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'मुख्यमंत्री ने मेरे कान में कुछ ऐसा कहा कि मैंने 5 मिनट में STF का ‘ब्लूप्रिंट’ बना डाला’

एसटीएफ बनाने का आइडिया आखिर भारत में सबसे पहले यूपी पुलिस के ही पास कहां से अचानक चलकर आया? जिसका कभी किसी ने नाम तक नहीं सुना

Sanjeev Kumar Singh Chauhan

‘उन दिनों मैं यूपी पुलिस की आर्म्ड पुलिस फोर्स ‘पीएसी’ सीतापुर में एडिश्नल डायरेक्टर जनरल के पद पर तैनात था. उसी पीएसी में पुलिसिया भाषा में जिसे सूखी, दण्डनीय, साइड-लाइन और न जाने किन-किन तकिया-कलामों से नवाजा, बोला, पहचाना-सुना जाता है. जबरिया महकमे द्वारा धकेले जाने से नहीं बल्कि, खुद की मर्जी से. उसी पीएसी में जिसे 1965 से पहले तक सिर-आंखों पर रखा जाता था. वजह थी पाकिस्तान-बंगलादेश से जुड़ी भारतीय सीमाओं की चौकसी. क्योंकि उस जमाने में बीएसएफ (बार्डर सिक्योरिटी फोर्स) का जन्म नहीं हो सका था. इसलिए सीमाओं की रखवाली की जिम्मेदारी को पीएपी (पंजाब आर्म्ड पुलिस), आरएसी (राजस्थान आर्म्ड कंपनी) और यूपी पुलिस पीएसी की बटालियनों के ही कंधों पर थी. यही वजह थी कि उस 34वीं वाहनी पीएसी (बटालियन) का प्रमुख भारतीय पुलिस सेवा (आईपीएस) का ही कोई अधिकारी लगाया जाता था. सन् 1997 की बात है. एक दिन मुख्यमंत्री ने मुझे एकांत में बुलाया. उन्होंने कान में कुछ ऐसा कहा, कि मैंने 5 मिनट के भीतर ही भारत के किसी राज्य पुलिस की पहली स्पेशल टॉस्क फोर्स (एसटीएफ) का ब्लू-प्रिंट (परिकल्पना) बना डाला.’

भारतीय पुलिस में स्पेशल टास्क फोर्स के जन्मदाता तेज-तर्रार पूर्व आईपीएस और दबंग एनकाउंटर स्पेशलिस्ट की अमिट छाप जन-मानस के जेहन में छोड़ने वाले उसी बेदाग-बेखौफ शख्शियत से हम और आप मिल रहे हैं एक मुद्दत और तमाम मशक्कतों के बाद इस बार पेश ‘संडे क्राइम स्पेशल’ में.


'खून-खराबा नहीं होने दूंगा आप मुझे मेरी मर्जी की पोस्टिंग दे देना'

मुलायम सिंह यादव की सरकार जा चुकी थी. उन दिनों उत्तर प्रदेश में गवर्नर रुल लागू था. सूबे के राज्यपाल थे मोती लाल वोहरा. पुलिस महानिदेशक कन्हैया लाल गुप्ता. यूपी में विधानसभा इलेक्शन होने वाले थे. खुफिया रिपोर्ट्स के मुताबिक प्रस्तावित चुनाव में खून-खराबा होना तय माना जा रहा था. मैं सूबे का एडिशनल डायरेक्टर जनरल कानून-व्यवस्था था. इलेक्शन के इंतजाम संबंधी मीटिंग में जो चर्चा हुई, उसके बाद सबको (आला पुलिस अफसरान और सूबे के तमाम हुक्मरान) सांप सूंघ गया. मीटिंग के बाद बतौर एडीजी लॉ एंड ऑर्डर मैं सूबे के राज्यपाल मोती लाल बोरा से मिलने राजभवन गया. इलेक्शन में गड़बड़ी को लेकर राज्यपाल खासे परेशान दिखे. मैंने गवर्नर साहब को परेशानी में देखकर कहा, ‘सर चिंता छोड़िए. यह विधानसभा चुनाव मैं शांतिपूर्ण तरीके से बिना किसी खून-खराबे के करा दूं तो बतौर इनाम क्या मिलेगा? गवर्नर साहब कुछ बोले मैं ही बोल पड़ा, इलेक्शन निपटते ही आप मुझे मेरी मर्जी की पोस्ट पर तैनात कर दीजिए.’

'मुझे एडिश्नल डीजी पीएसी बना दो, सरकार बनते ही मैं फंस जाऊंगा!'

'चूंकि इलेक्शन शांतिपूर्ण तरीके से हो चुका था. दो-चार दिन में नई सरकार बन जाना तय था. मैं तुरंत राज्यपाल से मिला. मैंने उनसे निवेदन किया कि वायदे के मुताबिक जब इलेक्शन शांतिपूर्ण तरीके से निपट गया है, तो आप मुझे तुरंत पीएसी सीतापुर भेज दो. वरना नई सरकार आते ही मेरी पोस्टिंग में अड़ंगेबाजी पड़ जाएगी और मैं फिर यहीं (सिविल पुलिस में) फंसा रह जाऊंगा. राज्यपाल ने मेरे अनुरोध पर 34वीं बटालियन पीएसी में एडिश्नल डायरेक्टर जनरल (सीतापुर में) बनाकर भेज दिया.'


नौकरी के शुरुआती दिनों में ही 22 घंटे लगातार हुई मुठभेड़ में 13 डाकू मार डालने वाले अनुभवी एनकाउंटर स्पेशलिस्ट अजय राज शर्मा

'पीएसी में मन-पसंद तैनाती के बाद भी मन अशांत था'

'एडिशनल डायरेक्टर जनरल पीएसी में ज्वाइन कर लिया. चारों ओर शांति का वातावरण था. खूब पढ़ने-लिखने-खेलने का वक्त मिल रहा था. कुल जमा यह लगने लगा कि यूपी पुलिस की नौकरी में पीएसी से ज्यादा सुख-चैन-शांति कहीं नहीं मिल सकती. चंद दिनों में खुद ही अपनी खुशी को ग्रहण सा लगा लिया. पीएसी की नौकरी में खाली बैठकर खबरे सुनता पढ़ता कि, श्रीप्रकाश शुक्ला नाम के किसी नौसिखिये लड़के ने यूपी-बिहार पुलिस का दिन का चैन रात की नींद कब्जा रखी है. अखबारों में सिर्फ और सिर्फ, दिन-दहाड़े हत्या, लूट अपहरण, कीमती गाड़ियों की चोरी, लग्जरी गाडियों (कारों) में वारदातों को अंजाम देने संबंधी श्रीप्रकाश की खबरों के अलावा और कुछ पढ़ने को नहीं मिल रहा था. खुलेआम एक नौसिखिये लड़के द्वारा कत्ल-ए-आम की खबरों से मन में गुस्सा उत्पन्न हुआ सो हुआ, उस लड़के को आमने-सामने देखने की बेचैनी भी बढ़ती जा रही थी.'

'उस हद तक गोलियां बरसाईं जाएं कि आसमान थर्रा उठे'

'दफ्तर में बैठा मन ही मन प्लानिंग बनाता रहता. ऐसा होगा तो वैसा होगा. वैसा होगा तो ऐसा होगा. और न जाने क्या-क्या? एक दिमाग में सौ-सौ सवालों की घुसपैठ. एक दोपहर दफ्तर में ख्याल आया कि थाने-चौकी वाली पुलिस की कुव्वत श्रीप्रकाश शुक्ला का दीदार करने कभी नहीं हो सकेगी. वजह काम का दबाव और ठोस रणनीति का अभाव. श्रीप्रकाश जैसे खूंखार अपराधियों को तो एक खास टीम ही मिलकर ठिकाने लगा सकती है. जो उसी (श्रीप्रकाश) के स्टाइल की दबंग हो. वो टीम जो दिन-रात थाने-चौकी से दूर रहकर सिर्फ और सिर्फ श्रीप्रकाश जैसों को ही निपटाये. वो टीम जो तब तक श्रीप्रकाश जैसे क्रिमिनल्स का पीछा करे, जब तक या तो वे थक-हार कर पुलिस के सामने मेमने (बकरी के बच्चे) की मानिंद हाथ-पैर जोड़कर जिंदा रहने के लिए मिमियाने न लगें. या फिर मुकाबले के लिए वे फिर भी पुलिस को चुनौती दें, तो उस चुनौती को स्वीकार करके उस हद तक गोलियां बरसाईं जायें, कि आसमान भी थर्रा उठे.'

अमेरिका के पूर्व राष्ट्रपति बिल क्लिंटन के साथ यूपी एसटीएफ के जन्मदाता अजय राज शर्मा.

‘मिनी-टीम’ के गर्भ से जन्मा था ‘एसटीएफ’ नाम

'सन् 1997 में मई-जून का महीना था. पीएसी (सीतापुर) में आरआई (रिजर्व इंस्पेक्टर) का एग्जाम था. एग्जाम की सुपरवाइजरी मेरे ही कंधों पर थी. उसी दौरान ग्राउंड में बैठे-बैठे आईडिया आया कि श्रीप्रकाश जैसे नौसिखियों को काबू करने के लिए, उन्हीं की तर्ज पर (स्टाइल) ताबड़तोड़ गोली-बारी करने वाली एक ‘मिनी-टीम’ बननी चाहिए. इस मिनी-टीम को ‘स्पेशल टास्क फोर्स’ यानी एसटीएफ सीधा-सीधा और छोटा सा नाम भी उसके काम के मुताबिक ही देना चाहिए. जो होगी तो छोटी, मगर काम बड़े-बड़े ही करेगी. थाने चौकी और पुलिस दफ्तरों-अफसरों से इस टीम का कोई सीधा-सीधा वास्ता बिलकुल नहीं होगा. एसटीएफ में पुलिस के लड़के भी सब जिंदादिल और नौसिखिए (नई भर्ती) ही रखे जाएं. ताकि मुकाबले के वक्त और शिकार की तलाश में निकलने पर वे आसानी से पहचाने न जा सकें.'

चीफ मिनिस्टर को ठिकाने लगाने की ही ‘सुपारी’ ले बैठा

'पीएसी में पोस्टिंग होने के कारण, श्रीप्रकाश शुक्ला या सिविल पुलिस से मेरा सीधे कोई वास्ता नहीं था. फिर भी पुलिस की वर्दी और अपनी ही पुरानी आदतें मुझे बार-बार उकसा रही थीं. इसी बीच एक हाईप्रोफाइल नेता को श्रीप्रकाश ने मार दिया. नेता जी के परिजनों का शक था कि श्रीप्रकाश से वो हत्या मुख्यमंत्री कल्याण के आदमियों ने कराई है! बात सामने आई कि श्रीप्रकाश द्वारा मारे गए नेताजी के परिवार ने ही श्रीप्रकाश को 5 करोड़ की सुपारी दे दी है. इस बात की कि वो मुख्यमंत्री कल्याण सिंह की हत्या कर दे.'

'परेशान-हाल मुख्यमंत्री कल्याण सिंह ने (अब राजस्थान के गवर्नर) यूपी के पुलिस महानिदेशक कन्हैया लाल गुप्ता को बुला लिया. मुख्यमंत्री ने डीजी से श्रीप्रकाश का ‘इलाज’ पूछा. डीजी साहब बतौर श्रीप्रकाश की ‘दवाई-डॉक्टर और इलाज’ मेरा नाम चीफ-मिनिस्टर को सुझा आए. साथ ही पीछे से दबी जुबान पुलिस महानिदेशक, चीफ मिनिस्टर को यह भी बता आए कि वो (मैं) पीएसी में अपनी मर्जी से ट्रांसफर कराके गया है. सिविल पुलिस में शायद ही लौटे.'

'चीफ मिनिस्टर ने मेरे कान में कुछ ऐसा कहा कि ‘एसटीएफ’ बन गयी'

'मुख्यमंत्री कल्याण सिंह मुझे व्यक्तिगत तौर से तब से ही जानते थे, जब मैं सन् 1976 में अलीगढ़ का एसएसपी (वरिष्ठ पुलिस अधीक्षक) था. उस जमाने में कल्याण सिंह जनता पार्टी सरकार में मंत्री बन चुके थे. चीफ मिनिस्टर ने घर बुलाकर कहा कि सीतापुर पीएसी छोड़कर लखनऊ आकर अपर पुलिस महानिदेशक कानून-व्यवस्था का चार्ज ले लो. मैंने विनम्रता से कहा कि, एडीजी लॉ एंड ऑर्डर की नौकरी से थककर ही मैं पीएसी में गया हूं. संभव हो सके तो किसी और काबिल पुलिस अफसर को लगा दीजिए. मेरी इंकार सुनकर सीएम मुझे घर के एक कोने में ले गए. वे मेरे कान में बोले, ‘आपके सीएम की जान खतरे में है. मेरी हत्या के लिए 5 करोड़ की सुपारी ली-दी जा चुकी है. अब भी क्या अपने सीएम की जान बचाने के लिए आप एडिशनल डीजी लॉ एंड ऑर्डर नहीं बनोगे पीएसी छोड़कर?’ बस सीएम साहब की वो बात सुनते ही मैंने जेहन में पहले से तैयार एसटीएफ के ‘ब्लू-प्रिंट’ को उत्तर प्रदेश पुलिस की गोद में ब-हिफाजत सजा-संवारकर अमली जामा पहना दिया. उसी वक्त सीएम से पांच मिनट में बात करके. यह बात है जुलाई 1998 के आसपास की.'

भारत के पूर्व राष्ट्रपति के साथ अजय राज शर्मा.

मुख्यमंत्री बोले यह एसटीएफ क्या है? यह तो बड़ी मंहगी बैठेगी!

'भारत में यूपी पुलिस किसी राज्य की वो पहली फोर्स (सिविल पुलिस) और कल्याण सिंह किसी राज्य के वे पहले मुख्यमंत्री थे, जिन्होंने पहली बार जिंदगी में मेरे मुंह से ‘एसटीफ’ सुना. सुनते ही चीफ मिनिस्टर बोले कि यह एसटीएफ क्या होती है? तो मैंने उन्हें बताया कि, मेरे अंडर (सुपरवीजन) में एक दबंग आईजी, एक डीआईजी, एक एसएसपी, 4 डिप्टी एसपी, गजब के निशानेबाज (शार्प-शूटर)10 अनुभवी और दबंग इंस्पेक्टर, 10 सब-इंस्पेक्टर, 20 हवलदार, 20 सिपाही, 10 नई सफेद टाटा सूमो मय ड्राइवर और इसी अनुपात/ तादाद में हथगोले, एके-47 राइफलें मिलाकर जो ग्रुप बनेगा वही ‘एसटीएफ’ कहलायेगी. मुख्यमंत्री बोले कि, एसटीएफ बनाने की प्रक्रिया तो बहुत लंबी है. मैंने कहा नहीं, बिलकुल नहीं है. बस आप बजट दे दो. बाकी मुझ पर छोड़ दो. परेशान-हाल चीफ मिनिस्टर ने ‘हां’ करने के साथ ही मेरी तरफ सवाल फेंका.. ‘श्रीप्रकाश को कब तक पकड़ लेगी तुम्हारी एसटीएफ? जबाब में मैंने कहा कि, पकड़ने की कोई गारंटी नहीं है सर. श्रीप्रकाश पुलिस के सामने किसी भी नजर से कमजोर नहीं है. कौन पकड़ा जाएगा? कौन मारा जाएगा? ‘अंजाम’ तो मुकाबले के बाद ही लगेगा?'

'एसटीएफ के ‘किराये’ के अड्डे का खुद ही उद्घाटन कर लिया'

'मुख्यमंत्री की ‘हां’ होते ही लखनऊ के गोमती पार्क इलाके में एक किराये की बिल्डिंग ले ली. जिसे नई-नवेली एसटीएफ का ‘घर’ (हेडक्वार्टर) बनाया गया. बिना किसी सजावट और तामझाम के. एसटीएफ के जन्म होने की खुशी तो थी, मगर उस खुशी पर एसटीएफ की ‘गोपनीयता’ बनाये रखने की जिम्मेदारी कहीं ज्यादा भारी साबित हो रही थी. किसी को भी यह पता नहीं लगने देना था कि, एसटीएफ नाम की भी कोई बलाय, श्रीप्रकाश जैसे शार्प-शूटर सुपारी-किलर्स की ‘किलिंग’ की उम्मीद में धरती पर ‘छुट्टा’ छोड़ी जा चुकी है. लिहाजा एसटीएफ के उस किराये के हेडक्वार्टर का गुपचुप उद्घाटन भी मैने खुद ही अपने हाथों से फीता काट के कर दिया.

ओपनिंग सेरेमनी के मेहमान थे एसटीएफ के पहले आईजी विक्रम सिंह (1974 बैच यूपी कॉडर के आईपीएस और यूपी के दबंग पूर्व पुलिस महानिदेशक, वर्तमान में नोएडा इंटरनेशनल यूनिवर्सिटी के प्रो-चांसलर) राजेश पाण्डेय (मौजूदा समय में मेरठ में तैनात), एसएसपी अरुण कुमार (मौजूदा समय में बीएसएफ में), सब-इंस्पेक्टर वी.पी.एस. चौहान (श्रीप्रकाश शुक्ला को निपटाने के बाद पूरी टीम के साथ चौहान को भी आउट ऑफ टर्न प्रमोट करके इंस्पेक्टर बनाया गया था, मौजूदा समय में डिप्टी एसपी एटा) और टीम में शामिल बाकी करीब 50 (डिप्टी एसपी, इंस्पेक्टर, दारोगा, हवलदार-सिपाही, ड्राइवर) जवान.

'एक शार्प-शूटर जिसकी मौत ने एसटीएफ को ‘स्पेशल’ बना डाला'

'श्रीप्रकाश और उसके जैसे खतरनाक शार्प-शूटर्स से निपटने के लिए ही मैंने उन सबसे भी ज्यादा खूंखार पुलिस की एसटीएफ बनाई थी. आखिरकार 22 सितंबर 1998 को कई दिन की लुका-छिपी और नेवला-सांप सी लड़ाई के बाद, एसटीएफ ने अपनी लिस्ट में पहले नंबर पर दर्ज श्रीप्रकाश को ढेर करके खुद ही एक नाम हमेशा-हमेशा के लिए लिस्ट से खुशी-खुशी मिटा दिया. श्रीप्रकाश के साथ दो और बदमाश भी दिल्ली से सटे गाजियाबाद के वसुंधरा-इंदिरापुरम् इलाके में ढेर कर दिए गए. श्रीप्रकाश को ढेर करने के बाद हमारी (यूपी पुलिस की) नई-नई जन्मी दुश्मनों की दुश्मन ‘खतरनाक-एसटीएफ’ टीम और दिल्ली पुलिस ने आईटीओ स्थित मुख्यालय (दिल्ली पुलिस हेड क्वार्टर) में संयुक्त प्रेस-कान्फ्रेंस की. उस संवाददाता सम्मेलन में श्रीप्रकाश शुक्ला के ठिकाने लगने संबंधी सवाल कम थे. हर पत्रकार पूछ रहा था..कि यह एसटीएफ क्या चीज है? यही सवाल एसटीएफ के जन्म से ठीक पहले मुख्यमंत्री श्री कल्याण सिंह ने भी मुझसे अपने घर पर किया था.'

पूर्व प्रधानमंत्री श्री अटल बिहारी वाजपेयी के साथ अजय राज शर्मा.

'श्रीप्रकाश से ज्यादा ललक एसटीएफ की जन्म-कुंडली जानने में थी'

पत्रकार इस सवाल को लेकर ज्यादा उत्सुक थे कि स्पेशल टॉस्क फोर्स किसने कैसे और कब बनाई? मतलब स्पेशल टास्क फोर्स का आखिर असली ‘मास्टर-माइंड’ कौन है? एसटीएफ बनाने का आइडिया आखिर भारत में सबसे पहले यूपी पुलिस के ही पास कहां से अचानक चलकर आया? जिसका कभी किसी ने नाम तक नहीं सुना. पत्रकारों के तमाम सवालों के जबाब उस दिन (आज से करीब 20 साल पहले उस संवाददाता सम्मेलन का मैं (लेखक) खुद भी गवाह हूं) बेबाकी से खुलकर जिसने दिए वह थे, खुद यूपी पुलिस एसटीएफ के मुखिया/जन्मदाता 1966 बैच यूपी कॉडर के बेबाक पूर्व दबंग एनकाउंटर स्पेशलिस्ट आईपीएस अजय राज शर्मा.

यूपी के अटारी गांव से ‘अटारी’ बार्डर तक का सफर

अजय राज शर्मा का जन्म 6 दिसंबर 1944 को हुआ था. उनके पिता पुश्तैनी रहीस किसान इंद्र राज शर्मा और माँ उमेश्वरी शर्मा मूलत: जिला मिर्जापुर (यूपी) की मढ़ियान तहसील के अटारी गांव के मूल निवासी थे. परिवार लेकिन ज्यादातर रहता मुजफ्फरगंज मोहल्ला (मिर्जापुर शहर) में ही था. पांचवीं तक की शिक्षा देहरादून के सेंट जोसफ से लेकर, सन् 1956 में देहरादून से इलाहाबाद चले आये. 1965 में इलाहाबाद विवि से मार्डन-हिस्ट्री में एमए करने के दौरान ही, अक्टूबर महीने में यूपीएससी से आईपीएस का एग्जाम दिया, जिसमें कामयाबी मिली. जनवरी 1969 में बरेली जिले में रेगुलर-सहायक-पुलिस-अधीक्षक (एएसपी) पद पर तैनाती मिली.

‘एंटी चंबल वैली डकैती-ऑपरेशन’ दस्ते का गठन यूपी पुलिस में अजय राज शर्मा की दबंगई को ध्यान में रखकर ही किया गया था. लिहाजा उन्हें ही उसका पहला पुलिस अधीक्षक बनाया गया. ये बात है सन् 1970 की. इसके ठीक बाद ही जुलाई-अगस्त 1970 में चंबल घाटी के सबसे खूंखार गैंग जंगा-फूला के 13 डकैत, मय डाकू पंडित लज्जाराम और डाकू कुंवरजी गड़रिया, रात भर चली मुठभेड़ में (राजस्थान धौलपुर सब-डिवीजन के गाँव तोर में 22 घंटे चली थी मुठभेड़) मार गिराए.

तमाम बाकी आईपीएस लॉबी की चीख-पुकार-हो-हल्ला (दबी जुबान जबरदस्त विरोध) के बाद भी, सन् 1999 में दिल्ली के पुलिस कमिश्नर बनाये गये. इसके बाद भारत सरकार ने उन्हें सीमा सुरक्षा बल (बीएसएफ) का महानिदेशक (डायरेक्टर जनरल) बनाकर, उनकी धुर-विरोधी कुछ आईपीएस की एक लॉबी को शांत रहने में ही भलाई का इशारा कर दिया. फिलहाल अजय राज शर्मा आईपीएस जीवन के भूले-बिसरे अनुभव किताब के रुप में दर्ज करने में मशरुफ हैं. इसे इत्तिफाक ही कहेंगे कि, मिर्जापुर के ‘अटारी’ गांव से शुरु हुआ खूबसूरत सफर, हजारों किलोमीटर दूर ‘अटारी-बार्डर’ पर पहुंच कर (इंडिया-पाकिस्तान बार्डर पर सुरक्षा में तैनात बीएसएफ के डीजी पद से रिटायर होने तक) जांबांजी की यादों को गोद में समेटे-समेटे पूरा हुआ.

(अजय राज शर्मा से हुई लंबी विशेष बातचीत पर आधारित)