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दो बीघा जमीन से टॉयलेट एक प्रेम कथा तक कितनी बदली देशभक्ति वाली फिल्में

हो सकता है आगे देश हित में हम में लव एट नोटबंदी और इश्क जीएसटी वाला जैसी फिल्में भी देखें

Animesh Mukharjee

इस हफ्ते अक्षय कुमार की फिल्म ‘टॉयलेट एक प्रेम कथा’ रिलीज हुई है. फिल्म प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के शुरू किए गए स्वच्छ भारत अभियान की बात करती है. इस फिल्म के बाद कई जगह पढ़ने को मिला कि अक्षय कुमार को अगला मनोज कुमार घोषित कर देना चाहिए. मनोज कुमार यानी मिस्टर भारत, देशभक्ति का संदेश देने वाली फिल्में बनाने वाले हीरो.

हमारा सिनेमा हिंदुस्तान के आजाद होने तक न सिर्फ अपने पैरों पर खड़ा हो चुका था, बल्कि डगमगा कर ही सही चलने लगा था. देश की आजादी और उसके बाद पिछले सात दशकों में हिंदुस्तानी सिनेमा में देशभक्ति की फिल्मों ने भी कई मोड़ों से होते हुए लंबा सफर तय किया. देशभक्त नायक का मतलब समय के साथ मास्टर जी से गब्बर और ‘अ वेडनस डे’ के आम आदमी तक बहुत बदल गया है.


आज जब भ्रष्टाचार का स्केल 60 के दशक की तुलना में बहुत बढ़ गया है तो हमारे हीरो की ‘लार्जर दैन लाइफ’ होने की मजबूरी उसे ‘गर्म हवा’ और ‘दो बीघा जमीन’ का आम आदमी नहीं होने देती.

आज के नायक का देशभक्त होने के लिए किसान नहीं हो सकता. उसे एयरलिफ्ट, ढिशुम या फोर्स जैसा ही कुछ करना पड़ेगा. आइए देश की आजादी के मौके पर बात करते हैं अलग-अलग तरह की देशभक्ति फिल्मों की.

सब कुछ सुधर जाएगा

आजाद भारत के पहले दूसरे दशक में हर चीज पर नेहरू का प्रभाव है. सिनेमा पर भी. चाहे जागृति की बात करें या मदर इंडिया की. नायक या नायिका के देशभक्त होने की पहली शर्त होती थी उसका आम आदमी होना. ‘गरीब के दिल में खुद्दारी और प्रेम कूट-कूट कर भरा होता है’ जैसे क्लीशे डायलॉग आपको इस दौर की हर एक फिल्म में सुनने को मिल जाएंगे.

मगर फिर भी इस दौर की फिल्मों में जो सादगी देखने को मिलती है, वो अब मिलना मुश्किल है. उस दौर के नायकत्व की सरलता को इन फिल्मों के गानों से भी आसानी से समझा जा सकता है. आओ बच्चों तुम्हें दिखाए झांकी हिंदुस्तान की, ऐ मालिक तेरे बंदे हम, जैसे गानों को उनकी सरलता के लिए ही प्रार्थना का दर्जा मिला हुआ है. इस सरलता को हमने किस तरह से खो दिया है जानने के लिए शिक्षा व्यवस्था पर बनी ‘आरक्षण’ जैसी फिल्म देखनी चाहिए.

सोने की चिड़िया की बातें

कभी-कभी लगता है मनोज कुमार की फिल्में सोच के स्तर पर ‘जहां डाल-डाल पर सोने की चिड़िया करती है बसेरा’ गाने का ही एक्सटेंशन है. फिल्म का नायक अब भी किसान, क्लर्क या मिस्टर कुमार होता था मगर गानों में इतिहास का बोध बढ़ गया था. ‘जब जीरो दिया मेरे भारत ने’ या ‘रंग हरा हरि सिंह नलवे से’ जैसे गानों में इतिहास की क्लास का पूरा स्लेबस समाया सकता है.

चीन के युद्ध पर बनी ‘हकीकत’ में जहां युद्ध की वीभत्सता को दिखाया गया है उपकार में जय जवान जय किसान को सामने रखा गया, मगर कहीं न कहीं किसान पीछे जा रहा था, युद्ध आगे बढ़ रहा था.

(फोटो: फेसबुक से साभार)

यलगार हो

70 के दशक के ऐंग्री यंगमैन ने रोजमर्रा के कामों में ही देशभक्ति का काफी कोटा पूरा कर दिया. एक साथ 20 आदमियों को पीटने की क्षमता के साथ उसने ऐसे विश्व रिकॉर्ड बना दिए कि देशभक्त होने के लिए अब कुछ ‘‘लार्जर दैन लाइफ’’ करना ज़रूरी था.

ऐसे में एक विलेन होता जो किसी काल्पनिक अड्डे पर बड़ी सी फौज के साथ हिंदुस्तान पर कब्ज़ा करने के लिए तैयारी करता. हमारा हीरो अपने चार-पांच साथियों को लेकर विलेन महाशय को पूरी तरह से निपटा देता. इस पूरे क्रम में जोरदार डायलॉग बोनस के रूप में मिलते थे.

‘कर्मा’, ‘यलगार’ और ‘तिरंगा’ जैसी फिल्मों की सबसे बड़ी खासियत है कि अगर इन्हें आप देशभक्ति फिल्म के तौर पर देखते हुए बोर हो जाएं तो कॉमेडी की तरह देखना शुरू कर दें. मिसाइल के बगल में खड़े होकर पाइप पीना और उसकी आड़ में फ्यूज कनेक्टर निकाल लेना कोई छोटा-मोटा मज़ाक थोड़े ही है.

लगान

देशभक्ति से जुड़ी फिल्मों में आमिर खान की लगान का जिक्र अलग से होना चाहिए. न सिर्फ इसलिए कि ये सिनेमा के इतिहास के सबसे रोमांचक और मनोरंजक किस्सों में से एक है, बल्कि लगान ने एक फिल्म के तौर पर वापस ये उम्मीद जगाई कि हीरो जमीनी रहते हुए ‘लार्जर दैन लाइफ’ हो सकता है.

स्वदेश के मोहन भार्गव, चक दे इंडिया के कबीर खान, लगे रहो मुन्नाभाई के मुरली प्रसाद शर्मा में आपको भुवन की परछाई दिख जाएगी. जहां हीरो अपने आसपास के लोगों को साथ लेकर अपने परिवेश को बदलता है. इन फिल्मों की सबसे अच्छी बात ये लगती है कि सभ्य शालीन हीरो हिंदी सिनेमा के चलन की तरह हिरोइन का पीछाकर उसे प्यार का नाम नहीं देता.

देशभक्ति जो असल में खतरनाक है

‘रंग दे बसंती’ बेहतरीन फिल्म है. कुछ कर गुजरने की बात करने वाली इस फिल्म ने लंबे समय तक हमें मोहपाश में बांध रखा है. मगर विचार के स्तर पर ये फिल्म बड़ा नकारात्मक प्रभाव डालती है. हम शायद भूल चुके हैं कि महज कानून हाथ में लेना किसी को भगत सिंह नहीं बना देता.

‘रंग दे बसंती’ की तर्ज पर पिछले दो दशकों में ‘गर्व’ और ‘इंडियन’ जैसी कई फिल्में आईं जिनमें फैसला ऑन द स्पॉट की बात की जाती है. लोकतंत्र की कानूनी प्रक्रिया को परे रखकर हत्याएं करना ही यहां हिरोइज्म है. गौरक्षा और मॉब लिंचिंग के दौर में हमें चाहिए कि इस तरह के सिनेमा पर पुनर्विचार किया जाए.

युद्ध पर बनी फिल्में

हिंदुस्तान में युद्ध पर बनी फिल्में कम ही सफल रही हैं. ‘बॉर्डर’ जैसी फिल्म को छोड़ दें तो ‘एलओसी कारगिल’, ‘शौर्य’, ‘लक्ष्य’, ‘यहां’ और ‘मद्रास कैफे’ जैसी फिल्में क्रिटिक्स की तारीफ के बाद भी बॉक्स ऑफिस पर बहुत यादगार छाप नहीं छोड़ पाईं. इसके पीछे दरअसल कई कारण हैं.

‘बॉर्डर’ की खास बात ये है कि ये युद्ध के वीभत्स चेहरे को दिखाने की जगह नायक को महिमामंडित करती है. कंधे पर बजूका रखे सनी देओल युद्ध के मैदान में टहल रहे हैं और एक-एक को टैंक उड़ा रहे हैं.

‘सेविंग प्राइवेट रायन’ या ‘एनिमी एट द गेट’ जैसा बहता हुआ खून छितराए हुए अवशेष इस फिल्म में नहीं दिखते. वहीं ‘लक्ष्य’ और ‘यहां’ का नायक बहुत फिल्मी होने के बाद भी मार खाता है, लंगड़ाता है, कमजोर पड़ता है. ‘शौर्य’ में तो सेना के मानवाधिकारहनन पर सवाल उठाए गए हैं.

एलओसी कारगिल देखने के बाद कई दर्शकों की पहली प्रतिक्रिया थी कि देशभक्ति की फिल्म में गाली कैसे हो सकती है. सारे हीरो मर कैसे सकते हैं. ये बताता है कि देशभक्ति की हमारी परिकल्पना कितनी ओढ़ी हुई और बनावटी बन चुकी है. या तो हम कानून हाथ में लेकर उसे देशभक्ति का नाम देंगे या युद्ध में मारे गए जवानों की लाशों के सेंसर किए साफ सुथरे वर्ज़न पर तालियां बजा कर देशप्रेम दिखाएंगे.

‘टॉयलेट एक प्रेम कथा’ की सफलता देशभक्ति की फिल्मों में एक नया मोड़ लेकर आएगी. सरकार और सिस्टम से लड़ने वाला नायक अब सरकार के हित में बोलने को देशभक्ति बता रहा है. हो सकता है आने वाले समय मे हम और आप ‘लव ऐट नोटबंदी’ और ‘इश्क जीएसटी वाला’ जैसी फिल्में भी देश के लिए देखें.

खैर, 15 अगस्त को ही हिंदी सिनेमा के इतिहास की सबसे चर्चित फिल्म ‘शोले’ भी रिलीज हुई थी. देश हित के इस बदलते ट्रेंड पर उसके कई सारे डायलॉग दोहरा सकते हैं, मसलन टॉयलेट देखकर ‘सरदार बहुत खुश होगा, शाबासी देगा.’