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श्रंगार प्रधान ठुमरी को भक्ति की पुकार में बदला गिरिजा देवी ने

उनके चाहने वालों को भरोसा है कि गिरिजा देवी अपने साथ दो जोड़ा पान जरूर ले गई होंगी

Utpal Pathak

बुधवार की सुबह एक तरफ जब सारा देश छठ के सूर्य को प्रणाम कर रहा है लेकिन दूसरी तरफ संगीत की दुनिया में बहुत कुछ अस्त हो चुका है. स्वर कोकिला गिरिजा देवी ने मंगलवार रात नौ बजे जब कोलकाता के निजी अस्पताल में आखिरी सांसें लीं तो उसके बाद सारी दुनिया में उनके चाहने वालों में शोक की लहर फैल गई.

काशी की गिरिजा


उत्तर भारत कोकिला, गान शिरोमणि, संगीत शिरोमणि, गान सरस्वती जैसी उपाधियां उन्हें अल्पायु में ही मिल गयीं थीं. दुनिया उन्हें सुर साम्राज्ञी और अप्पा जी जैसे अनेक सम्मान सूचक शब्दों से नवाजती थी लेकिन बनारस आने के बाद वो सिर्फ गिरिजा होकर रह जाती थीं. उन्हें इस बात का गौरव सदा रहा कि वे उन कुछ गिने चुने लोगों में से थीं जिन्हें शास्त्रीय संगीत के उदभट विद्वान पंडित श्रीचन्द्र मिश्र का शिष्यत्व प्राप्त हुआ.

1941 में जब पहली बार उन्होंने 17 वर्ष की आयु में रेडियो के साथ सार्वजनिक प्रस्तुति की तो सुनने वालों को बांध कर रख दिया. पारिवारिक दबाव के कारण गिरिजा देवी को कुछ समय तक सामाजिक आयोजनों से दूर रहना पड़ा लेकिन उनकी सुर साधना अनवरत चलती रही. 1951 में बिहार में एक कार्यक्रम में शिरकत करके उन्होंने पुनः वापसी की और उसके बाद कभी पीछे मुड़ कर नहीं देखा.

लोक कला की ध्वजवाहिका

गिरिजा देवी ने दशकों तक न सिर्फ शास्त्रीय और उप शास्त्रीय गायन की हर उंचाई को छुआ बल्कि ठुमरी को और परिष्कृत करते हुए उसे नवीनतम प्रतिमान दिए. संगीत के प्रारंभिक गुरु उनके पिता रहे लेकिन बाद में उन्होंने पंडित सरजू प्रसाद मिश्र और पंडित महादेव मिश्र से भी शिक्षा ली, लेकिन उनकी प्रतिभा को विस्तार दिया पंडित श्रीचंद्र मिश्र ने. उन्होंने अपनी जीवन यात्रा में बनारस घराना और पूरब अंग की गायकी का अंतर्राष्ट्रीय प्रतिनिधित्व किया.

उनकी कलाधर्मिता का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि उन्होंने मात्र आठ साल की उम्र में "याद रहे" नाम की एक फिल्म में भी काम किया था. इस फिल्म में उन्होंने गायन में निपुण एक अछूत कन्या का अभिनय किया था . उस दौर में पार्श्वगायन नहीं था औरअभिनय के साथ गायन रिकार्ड किया जाता था. ऐसे में उन्होंने बड़ी ही सहजता से दोनों काम एक साथ किए. इसी फिल्म की शूटिंग के बाद जबलपुर में हुए कांग्रेस अधिवेशन के दौरान उन्हें फिल्म के निर्देशक श्री मूलचन्दानी के माध्यम से महात्मा गांधी, मौलाना आज़ादऔर पंडित गोविन्द वल्लभ पंत जैसी विभूतियों से मिलने का मौका मिला.

लोक और शास्त्र के अन्तरालाप की देवी

गिरिजा देवी को उस दौर की ख्यातिलब्ध महिला गायिकाओं ने भी खासा प्रभावित किया और वे बड़ी मोतीबाई, छोटी मोतीबाई, रसूलनबाई, रोशन आरा बेगम, मुश्तरी समेत विद्याधरी एवं मोगूबाई कुरडीकर आदि के रिकॉर्ड सुनती थी. लेकिन रसूलनबाई ने गिरिजादेवी को खासा प्रभावित किया. इनके अलावा वे सिद्धेश्वरी देवी को जीवन भर असली ठुमरी साम्राज्ञी मानती रहीं और उन्होंने इन सब विभूतियों से कुछ न कुछ सीखा. उनके व्यक्तित्व के उजास और अंतर्दृष्टि को ठाकुर जयदेव सिंह ने पहचाना और न सिर्फ उसे सराहा बल्कि उन्हें संगीत के कुछ गूढ़ विषयों से अवगत भी कराया.

क्या अलग था गिरिजा देवी की गायकी में

ठुमरी, टप्पा, भजन और खयाल इत्यादि सब कुछ पर समान अधिकार होने के अलावा उनकी अकृत्रिम सुमधुर आवाज़, भरपूर तैयारी और भक्ति भावना से ओत-प्रोत प्रस्तुतिकरण उन्हें अविस्मरणीय बनाता था. खुद भाव प्रमण होकर शब्दों से खेलना और उसके माध्यम रुलाना हँसाना उन्हें खूब आता था.

वाराणसी के वरिष्ठ पत्रकार अमिताभ भट्टाचार्य बताते हैं, 'मैंने 1970 से लेकर 2017 तक लगातार, बनारस में हुए उनके हर कार्यक्रम को सुना है और मुझे यह कहने में कोई गुरेज़ नहीं कि उनकी ख्याल गायकी में चारों वाणी सुनाई देती थी. अतिविलम्बित, दीर्घविलम्बित, मध्यविलम्बित और अंत में तेज़ तान के साथ जाती थी.

बनारस घराने की एक विशेषता है कि यहां ध्रुपद को काटकर खयाल बनाया गया है और खयाल को काटकर ठुमरी के बोल बने हैं. गिरिजा देवी ठुमरी के दो मिजाज़ 'चीख' और "पुकार" में से पुकार को साध्य कर चुकी थी. वो मंदिर में गातीं थी या सामाजिक आयोजनों में लेकिन उनकी पुकार गिरिधर के लिए ही होती थी.

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वेद में एक शब्द है समानिवोआकुति जिसका अर्थ है श्रोताओं को मन के अनुसार बांध कर सामान भाव से संतुष्ट कर देना. उन्होंने ठुमरी को नीचे से ऊपर पहुँचाया और अगर उन्हें संगीत का वाज्ञेयकार कहा जाय तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी.

"मुझे याद है 1972 में टाउनहॉल मैदान में एक कार्यक्रम के दौरान वो मंच पर आईं और उन्होंने राग यमन, मालकौंस के बाद कई बंदिशें सुनाई लेकिन उसके बाद जब ठुमरी शुरू हुई तो उपस्थित जनसमूह ने उन्हें कुछ देर और गाने का आग्रह किया. बड़े ही मीठे स्वर में उन्होंने कहा 'आप लोग जाए न देबा’ और वे एक घंटे तक अनवरत जाती रहीं.

आजकल यह सब नहीं होता है. उन्होंने देशज शब्दों जैसे रिसियाय गए, ठुमुक गए, पहुड़ लियो को अपनी बोलचाल के साथ अपने संगीत में इस्तेमाल किया. उनकी भाषा में देशज शब्दों का एक अलग प्रवाह और लालित्य था.

वाराणसी के प्रख्यात शास्त्रीय गायनाचार्य पंडित राजेश्वर आचार्य गिरिजादेवी के बारे में बताते हैं, 'देश ने सुर साम्राज्ञी गिरिजा देवी को खोया है लेकिन मैंने अपनी बड़ी बहन को खोया है जो न सिर्फ संगीत की सभी विधाओं में निपुण थीं बल्कि मुझ जैसे सभी सहोदर भाईयों और शिष्याओं को प्यार-दुलार और फटकार देती रहीं. देशज शब्दों से लिपटी उनकी वाणी में काशिका, अवधी और अन्य आंचलिक बोलियां घुली हुई होती थी.

बनारस उनमे कूट-कूट कर भरा हुआ था और उन्होंने कभी खुद को सम्पूर्ण नहीं माना और जीवन भर मोक्ष की कामना करती रहीं. मुझे आज भी याद है कि जब कुछ साल पहले उनके बीमार होने की खबरें उड़ीं तो उन्होंने मुझे समझाते हुए कहा कि उन्हें संगीत ही मोक्ष तक लेकर जाएगा. आज शायद उनकी बात सच हो गई है लेकिन वो जाते जाते एक बड़ी थाती छोड़ गई हैं जिसको संभालना कठिन है. "

ठुमरी का नवनिर्माण

ठुमरी को लम्बे समय तक नायिका के बनाव शृंगार, मान-मनौव्वल, उपेक्षा-विरह और छेड़-छाड़ से जोड़ कर देखा गया लेकिन गिरिजा देवी ने इस ठुमरी गायकी को सात्विकता प्रदान की और इसे भक्ति रस से सराबोर कर दिया और उनका गायन उनके लिए भक्ति साधना कामाध्यम बन गया.

संकट मोचन मंदिर के महंत एवं कलामर्मज्ञ डॉ बिश्वम्भर नाथ मिश्र ने गिरिजा देवी के निधन को अपूरणीय क्षति करार देते हुए कहा -"देखिए वो मेरे लिए अभिभावक थी और श्रीसंकट मोचन संगीत समारोह से उनका आध्यात्मिक लगाव था. वे यहां वर्षों तक निरन्तर आती रहींऔर हनुमान जी के सामने स्वरांजलि प्रस्तुत करती रहीं, अभी इसे वर्ष उन्होंने कार्यक्रम के दौरान मंच से कहा "इहां आवे का मतलब हौ अपने घरे आके अपने हनुमान जी अ आपन लोगन के सामने गाना, इहां हम कुछ सोच के नाही गावे आईला, जौन हनुमान जी क आदेस होला ओकर पालन करीला. (यहां आने का मतलब है अपने घर और अपने ईश्वर के सामने गाना , यहां मैं कुछ सोच कर नहीं आती , जैसा हनुमान जी चाहते हैं, वैसा कर देती हूं. "

"ऐसा लगता था मानों उन्होंने श्रोताओं से आत्मीयता स्थापित करने की जिम्मेदारी ले ली थी और उन्होंने शास्त्रीय संगीत के साथ नई पीढ़ी का रागात्मक तादात्म्य स्थापित करने की जिम्मेदारी को निभाया और बनारस की सांगीतिक परम्परा प्रवाह को आगे बढ़ाया.“

वाराणसी के मूलनिवासी, रंगकर्मी एवं एक राष्ट्रीय एफ एम रेडियो के रचनात्मक प्रभाग के प्रमुख विपुल नागर गिरिजा देवी के कार्यक्रमों के दौरान किए गए अपने मंच सञ्चालन को याद करते हुए भावुक हो गए और उन्होंने बताया कि 'मुझे कभी किसी ने कहा था कि ठुमरी अगर देह है तो अप्पा जी उसकी आत्मा, मैंने जब भी मंच पर उन्हें करीब से गाते हुए सुना तो मुझे हर बार कुछ नया अनुभव मिला, वे आत्मा से गाती थीं और ठुमरी में अब आत्मा की खोज दुरूह होगी."

उनके प्रशंसक कई दशकों तक लगातार मुग्ध होकर उनके अनहद स्वर को सुनते रहे और उन्हें शास्त्रीय स्वरलोक की महीयसी मूर्ति के रूप में पूजा जाता था. वे सरस्वती की साधिका तो थी हीं लेकिन उनका मानुषी स्वभाव उन्हें औरों से अलग करता था. वे हमेशा अपने चाहने वालों की सुख स्मृतियों में सदा विद्यमान रहेंगी. उनका प्रयाण एक युग का अंत है . शिव की बेटी शिव के सायुज्य में पुनः चली गई लेकिन उनके चाहने वालों को भरोसा है कि वे अपने साथ अपना पसंदीदा दो जोड़ा पान जरूर ले गई होंगी.