-बॉडी के सक्रिय मेंबर भी थे. बकौल अजय सिंह, ‘20 दिन जेल में बंद रहा. जमानत होते ही पुलिस दुबारा कोर्ट से ही मुझे ‘मीसा’ (मेंटिनेस ऑफ इंटरनल सिक्योरिटी एक्ट) में गिरफ्तार कर चाहती थी. मैं किसी तरह मगर दोबारा गिरफ्तारी से बच निकला.’

शादी के वक्त भी तलाश में थी पुलिस!

फरवरी सन् 1977 में मैनपुरी (उत्तर प्रदेश) निवासी कंचन सिंह तोमर से अजय सिंह की शादी हुई. कालांतर में अजय और कंचन के यहां दो बेटों (करुणेश सन् 1977 में और वरुणेश 1981 में) का जन्म हुआ. करीब 41 साल पुरानी जिंदगी की खट्टी-मीठी तमाम यादों को बेबाकी से सुनाते हुए बताते हैं अजय सिंह, ‘जब शादी तय हुई उस वक्त इमरजेंसी लगी हुई थी. स्टूडेंट लीडर होने के नाते पुलिस मेरी तलाश में घूम रही थी. उन दिनों भी मेरी गिरफ्तारी के वारंट निकले हुए थे. पता नहीं जेल की रोटी क्यों हमेशा मेरे मुंह में पहुंचने को उतावली रहती थी.’ बताते हुए आज खूब हंसते हैं अजय कुमार सिंह.

‘बम-फैक्टरी’ में पकड़ी गईं दादी गायब!

दादा राजबली सिंह, सरदार भगत सिंह के सहयोगी, दिल्ली में करीबी शरणदाता और क्रांतिकारी थे. इस रहस्य से पर्दा भी तिहाड़ जेल की सलाखों के अंदर ही उठा. बकौल अजय कुमार सिंह, ‘बात है सन् 1983-84 की. तिहाड़ जेल में मौजूद लाइब्रेरी से मैंने पढ़ने को एक किताब ली. उसके लेखक थे विश्वनाथ वैशंपायन (वैशंपायन क्रांतिकारी). उन्हीं की उस किताब में उल्लेख था कि, राजबली सिंह (जोकि मेरे दादा थे) ने ही, दिल्ली विधानसभा में बम फेंके जाने से पहले, दिल्ली में छिपने के वास्ते सरदार भगत सिंह को गुप्त स्थान (किराए का मकान) का इंतजाम सीताराम बाजार में किया था. किताब से ही खुलासा हुआ कि, मेरी सौतेली दादी (राजबली सिंह की दूसरी पत्नी) चंद्रवती या प्रकाशवती (नाम ठीक से याद नहीं) 'बम-फैक्टरी' से पकड़ी गई थीं! यह बम-फैक्टरी झंडेवालान इलाके में कॉस्मेटिक सामान बनाने की आड़ में चल रही थी. तब से आज तक भी उनका कोई पता-ठिकाना किसी को नहीं मालूम.’

(लेखक वरिष्ठ स्वतंत्र खोजी पत्रकार हैं. कहानी अजय कुमार सिंह के बयानों पर आधारित है. लेखक और फ़र्स्टपोस्ट हिंदी, किसी बयान की तसदीक नहीं करता है)

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