देश के पूर्व प्रधानमंत्री और भारत रत्न अटल बिहारी वाजपेयी का 94 साल की उम्र में निधन हो गया. वाजपेयी पिछले काफी दिनों से दिल्ली स्थित एम्स में भर्ती थे. बुधवार से ही उनकी हालत बिगड़ने लगी थी और गुरुवार शाम को उन्होंने अंतिम सांसें लीं.
अटल बिहारी वाजपेयी देश के सर्वमान्य नेता थे. भारतीय राजनीति की फलक पर बीजेपी को चमकाने में अटलजी ने महत्वपूर्ण भूमिका अदा की थी. वाजपेयी का व्यक्तित्व ही कुछ ऐसा था कि साथी तो सम्मान करते ही थे, राजनीतिक विरोधी भी उनकी बहुत कद्र किया करते थे.
राजनीति में आने से पहले पूर्व प्रधानमंत्री वाजपेयी पत्रकार और कवि थे. दुनिया उनके भाषणों की दीवानी तो थी ही, लेकिन उनकी कविताएं भी लोगों को मंत्रमुग्ध कर देती थीं. अपने राजनीतिक जीवन के अलग-अलग हालातों पर उन्होंने कविताएं लिखीं. अपने निजी जीवन के अकेलापन और बिगड़ते हालातों पर वाजपेयी ने अपनी भावनाओं को मर्मस्पर्शी और कालजयी कविताओं के रूप में अमर कर दिया.
तमाम लोग वाजपेयी जी की कविता के दीवाने हैं. कई लोगों को उनकी कविताएं जुबानी भी याद हैं. लेकिन हम यहां बात करने जा रहे हैं एक ऐसी कविता की जिसे लिखा किसी और ने, लेकिन लोगों ने उसे अटल जी का मान लिया. दरअसल, इस कविता को अटल जी ने अपनी भाषणों के दौरान इस्तेमाल किया था. लोगों को लगा कि अटल जी खुद ही कवि हैं तो उन्होंने ही इसे लिखा होगा. हालांकि अटल जी ने कभी इस कविता पर अपना दावा नहीं किया. लेकिन लोग उनका ही मान लिए.
अटलजी की तबीयत बिगड़ने की खबर जैसे ही आई थी लोगों ने इस कविता को भी उन्हीं के नाम से लिख कर शेयर करना शुरू कर दिया. क्योंकि खुद अटलजी कवि थे तो लोगों को लगा ही नहीं कि यह किसी और की कविता भी हो सकती है. सबसे खास बात यह है कि यह कविता अटलजी के व्यक्तित्व से काफी मिलती जुलती है, जिस कारण लोगों को यकीन हो जाता है कि उन्होंने ही लिखी होगी.
हम जिस कविता का जिक्र कर रहे हैं वो कुछ इस प्रकार है...
क्या हार में क्या जीत में,
किंचित नहीं भयभीत मैं.
संघर्ष पथ पर जो मिले यह भी सही वह भी सही.
वरदान मांगूंगा नहीं.
दरअसल, यह कविता शिवमंगल सिंह 'सुमन' की है. सुमन की इस कविता का शीर्षक है 'वरदान मांगूंगा नहीं'. इस कविता के इसी अंश को लोग अटल जी का मान कर लिखा करते हैं. आप पहले इस पूरी कविता को पढ़ लीजिए.
'यह हार एक विराम है,
जीवन महासंग्राम है
तिल-तिल मिटूंगा पर दया की भीख मैं लूंगा नहीं.
वरदान मांगूंगा नहीं.
स्मृति सुखद प्रहरों के लिए,
अपने खंडहरों के लिए.
यह जान लो मैं विश्व की संपत्ति चाहूंगा नहीं.
वरदान मांगूंगा नहीं.
क्या हार में क्या जीत में
किंचित नहीं भयभीत मैं.
संघर्ष पथ पर जो मिले यह भी सही वह भी सही.
वरदान मांगूंगा नहीं.
लघुता न अब मेरी छुओ,
तुम हो महान बने रहो.
अपने हृदय की वेदना मैं व्यर्थ त्यागूंगा नहीं.
वरदान मांगूंगा नहीं.
चाहे हृदय को ताप दो,
चाहे मुझे अभिशाप दो.
कुछ भी करो कर्तव्य पथ से किंतु भागूंगा नहीं.
वरदान मांगूंगा नहीं.'
इस कविता को लिखने वाले शिवमंगल सिंह सुमन का जन्म उत्तर प्रदेश के उन्नाव जिले में हुआ था. सुमन की मृत्यु 2002 में मध्य प्रदेश के उज्जैन में हुई. इनकी कविताओं के खुद अटलजी इतने दीवाने थे कि कई दफा सार्वजनिक मंच से कुछ अंश बोला करते थे.
अटलजी ने एक बार सुमन के बारे में बोलते हुए कहा था कि शिवमंगल सिंह सुमन हिंदी कविता के मात्र हस्ताक्षर भर नहीं थे बल्कि वह अपने समय की सामूहिक चेतना के संरक्षक भी थे. उनकी रचनाओं ने न केवल अपनी भावनाओं का दर्द व्यक्त किया, बल्कि इस युग के मुद्दों पर भी निर्विवाद रचनात्मक टिप्पणी की.
अब अटल बिहारी वाजपेयी हमारे बीच नहीं हैं तो उनकी कविताएं, भाषण और देश के लिए किए गए उनके कार्य हमारे बीच हमेशा-हमेशा के लिए रहेंगे.
इस लेख को एक कहानी से खत्म करते हैं, जो शायद इस कविता और अटल बिहारी वाजपेयी के साथ फिट बैठे. मुझसे पहली सी मोहब्बत मेरे महबूब न मांग... लिखने वाले मशहूर शायर फैज अहमद फैज एक बार किसी मुशायरे में गए हुए थे. लोगों ने मांग की कि वह इस शायरी को सुनाएं. इस पर फैज ने कहा था कि इस गजल को अब आप नूर जहां से ही सुनिएगा, क्योंकि यह अब उनकी ही हो गई है. दरअसल, नूर जहां की गाई हुई यह गजल इतनी मशहूर हो गई कि लोग इसे उन्हीं की रचना समझने लगे थे.
अगर शायद शिवमंगल सिंह सुमन से भी यह कविता सुनाने के लिए कहा जाता तो वह भी फैज की तरह यहीं कहते कि यह तो अब वाजपेयी जी की हो गई है...