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लेना एक न देना दो: जब एक IPS बन गया 3 हजार अनाथों का ‘नाथ’!

जिला पुलिस कप्तान की उस पहली मीटिंग में, ढाबों पर काम करने वाले बच्चों को मंजिल तक पहुंचाने के ‘आइडिया’ ने, मौजूद मातहत/शागिर्दों के दिल-ओ-जेहन में सन्नाटा छा दिया

Sanjeev Kumar Singh Chauhan

कभी ऐसे ‘ऑपरेशन’ का चर्चा-जिक्र देखा-सुना है जमाने में जिसमें, न कोई डॉक्टर-सर्जन शामिल रहा हो. न ही ऑपरेशन-थिएटर का इस्तेमाल हुआ हो. और तो और मैं जिक्र करने जा रहा हूं ऐसे अविश्वसनीय ऑपरेशन का जिसमें दवा-गोली, इंजेक्शन या फिर कैंची-चाकू जैसे औजारों का दूर-दूर तक नाम-ओ-निशान तक नहीं था. ताज्जुब की बात यह कि, इसके बावजूद भी मैं, ‘संडे क्राइम स्पेशल’ की इस विशेष-किश्त में जिस ‘ऑपरेशन’ की बात करने जा रहा हूं वो, सात समंदर पार भी चर्चित हुआ. कहने को ‘ऑपरेशन’ और ‘सर्जन’ के नाम से इंसान की रूह कांप जाती है. इस अजूबे ‘ऑपरेशन’ को मगर नाम मिला ‘ऑपरेशन-स्माइल’. आखिर क्या है ‘ऑपरेशन-स्माइल’ का सच?

इससे पहले यह जानना आवश्यक होगा कि, जमाने भर को हैरत में डाल देने वाले इस ‘ऑपरेशन’ को सिर-ए-अंजाम चढ़ाने वाला. कोई क्वालिफाइड सर्जन नहीं था. इसे मुकाम तक पहुंचाया है भारतीय पुलिस सेवा (इंडियन पुलिस सर्विस) के एक आला-आईपीएस अफसर ने. जिसका चीर-फाड़ और ‘ऑपरेशन’ की दुनिया से दूर-दूर तक कभी कोई वास्ता नहीं रहा? आखिर क्या है मानवीय संवेदनाओं की चाशनी में डूबी मर्म-स्पर्शी ‘ऑपरेशन-स्माइल’ की कहानी का सच?


बर्तन धोने वाले नौनिहाल अनाथक्यों?

बात है अगस्त-सितंबर सन् 2014 के आसपास की. उन दिनों गाजियाबाद जिले के वरिष्ठ पुलिस अधीक्षक के पद पर तैनात थे यूपी कैडर 2006 बैच के एक आईपीएस. जिनका पूरा जिक्र इसी कहानी में आगे कहीं न कहीं पाठकों को जरूर पढ़ने को मिलेगा. हाईटेक शहर होने के नाते गाजियाबाद जिले के एसएसपी का चार्ज संभालते ही अमूमन एसएसपी थाने-चौकी, शहर की कानून व्यवस्था सुधारने-संभालने में और ‘कमाऊ थाने-चौकी’ खंगालने में जुट जाते हैं! 2006 बैच के इस आईपीएस के दिमाग में शहर में शांति बनाए रखने के साथ-साथ एक और भी सवाल कौंध रहा था. वह था आखिर देश की राजधानी के माथे पर मौजूद होने के बावजूद गाजियाबाद जिले की सरहद में होटलों-ढाबों-रेहड़ी-खोमचों पर बर्तन धोने वाले बच्चों की भीड़ क्यों है?

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मई-जून की जानलेवा तेजाबी-तपिश और दिसंबर-जनवरी में हाड़ कंपा देने वाली शीत-लहर में बिना गरम कपड़े पहने. या फटे-पुराने कपड़ों में ठिठुरते बदन बर्तन धोने वाले नौनिहालों के मां-बाप या फिर उनका नियमित ठौर-ठिकाना आखिर कहां है? इस सवाल ने शहर के नवागंतुक एसएसपी को सिरदर्दी देने के बजाए.....सवाल का सार्थक जवाब तलाशने के लिए ‘उकसाने’ जैसा काम किया.

इंटरपोल (लियोन) में भारत का प्रतिनिधित्व करने पहुंचे 'ऑपरेशन स्माइल' के जनक यूपी कॉ़डर 2006 बैच के आईपीएस धर्मेंद्र सिंह

सवाल से भारी-भरकम मुश्किलों के पहाड़

पुलिस कप्तान के जेहन में जद्दोजहद कर रहा सवाल जितना जायज था. उसका जबाब पाना उतना ही कठिन था. करीब 7-8 साल की आईपीएस की नौकरी करने के दौरान वे जान-समझ चुके थे कि, उनके सवाल का जबाब उन्हें ही खोजना होगा. पुलिस महकमे के मातहतों या फिर समकक्ष अन्य किसी आईपीएस के सामने सवाल रखेंगे तो जबाब में.... ‘ढाबे के बच्चों की ठेकेदारी करना पुलिस का काम नहीं है. पुलिस वाले अपने इलाके में ही शांति कायम करा लें वही बहुत है...’ इसके अलावा कुछ और हासिल होना ना-मुमकिन है. लिहाजा शहर पुलिस-कप्तान (SSP) खुद ही जुट गए समस्या के समाधान और अपने सवाल का जबाब तलाशने में.

उद्देश्य ‘निस्वार्थ’ और चाहत ‘ईमानदार’ हो तो फिर, जमाने में कोई ऐसा पत्थर नहीं बना जो, इंसान के बढ़ते कदमों को बढ़ने से रोक सके. ‘ढाबे पर काम करने वाले गरीब-अनाथ बच्चों को उनके परिवार या माता-पिता से मिलाने की प्राथमिकता पुलिस की डायरी में दर्ज न हो... भले ही बाकी तमाम मसरूफियतों के चलते लावारिस बच्चों के प्रति पुलिस की कोई पहली प्राथमिकता न हो. इन तमाम तर्क-कुतर्कों से ऊपर लेकिन, बहैसियत एक आईपीएस शहर पुलिस कप्तान की पहली जिम्मेदारी यह भी है कि, उसकी हद में कोई परेशान न रहे. ऐसे में सवाल जब मासूम बच्चों का हो तो, भला वो कौन इंसान होगा जो, दिल पर पत्थर रखकर बैठा रहेगा! अंतत: बिना आगे-पीछे की कुछ सोचे-समझे नए-नए कप्तान साहब ने जिले के मातहतों को बैठक में तलब कर लिया. इस उम्मीद में कि, एक नायाब कोशिश करते हैं... अनजाने से ‘अंजाम’ को भविष्य के गर्भ में ही पड़ा हुआ समझकर.’

सब समय-समय की बात है...शुरु में बबाल-ए-जान लगने वाले 'ऑपरेशन स्माइल' को दुनिया भर में हासिल अभूतपूर्व सफलता ने गाजियाबाद पुलिस के चेहरे खिला दिये

लोग साथ आते गए और कारवां बनता गया...

जिला पुलिस कप्तान की उस पहली मीटिंग में, ढाबों पर काम करने वाले बच्चों को मंजिल तक पहुंचाने के ‘आइडिया’ ने, मौजूद मातहत/शागिर्दों के दिल-ओ-जेहन में सन्नाटा छा दिया. उस्ताद (SSP) के सामने बोलने की हिमाकत/हिम्मत तो किसी की नहीं हुई. दबी-जुबान मगर अधिकांश के दिल-ओ-जेहन में सवाल था कि, ‘सिर पर आन पड़ी इन अनाथ बच्चों को उनके मां-बाप तक पहुंचाने की आफत से कैसे निजात मिलेगी? थाने-चौकी की नौकरी करें! कोर्ट-कचहरी के चक्कर लगाएंगे या फिर अनाथों के ‘नाथ’ बनने के फेर में खुद का चैन हराम करें!’ मातहतों ने चूंकि कभी ‘उस्ताद’ के स्तर का सोचा ही नहीं था.

सो उन्हें ना-गवार गुजरना लाजिमी था. उस्ताद यानी एसएसपी का चूंकि मकसद बेहद साफ था. इसलिए उन्होंने बिना किसी लाग-लपेट के, मातहतों को काम पर जुटा दिया. शुरुआत में मुश्किलें आनी थीं सो आईं. धीरे-धीरे एक दिन वो भी वक्त आ गया जब, ढाबों पर काम करने वाले गरीब बच्चों के माता-पिता की तलाश में शुरू किए गए ‘ऑपरेशन-स्माइल’ में जुड़ने के लिए गाजियाबाद जिले में तैनात पुलिस वालों की भीड़ जिला पुलिस मुख्यालय पर जुटनी शुरू हो गई. देर से ही सही मगर जेहन में उठे हैरतंगेज सवाल के माकूल जबाब को मिलता देख, जिला पुलिस कप्तान को मजरूह सुल्तानपुरी के लिखे बेशकीमती अल्फाज अक्सर याद आने लगे...

‘मैं अकेला ही चला था जानिब-ए-मंज़िल मगर,

लोग साथ आते गए और कारवां बनता गया....’

इसलिए नाम रखा ‘ऑपरेशन-स्माइल’...!

अभियान चूंकि लंबे समय से बिछड़े और बे-सहारा बच्चों को कई साल बाद उनके अपनों से मिलाकर उन्हें, बेइंतहा खुशियां परोसने का था. लिहाजा इस अभूतपूर्व आइडिया के ‘जनक’ जिला पुलिस कप्तान ने अभियान को नाम दिया ‘ऑपरेशन-स्माइल’. ‘फ़र्स्टपोस्ट हिंदी’ के पाठकों की समझ में अब भली-भांति आ चुका होगा कि, आखिर क्या था ‘ऑपरेशन-स्माइल’. जो था तो ‘ऑपरेशन’, मगर उसमें न कोई क्वालिफाइड सर्जन-डॉक्टर शामिल था. न ही इस अद्भुत ऑपरेशन में कभी किसी चीर-फाड़ या फिर सर्जरी के लिए औजारों का ही इस्तेमाल करना पड़ा. यह सब था, नेक-काम के लिए किसी आईपीएस अधिकारी के जेहन में जन्मे सवाल का अभूतपूर्व और अविस्मरणीय जबाब. वो जबाब जिसका आज जमाना कायल है. हिंदुस्तान ही नहीं वरन्, जिसकी शोहरत/चर्चा हुई हमारी सरहदों यानी सात समुंदर पार भी. दुनिया की महाशक्ति अमेरिका और भारत के धुर-विरोधी पाकिस्तान की सर-जमी तक पर.

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सबकुछ वैसा नहीं होता जैसा लोग सोचते हैं

अमूमन समाज में कोई अच्छी या बुरी चीज ज्यादा समय तक इंसानी जेहन या याददाश्त में मौजूद नहीं रहती है. कुछ वक्त बाद ही तमाम स्मृतियां धूमिल हो जाती हैं. इंसानी दुनिया में नायाब साबित हुआ ‘ऑपरेशन-स्माइल’ मगर, इस सबसे भी खुद को महफूज रखने में कामयाब रहा. सिवाए इसके कि, हिंदुस्तानी अवाम के साथ-साथ जब देश के हुक्मरानों की देहरियों पर पहुंचकर ‘ऑपरेशन-स्माइल’ ने अपने कदमों की आहट का अहसास कराया तो, उन्होंने कालांतर में ‘ऑपरेशन-स्माइल’ के नाम में आमूल-चूल परिवर्तन करके उसे ‘ऑपरेशन-मुस्कान’ कर दिया. ताकि देश और दुनिया में नजीर कायम करने वाला ऑपरेशन-मुस्कान सदैव जमाने वालों के बीच सिर्फ और सिर्फ. निरंतर अनाथ बच्चों और उनके बिछड़े हुए अपनों के चेहरों पर ‘मुस्कान’ बिखेरने में मिसाल कायम करता रहे.

पाकिस्तान में भी मुस्कराया ऑपरेशन-स्माइल

पाकिस्तान (इस्लामाबाद) में आयोजित सार्क-सम्मेलन में भी ‘ऑपरेशन-स्माइल’ अपनी मुस्कान बिखेर आया. ‘ऑपरेशन-मुस्कान’ का जिक्र केंद्रीय गृहमंत्री राजनाथ सिंह ने वहां (इस्लामाबाद, पाकिस्तान में आयोजित सार्क सम्मेलन में) भी किया. इतना ही नहीं इससे पहले इस हैरतंगेज ऑपरेशन को अंजाम तक पहुंचाने वाले इस जुझारु मगर जिद्दी आला-आईपीएस से जनवरी 2015 में केंद्रीय गृह-सचिव ने भी मुलाकात की. उन्हीं दिनों तय हुआ था कि,‘ऑपरेशन स्माइल’ को ‘ऑपरेशन-मुस्कान’ के नाम से देश के कोने-कोने में पहुंचाया जाए. अब तो बाकायदा इस नेक ‘ऑपरेशन’ के वास्ते राज्य सरकारों ने भी विशेष-बजट का अनुमोदन कर दिया है.

बाल अपराध और मानव तस्करी पर बोलते हुए भारत में अमेरिकी दूतावास की महिला अधिकारी के साथ गाजियाबाद के क्षेत्रीय पासपोर्ट अधिकारी आईपीएस धर्मेंद्र सिंह

मर्मसमझने अमेरिका से गाजियाबाद आ पहुंचे

ज्यों-ज्यों वक्त गुजरा त्यों-त्यों कालांतर में ‘बोझ’ सा लगने वाला ‘ऑपरेशन-स्माइल’ वक्त के साथ-साथ परवान चढ़ता गया. बेदह ‘बोर’ समझे जाने वाले ‘कदम’ को कामयाबी हासिल हुई तो, कारवां में शामिल होने वालों की तादाद भी बढ़ती गई. अनुमानित आंकड़ों के मुताबिक, अब तक देश में बजरिए ‘ऑपरेशन-मुस्कान’ करीब 80 हजार से ज्यादा बिछुड़े हुए बच्चों को उनके अपनों से मिलवाया जा चुका है. इतना ही नहीं अमेरिका की टेक्सस यूनिवर्सिटी के 15-20 छात्रों का दल गाजियाबाद ही पुहंच गया. यह जानने और समझने के लिए कि आखिर, ‘ऑपरेशन-मुस्कान’ की कामयाबी का ‘मूल-मंत्र’ क्या है? साल 2015 में यूनाइटेड नेशन्स ने ‘ड्रग्स एंड क्राइम’ पर कॉन्फ्रेंस का आयोजन किया. जिबूती (DJIBUTI) में आयोजित उस विशेष-कॉन्फ्रेंस में हिंदुस्तानी हुकूमत ने, ‘ऑपरेशन-स्माइल’ के ‘जनक’ यूपी कैडर के इसी सूझबूझ वाले आईपीएस को शिरकत और भारत का प्रतिनिधित्व करने की जिम्मेदारी सौंपी.

गाजियाबाद का गजब’, इंटरपोल की ड्योढ़ी पर!

छोटे शहर की बात बड़े शहरों या देशों तक पहुंचा पाना टेढ़ी खीर साबित होता है. ऑपरेशन स्माइल इस मामले में भी खुश-किस्मत साबित हुआ. सन् 2018 में कोलकता स्थित अमेरिकी सेंटर में अमेरिकन काउंसलेट जनरल ने ‘ऑपरेशन स्माइल’ की तलाश को कामयाबी के मुकाम तक पहुंचाने वाले आईपीएस को सम्मानित किया. तो वहीं इस अविश्वसनीय मगर अद्भूत ऑपरेशन ने देश में खाकी (पुलिस) की बदनाम सूरत को काफी हद तक सकारात्मक रूप देने की कोशिश भी की. गाजियाबाद से शुरू ऑपरेशन स्माइल का खूबसूरत सफर लियोन (LYON) स्थित इंटरपोल की ड्योढ़ी तक जा पहुंचा.

बाल-अपराध और मानव-तस्करी पर लियोन में आयोजित कॉन्फ्रेंस में हिंदुस्तान का प्रतिनिधित्व करने के लिए भी भारत सरकार ने इसी आईपीएस को भेजा. यूपी पुलिस के ही अगर आंकड़े उठाकर देखे जाएं तो गौतम बुद्ध नगर और गाजियाबाद दो जिलों में ही बतौर एसएसपी तैनाती के दौरान. ऑपरेशन के जनक साबित हो चुके इस आईपीएस के नेतृत्व में करीब 3 हजार से ज्यादा बिछुड़े हुए बच्चों को उनके अपनों तक पहुंचा जा चुका है. ऐसे में अगर यह कहा जाए कि, ऑपरेशन स्माइल की परिकल्पना को अमली जामा पहनाने वाला यह इंसान सिर्फ पुलिसिया अफसर भर नहीं. अपितु कल तक तीन हजार से ज्यादा लावारिस समझे जाने उन बच्चों का ‘पिता’ भी साबित हो चुका है, जो आज ‘अपनों’ के साथ खेल-कूद और फल-फूल रहे हैं, तो अतिश्योक्ति नहीं होगी.

बाल अपराध और मानव तस्करी पर बोलते हुए आईपीएस धर्मेंद्र सिंह

कौन है मुरझाए मासूमों को खुशीदेने वाला’?

इस शख्सियत का जन्म यूपी के फिरोजाबाद जिले की जसराना तहसील/कस्बा क्षेत्रांतर्गत स्थित एक गांव में 22 मार्च सन् 1982 को हुआ था. हेड-मास्टर पिता की पांच संतान (तीन पुत्र और दो पुत्री) में यह तीसरी नंबर की है. महज 23 साल की छोटी उम्र में ही सन् 2001 में आगरा विश्विद्यालय से ग्रेजुएशन की. उसके बाद आईपीएस बनने की उम्मीद के साथ सन् 2002-2003 में सिविल सर्विसेज की तैयारी के वास्ते दिल्ली चले आए. सिविल सर्विसेज में पड़ा पहला दांव हल्का साबित हुआ. सो इंटरव्यू में पहुंचकर पेंच फंस गया. 2005 में दोबारा सिविल सर्विसेज में किस्मत आजमाई. लिहाजा 2006 बैच यूपी कैडर के आईपीएस बन गए.

बैच में ऑल इंडिया रैंक मिली 95. जसराना के छोटे से गांव से निकल कर. बेटे द्वारा आईपीएस में 95वां रैंक ले आना ही, हेड-मास्टर पिता के लिए उसके जीवन में, बेटे से हासिल सबसे बड़ा और कीमती ‘उपहार’ था. हमेशा मीडिया और शोहरत की चकाचौंध से खुद को बचाए रखने के आदी इस शख्सियत ने खुद के बारे में पूछे जाने पर बेहद कम बोलकर ज्यादा समझाते हुए चुप्पी साध ली... ‘एक आईपीएस को हिंदुस्तानी हुकूमत, घोड़ा-गाड़ी-बंगला-इज्जत-अच्छी तनख्वाह (सैलरी) देती है. उड़ने-रहने के लिए जब ‘खुला-आसमान’ मिल ही गया तो फिर, भला जरूरतमंद की सेवा करने में पुलिस को कैसी और काहे की शर्म? अपने हाथों से जिस जरूरतमंद का जो बन पड़े भला कर दो. ‘ऑपरेशन-स्माइल’ मेरी दिली-हसरत था. जो पूरी हुई. तमाम झंझावतों के बाद भी.’

कभी गाजियाबाद (2013 से 2016) और नोएडा (जिला गौतमबुद्धनगर 2016-2017) के एसएसपी रहे. मौजूदा वक्त में गाजियाबाद के क्षेत्रीय पासपोर्ट अधिकारी (रीजनल पासपोर्ट ऑफिसर) पद पर तैनात इस आईपीएस का ही नाम है धर्मेंद्र सिंह.

(लेखक वरिष्ठ खोजी पत्रकार हैं. अन्य क्राइम स्टोरी पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)