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हमारे राष्ट्रपति: अपनी सैलरी का आधा देश के लिए छोड़ देते थे राजेन्द्र प्रसाद

सर एस. राधाकृष्णन ने कहा था-डॉ. राजेन्द्र प्रसाद सादगी की मूरत हैं

Chandan Srivastawa

अपनी ऊंचाई में शाहाना जान पड़ती दीवार पर सुनहरे फ्रेम से मढ़ी एक आदमकद तस्वीर ! तस्वीर का श्वेत-श्याम रंग जैसे अपने वक्त के बीत जाने की गवाही था और उसे लौटा लाने की नाकाम रह जाने वाली कोशिश भी !

माथे पर उजली गांधी टोपी, होठों पर वही बच्चों की मासूमियत को मात करती हंसी मानो मूंछों की सफेदी को झुठला देना चाहती हो. घुटने तक आने वाला बंद गले का कोट और हाथ में एक छड़ी जो किसी को फटकारने के लिए नहीं, खुद की बढ़ती उम्र को सहारा देने के गरज से थामी हुई लग रही थी !


ऊंची दीवार पर टंगी खूब ऊंची टंगी इस तस्वीर पर उजले फूलों की वैजयंती माला कुछ ऐसे लटकी थी मानो तस्वीर में नुमायां हो रही शख्सियत हिन्दुस्तान के हृदयप्रदेश से झांक रही हो ! और, इस तस्वीर के नीचे हाथ जोड़े खड़े थे अब के भारत की संसद को मंदिर कहने वाले प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी !

संसद की दीवार पर टंगी यह तस्वीर भारत के राष्ट्रपतियों में प्रथम डॉक्टर राजेन्द्र प्रसाद की थी. लगभग डेढ़ साल पहले इस तस्वीर ने मीडिया में सुर्खियां बटोरीं. मौका देश के पहले राष्ट्रपति के 131वीं जयंती का था और इसी बहाने प्रधानमंत्री ने 3 दिसंबर 2015 ने इस तस्वीर को ट्वीट किया था.

तस्वीर का मीडिया में सुर्खी बनना लाजिमी था. एक तो बरसों बाद किसी प्रधानमंत्री को देश के पहले राष्ट्रपति की याद आयी थी. दूसरे, प्रधानमंत्री का ट्वीट उनकी दलगत निष्ठाओं से ऊपर उठकर देश के राजनीतिक इतिहास को याद करने की निशानदेही कर रहा था. तीसरे, मीडिया की दिलचस्पी की एक वजह हो सकता था तस्वीर से जुड़ा संक्षिप्त संदेश. इसमें प्रधानमंत्री ने डॉ. राजेन्द्र प्रसाद की ‘राष्ट्रसेवा’ को याद किया था.

सवाल पूछा जा सकता है कि जिस देश में राष्ट्रपति के ओहदे को अच्छी भाषा में ‘शोभा का पद’ कहा जाता हो और मिजाज तनकीद का बन पड़े तो सीधे-सीधे रबर स्टांप कह दिया जाता हो, वहां इस पद पर आसीन कोई व्यक्ति आखिर कौन-सी ऐसी ऐतिहासिक भूमिका निभा सकता है कि ‘ अनुकरणीय राष्ट्रसेवा’ जैसे भारी-भरकम शब्द के साथ उसे याद किया जाय ?

राष्ट्र-सेवा के मायने

विकीपीडिया से साभार

प्रधानमंत्री ने जब डॉ. राजेन्द्र प्रसाद की ‘राष्ट्रसेवा’ को ‘अनुकरणीय’ कहकर याद किया निश्चित ही वे कुछ वैसा ना याद दिलाना चाहते होंगे जो इतिहासकारों का विषय है और जिसे दस्तावेजों को खंगालकर निकाला जाता है. लोकप्रियता के शिखर पर सवार प्रधानमंत्री मोदी को यह खूब पता था कि एक इतिहास वह भी होता है जिसे लोग एक-दूसरे को मुहावरे में कहते-बताते हैं. ऐसा होता है जब कोई घटना या व्यक्ति आगे के वक्तों के लिए एक संदेश बन जाये.

लोगों की मुंहजबानी सुनाये जाने वाले इस इतिहास में अचरज का पुट होता है तो श्रद्धा का भाव भी, लेकिन इन सबसे ज्यादा होता है अपनी जिंदगी के लिए कसौटी तय करने की ललक. और, अक्सर जनता-जनार्दन सार्वजनिक महत्व के पदों पर बैठे किसी व्यक्ति के बारे में भी फैसला इसी कसौटी पर परखकर सुनाती है. प्रधानमंत्री ने जब 131 वीं जयंती पर देश के पहले राष्ट्रपति को याद किया तो उसके पीछे एक वजह रही यह पहचान कि यह व्यक्ति आगे की पीढ़ियों के लिए ‘सादा जीवन-उच्च विचार’ का संदेश बन गया है.

डॉ. राजेन्द्र प्रसाद की महिमा इस बात में नहीं है कि वे लगातार 12 सालों तक देश के राष्ट्रपति रहे और इस तरह राजनीतिक प्रतिस्पर्धा के बीच अजातशत्रु होने का एक कीर्तिमान बनाया. कीर्तिमान तो उन्होंने हमेशा बनाये.

बिहार का शायद ही कोई विद्यार्थी हो जिसे घर, स्कूल या राह-चलते किसी से कभी यह ना सुनने को मिला हो कि पढ़ो तो राजेन्द्र बाबू जैसा- आखिर उनकी परीक्षा की कॉपी पर परीक्षक ने लिख दिया था- द एक्जामिनी इज बेटर दैन द एक्जामिनर ! लेकिन राजेन्द्र बाबू की महिमा एक प्रतिभाशाली विद्यार्थी के रूप में किंवदंति बन जाने में या वकालत के चमकते पेशे को छोड़कर महात्मा गांधी के पीछे लग जाने में नहीं है. कहा जाता है, वकालत के दिनों में जिरह के वक्त जब राजेन्द्र प्रसाद के मुकाबिल खड़े वकील मामले में नजीर पेश करने में नाकाम रहते थे तो जज की कुर्सी से कहा जाता था, डॉ. प्रसाद ! अब आप ही इनकी तरफ से कोई नजीर पेश कीजिए !

सूबाई पहचान के आंदोलन का कोई प्रेमी चाहे तो यह भी याद दिला सकता है कि विद्यार्थी जीवन में उनकी सियासी सूझ-बूझ निखरी हुई थी और इसी का प्रमाण है 1908 में उनकी कोशिशों से हुई बिहारी स्टूडेंट्स कांफ्रेंस. यह अपने वक्त का अनोखा जमावड़ा था और 1920 के दशक के बिहार को इसी कांफ्रेंस ने चमकदार नेता दिए.

गांधी के आदेश पर चंपारण सत्याग्रह के दौरान निलहे जमींदारों के सताये भोजपुरिया किसानों की शहादत अंग्रेजी में दर्ज करने करने की मुंशीगीरी से लेकर कांग्रेस अध्यक्ष का ओहदा संभालने तक या फिर उससे भी आगे संविधान-सभा की अध्यक्षता करने तक ऐसे सैकड़ों प्रसंग गिनाये जा सकते हैं जिन्हें बतौर व्यक्ति और नेता राजेन्द्र प्रसाद की उपलब्धि या फिर कीर्तिमान कहा जा सके.

लेकिन ये बातें काफी नहीं हैं. स्वाधीनता आंदोलन के दौर में ऐसे प्रसंग कमो-बेश सभी बड़े नेताओं में खोजे जा सकते हैं. इन बातों को सामने रखने से इस तथ्य की व्याख्या नहीं होती कि आखिर एक राजनेता के रूप में डॉ. राजेन्द्र प्रसाद का जीवन क्योंकर जनता-जनार्दन के बीच एक लोकप्रिय संदेश में तब्दील हुआ ?

वह जो सबसे साधारण है..

photodivision.gov.in से साभार

इस प्रश्न के उत्तर के लिए हमें खोजना होगा कि डॉ. राजेन्द्र प्रसाद ने अपनी सियासी जिंदगी के लिए किस निजी आस्था को आधार बनाया था. इस आस्था से देश की आम जनता का क्या रिश्ता हो सकता है ?

उत्तर की खोज के लिए हमें पुराने वक्तों में लौटना होगा, उन घड़ियों में जब देश को गणतंत्र घोषित करने वाला संविधान लिखकर पूरा हुआ और अब सबकी अनुमति से उस पर दस्तखत होने शेष थे.

सभा में संविधान के लिखित रूप को मंजूर करने का प्रस्ताव पारित होने से ऐन पहले अध्यक्ष के रूप में डॉ राजेन्द्र प्रसाद ने अपने भाषण में अदना-अव्वल हर एक नागरिक को मिले मतदान के अधिकार के सवाल पर बोलते हुए एक जगह कहा—'कुछ लोगों को सार्विक मताधिकार प्रदान करने को लेकर शंका है..लेकिन मैं इससे हताश नहीं हूं. मैं गांव का आदमी हूं, काम के सिलसिले में बहुत दिनों से शहर में ही रहना हो रहा है तो भी मेरी जड़ें अब भी गांव में हैं और मैं गांव के लोगों को जानता हूं जिनकी तादाद मतदान करने वालों मे बहुतायत होने वाली है. मैं जानता हूं, हमारी (ग्रामीण) जनता सूझबूझ और बुद्धि-विवेक के मामले में धनी है. उनके सोचने का एक खास तरीका है जिसे आज के पढ़े-लिखे लोग चाहे ना सराहें लेकिन वह तरीका बड़ा कारगर है. वे पढ़े-लिखे नहीं, लिखने-पढ़ने की मशीनी कला उन्हें नहीं आती लेकिन मुझे रत्ती भर भी संदेह नहीं कि अगर उनके आगे बातें रखी जायें तो वे अपने हित और राष्ट्र के व्यापक हित में फैसला कर सकते हैं... मैं यही बात उन लोगों के लिए नहीं कह सकता जो अपने नारे सुनाकर और अव्यावहारिक योजनाओं की सुंदर-सुंदर तस्वीरें दिखाकर उन्हें प्रभावित करने की कोशिश कर सकते हैं लेकिन मुझे लगता है वे लोग(ग्रामीण जनता) अपनी गहरी सूझ-बूझ के बूतों चीजों को एकदम सही-सही भांप लेंगे.'

बड़ी कठिन घड़ी थी वो जब भारत जैसी विराट सभ्यता को एक गणतंत्र घोषित करने का फैसला देने वाला संविधान बना. संविधान-निर्माताओं के सामने बड़ा जाहिर था कि दुनिया में कहीं भी लोकतंत्र ऐसी जगहों पर अपनी जड़ें नहीं जमा सका है जहां ज्यादातर लोग अनपढ़ हों, जहां गरीबी देश की पहचान हो और जहां देश के एक कोने से दूसरे कोने के बीच कोई एकता कायम करने चले तो ना बोली-भाषा, धर्म-परंपरा एक समान मिले और ना ही साझे का कोई ऐतिहासिक अनुभव ! ऐसी कठिनाई के बीच के बीच राजेन्द्र प्रसाद को देश के सबसे साधारण आदमी की विवेक-बुद्धि पर यकीन था, एक पल को भी गरीब और अनपढ़ आदमी के मानवीय विवेक से उनका यकीन नहीं डोला.

साधारण आदमी के विवेक पर यह आस्था ही राजेन्द्र प्रसाद के जीवन को इस देश की जनता-जनार्दन के लिए एक अनुकरणीय संदेश में बदलती है.

सादगी की मिसाल

राजेन्द्र प्रसाद और जवाहरलाल नेहरू

राष्ट्रपति के पद पर रहते डॉ. राजेन्द्र प्रसाद साधारणता की ताकत को एक पल के लिए नहीं भूले. राष्ट्रपति भवन में रहे लेकिन जिंदगी ऐसी रखी कि जब चाहें गांव के सबसे गरीब आदमी को गले लगा सकें.

सोचिए कैसा रहा होगा वह मनुष्य जिसका नाम लो तो गांव के बुजुर्ग आज भी बतायें कि तनख्वाह तो उनकी 10 हजार की थी लेकिन आधा पैसा सरकार के खाते में ही छोड़ देते थे कि देश की सेवा में लग जाए. डॉ. राजेन्द्र प्रसाद के परिवार जन बताते हैं कि ‘बाबूजी ने राष्ट्रपति रहते अपने बाद के दिनों में वेतन का सिर्फ एक चौथाई (2500 रुपए) लेना मंजूर किया था’

इस वेतन पर भी किसी ने अंगुली उठायी. लिखा मिलता है कि राष्ट्रपति पद पर रहते राजेन्द्र बाबू ने कार खरीदी. किसी ने ध्यान दिलाया कि इतने वेतन में कार तो नहीं खरीदी जा सकती. बस क्या था, बात की बात में उन्होंने कार लौटा दी.

राष्ट्रपति रहते बस एक चीज जमा की थीं उन्होंने. विदेश से कोई मेहमान आये तो उसके दस्तखत अपने पास संजोकर रखते थे. पद पर रहते जितने उपहार मिले सबके सब उन्होंने सरकारी खजाने को लौटाये. परिवार के लोगों के साथ भी यही व्यवहार रखा. घर में बेटियों की शादी होती थी तो प्रथा के मुताबिक उन्हें साड़ी भेंट करनी होती थी. लेकिन देश के पहले राष्ट्रपति को यह मंजूर ना था कि साड़ी खरीदकर दी जाए. खुद बुनते थे और वही बुनी हुई खद्दर की साड़ियां ससुराल जाती बेटियों को उपहार में मिलीं.

मन में पद को लेकर रत्ती भर भी गुमान नहीं आया. घर के बच्चे मिलने आते थे तो पत्नी यही बताती थीं कि ‘ये तुम्हारे दादाजी हैं, ना कि यह कि देश के राष्ट्रपति हैं.’ ऐसा कोई उदाहरण नहीं मिलता जब उनके घर के लोगों ने राष्ट्रपति का परिवारी जन होने के नाते सार्वजनिक जीवन में किसी सहूलियत या सुविधा की मांग उठायी हो.

सादगी की एक मिसाल यह भी है कि 12 साल राष्ट्रपति का पद संभालने के बाद जब यह ओहदा छोड़ा और सेहत ने दगा देना शुरू किया तब भी दिल्ली में रहकर सरकारी सुविधा पर बेहतर उपचार कराना ठीक ना समझा. कोई घर-मकान नहीं लिया, कहा ‘लौटकर वहीं जाऊंगा जहां से चलकर आया हूं.’ आखिरी वक्त में पटना के सदाकत आश्रम में रहे, गंगा के घाट के एकदम नजदीक !

देश की संविधान-सभा ने डॉ. राजेन्द्र प्रसाद की सादगी को रेखांकित किया था. उनके अध्यक्ष पद पर आसीन होने पर अपने भाषण सर एस. राधाकृष्णन ने कहा कि इस संविधान संभा के स्थायी अध्यक्ष डॉ. राजेन्द्र प्रसाद सादगी की मूरत हैं, उसकी ताकत के प्रतीक ! यही भारत का दुनिया को धर्मोपदेश(गॉस्पेल) भी है, महाभारत में आया है— मृदुणा दारुणं हन्ति, मृदुणा हन्ति अदारुणाम्.. सादगी सबसे बड़ी कठिनाई पर विजय पा सकती है और सादगी सबसे कोमल पर भी जीत हासिल करती है.'