view all

सहेला रे: बनारस, संगीत और गानेवालियां, मृणाल पांडे की ज़ुबानी

ये उस दौर की कहानी है जब परफॉर्मर नहीं साधक हुआ करते थे

FP Staff

वरिष्ठ पत्रकार मृणाल पांडे अपनी शास्त्रीय संगीत और कला की समझ के लिए भी जानी जाती हैं. उनका नया उपन्यास 'सहेला रे' शास्त्रीय संगीत के उस दौर की किस्सागोई करता है जहां परफॉर्मर नहीं साधक हुआ करते थे. 'सहेला रे' अंग्रेज बाप से जन्मी अंजलीबाई और उसकी मां हीराबाई को केंद्र में रखता है. इसी के बहाने बनारस, घरानेदारी के तार छूता है.

हम राजकमल प्रकाशन की अनुमति से आपको इसका अंश पढ़वा रहे हैं. ये किताब 6 जनवरी से शुरू हो रहे अंतरराष्ट्रीय पुस्तक मेले और ऑनलाइन उपलब्ध होगी.


सहेला रे...

मेरे सीनियर कैम्ब्रिज करते करते अम्माजानी का इंतकाल हो गया. उनके गुज़रने के बाद हमारी अम्मा उस भांय-भांय करती शेरकोठी में एकदम अकेली पड़ गईं. पहले जैसे नामचीन गायकों-बजैय्यों से सजे-सजाए मुजरे और महफिलें सजानेवाले रईसों का ज़माना तो अम्माजानी के रहते ही बीत चला था. अम्मा हमारी को इधर-उधर भागादौड़ी कर महफिलें सजाने, गाहक बनाने में कोई खास इंटरेस्ट न था. मुख्तसर-सी उनकी आमदनी बागीचे के फल-फूल बेचकर हो जाती थी, बाकी गहना-गुरिया था पुराने वक्तों का, वही बेच-बाचकर काम चलाया जाने लगा. बदलाव के उन तकलीफदेह दिनों में जनाब 'तपिश’ ने उनको बड़ा सहारा दिया, जिसकी वे खामोश तबीयत होने के बावजूद बड़ी शुक्रगुज़ार थीं. बाद को जब मैं यहां परदेस चली आई और शेरकोठी बिक गई, तब भी अम्मा को उन्हीं ने आखिरी वक्त में बड़े खुलूस से पनाह दी.

वो कैसा रिश्ता था जनाब तपिश साहेब और अल्लारख्खी का, कहना मुश्किल है. पर कम से कम तपिश साहिब के लिए तो उस रिश्ते की बुनियाद में जिस्मानी मुहब्बत से कहीं ज़्यादा एक किस्म की परस्तिश रही आई. बेचारे तो बस इतने से ही खुश हो रहते कि बी अल्लारख्खी जैसी कलावंत उनको अपना भरोसेमन्द सरमायेदार कहती-मानती हैं.

उम्मीद शायद अम्मा के दिल में यही रही होगी कि कभी तालीम पूरी कर के मैं बंबई से वापस उनके पास लौट आऊँ और अपने खानदान की मौसीकी की विरासत थाम लूं. पर कानवेंट की साफ-सुथरी सादगीपसन्द तालीम के बाद मुझे उस सिसकती और लगातार दरकती दुनिया से खासी नफरत हो चुकी थी. अपने खानदान में मैं ही पहली थी जिसने अंग्रेज़ी में पढ़ाई की थी और अच्छे नम्बरों से नवाज़े जाने के बाद ऊंची तालीम की तरफ मुड़ना चाहती थी. मैं अड़ गई कि मुझे यहीं रह कर जो कुछ करना है सो करना है. तुम चाहो तो यहीं घर ले लो. वहां क्या बचा था? काफी दिन हमारी खत-ओ-किताबत चली. आखिरकार अम्मा ही शेरकोठी पुराने चाकरों के हाथों संभलवा के कुछ अर्से को मेरे पास रहने बंबई आ गईं कि मन न लगा तो चली जाएँगी वापस. पहले-पहल हमने बांद्रा में एक घर किराये पर लिया जो नानी की पुरानी वाकिफ शरीफा जान की बेटी की बेटी रिफ्फत आपा का था. निचले तल्ले पे वो दोनों मां बेटी लतीफन और रिफ्फत, ऊपर की मंजि़ल में हम.

बंबई में पैसे की कमी हम लोगों को काफी परेशान रखती थी. सो मैंने और अम्मा ने प्लेबैक सिंगिंग की मांग पर गौर किया और रफ्ता-रफ्ता रिकार्डिंग कम्पनियों के चक्कर लगाने शुरू कर दिए. हमारी मालिकमकान, लतीफन खाला अम्मा की ही तरह गिरस्तनों वाले मर्दों की चोंचलेबाज़ी और उनके घरवालों की उन पर कड़ी पकड़ से बार-बार दो-चार हो चुकी थीं. और अब तक वे गाने के साथ-साथ कमर्शियल पारसी थियेटर में एक्टिंग भी करने की हिमायती बन चुकी थीं. उनका कहना था कि अम्मा भी चाहें तो वो उनको चन्द बड़े पारसी सेठों से मिलवा सकती हैं जो गवनहारियों की तलाश में थे. थियेटर में नाम और नामा दोनों भरपूर था. अलबत्ता हमारी अम्मा ने साफ कर दिया कि मुंबई में तो वे बजि़द मुश्ताक हुसेन खाँ साहिब और केसरबाई की तरह सिर्फ और सिर्फ गाने के लिए किया तो सिर्फ फिल्मों की तरफ रुख करेंगी. यह बात उन्होंने मज़बूती से उन तमाम कम्पनियों और सेठों से भी मिलने पर कही, जिनको उनकी तालीमी और वज़नी आवाज़ बहुत जँची थी, पर वो लोग डेरेदार तवायफों से भाव-ताव के आदी न थे.

मेरी एक टीचर मिस ड कॉस्टा के रिश्तेदार डेविड मनेज़ेस साहिब हमारे मददगार बने. वो तब एंपायर थियेटर में अंग्रेज़ी की सायलेंट फिल्मों के साथ पियानो बजाते थे और अम्मा के मुरीद थे. पर दिक्कत यह पेश आई कि वाडिया मूवीटोन, बॉबे टाकीज़, मोहन स्टूडियो, फिल्मिस्तान यह सब बैकग्राउंड म्यूजि़क मांगते थे. रिकॉर्ड कम्पनियां फी रिकॉर्ड सौ रुपया देतीं. और सितारिये हों या कि तबलिए, सबके लिए लगातार बिन ब्रेक के बजाना-गाना ज़रूरी था. नए वक्त की ये नई मांग भी पूरी की सबने! आज जिसे हम लोग शायद मल्टि टास्किंग कहेंगे. तीन चेनॉय ब्रदर्स ने भी इसी समय आगरे के नामी उस्ताद फैयाज़ खाँ साहिब को अपने स्टूडियो से गवाया. अलबत्ता किराना घराने के खलीफा मुकर गए. फीस वही सौ रुपए फी प्रोग्राम. उन दिनों सिर्फ रौशनआरा या अंजलीबाई के कद-बुत की गवनहारियों को नगद हज़ार रुपए की रिकार्डिंग फीस मिलती थी. अब इनमें से भी पहली तो चल दीं मियां का हाथ थामकर पाकिस्तान, बच रहीं बस अंजलीबाई. जलंधर के कोई बाली साहिब धुनें बनाते, वे गातीं. रुपया उन पर बरसता था.

उन्हीं दिनों रेडियो और रिकॉर्डिंग की दुनिया के एक दूसरे बड़े नामचीन शख्स, जनाब गुलाम हैदर अम्मा से मिले और इस कदर इम्प्रेस हुए कि उनकी इनायत से अम्मा को इंडस्ट्री में धड़ाधड़ काम मिलने लगा. अब जाकर हमारे माली हालात इतने सुधरे कि मैं अपनी पढ़ाई जारी रख सकी.

अम्मा का पहला गाना जनाब गुलाम साहिब के लिए ही रिकॉर्ड हुआ था, 'हाय मुझे कहीं का न छोड़ा’. जब रिहर्सल होता, तो गुलाम साहिब झूम-झूम के सिगरेट के टिन पर ठेका देते रहते. नसीब का खेल देखिए. लगातार सिगरेटें फूँकनेवाले गुलाम हैदर साहिब और अम्मा की जोड़ी हिट होने के साथ ही उनके घर पर भूचाल आ गया. अपनी बीबी से उनकी इस बनारसी तवायफ से उनके रिश्तों को लेकर दिन-रात खटकने लगी. हालात ऐसे बन गए कि हैदर साहिब की तबीयत नासाज़ रहने लगी. आखिरकार अम्मा ने हाथ जोड़ के उनकी बेगम से साफ-साफ कह दिया कि वो तो सिर्फ बराये अपने हुनर खान साहिब से लगाव रखती रहीं, अगर उनको नहीं सुहाता तो बहन आप अपने मियां को खुद ही सँभालें. आशिकी-माशूकी के चोंचलों से खुद उनका दिल काफी पहले ही उचाट हो चुका है.

इसके बाद जाने किस तरह अम्मा के नए जानकारों में एक रंगीनमिजाज़ और बड़बोले पंजाबी रईस जतिंदर हमारी जि़न्दगी में घुस आए. मुंबई आने से पहले उन्होंने यू पी साइड की कई घुमंतू थियेटर कम्पनियों में पैसा लगाया-गँवाया था और अब फिल्मों में तकदीर आजमाने के ख्वाहिशमन्द थे. उन दिनों बंटवारे की धमक हर जगह थी सो रिफ्फत आपा मुंबई का घर बेच के पाकिस्तान जाना चाहती थीं. अम्मा से उनने कहा कि उनका घर हम खरीद लें. पर इतना पैसा हमपे उस दम नहीं था. वह घर बिक गया और फिर एक दिन हम जतिंदर चढ्ढा साहिब के फ्लैट में रहने आ गए.

अब तक काश्मीर से तशरीफ लाए एक जनाब ड्रामानिगार और बड़े कादिरुलकलाम शायर साहिब से भी अम्मा का दुआ-सलाम बन गया था. अम्माजानी के साथ हमारी मां को भी थियेटर देखने की गहरी लत लगी थी ही. और बेहद रसीले किस्सागो जनाब साहिब तो पारसी थियेटर की दुनिया के जगमगाते सितारे ही नहीं, एक नायाब डिक्शनरी भी थे. अम्मा सरीखी कमगो लेकिन मुगन्निय फनकारा से जल्द ही उनके काफी बेतकल्लुफ ताल्लुकात बन गए और आने-जाने का सिलसिला बंध गया. जतिंदर की त्योरियां चढ़ने लगीं, पर अम्मा की मशहूरी इतनी हो चुकी थी, कि कमीनापन दिखाने से उनकी ही हेठी होती. जब अम्मा और मैं उनके फ्लैट से एक नए घर में आ गए तो जनाब जतिन साहिब भी दहेज की तरह हमारे साथ-साथ चले आए.

जतिन सेठ बड़ा ही चिपकू इनसान था. मुझे कतई उसका साथ-साथ बने रहना नहीं सुहाया लेकिन मैं खामोश रही. इन तमाम वाकयात पर मुझसे अमूमन खामोश दूरी बरतनेवाली अम्मा से मेरे ताल्लुकात हमेशा से ही कुछ अजीब तरह से नाज़ुक थे सो उनसे इस बाबत क्या कहती? पर मेरी ही तरह हमारी पुरानी नौकरानी शरबतिया को भी जतिन सेठ अपनी शराबनोशी और बात-बात पर हाथ छोड़ने की आदत के चलते शुरू से नापसन्द था. उसे चैन था तो सिर्फ यह कि बीवी की ड्रामानिगार से करीबियां बढ़ते एक दिन उसका बोरिया-बिस्तर भी बंधना ही था.

पर जब बंधा तो बड़े भद्दे तरीके से. 'जानो बिटिया,’ शरबतिया ने बताया, 'हमार बाई जी तो बस आपन रियाज़ रिकॉर्डिंग और मोहम्मद शाह साहिब के ड्रामों में खोई थीं. एक रोज़ पंजाबी मुसकाय के आंखी मार बेगम साहिबा से कहने लगा कि जानी, तुम इस आंख के अन्धे गाँठ के पूरे मियां जी से करीबी का फायदा उठाकर कोई मोटा रोल छाँट लो! सिर्फ पक्के गाने से कुछ पइसा टका नहीं मिलेगा. तमाम और तवायफें भी तो गाने के साथ एक्टिंग कर रही हैं, तुममें ही क्या सुरखाब के पर लगे हैं? कहो इस चालू चिकने मियां से कहीं टाँका भिड़वा दें तुम्हारा.

'जी नहीं,’ हमारी बेगम साहिबा कहकर उठ गईं. वो भीतर जा रहीं थीं, कि नशे में चूर जतिन चड्ढा ने उनको तमाचा जड़ दिया. अब बेगम साहिबा तो हाय अल्ला, कर के कुर्सी पर बैठ गईं बस. तो हमको आया ताव! अरे हम भी शेरकोठी की गिज़ा खाए हैं. हलहला के बावर्चीखाने से निकले, हँडिया पकाते थे, हाथ में कड़छी थी, सो दन्न से उस नामुराद के वो कड़छी मारी कि सारा नशा हिरन हो गया. अगले ही दिन जोर-जोर से गालियां बकते अपने घर वापस चले गए जतिन सेठ.

ड्रामानिगार गुलाम मुहम्मद साहिब काश्मीरी थे पर पुरखे कालीन के व्यापार के सिलसिले में बनारस आन बसे थे. मिजाज़ में शुरू से रंगीनी थी, और कोठों का आना-जाना भी रहा. संगीत के अच्छे जानकार थे और अम्माजानी और उनकी बनारस से बाहर बड़ा नाम कमा रही बेटी यानी हमारी अम्मा अल्लारक्खी का भी नाम सुने हुए थे. जब से उनकी बेगम का इन्तकाल हुआ वे खुद को दिन-रात अपनी लिखाई-पढ़ाई और थियेटरी काम में मसरूफ रखने लगे थे. मुझे उनसे कोई प्रॉब्लम नहीं था. पढ़े-लिखे तहज़ीबयाफ्ता इनसान थे और अम्मा से बड़ी मोहब्बत से पेश आते थे. उनसे बनारस अंग की गायकी से लेकर खाने के प्रकारों तक पर घर में काफी अच्छे लेविल की गुफ्तगू हुआ करती थी. उन दिनों थियेटर की दुनिया में आई कमज़र्फ टकहिया बाज़ारू औरतों की आमद से एक तरह का उजड्डपना और लालच आ गया था, जिससे वो दूर रहना बेहतर समझते थे.

पारखी आदमी थे. किताबों के बेहद शौकीन, हमारी अम्मा की ही तरह. जल्द ही कोई न कोई बढ़िया किताब देने के बहाने हमारे घर आने-जाने लगे. मुझसे अलबत्ता हमेशा आंख का पर्दा बनाए रखा. और कभी सामने पड़ भी जाते तो मुझसे की गई उनकी हर बात में मिठास, आजिज़ी और हश्रियत होती. झूठ क्या कहूं उनकी आमद ने हमारे घर में गुलाम हैदर साहिब के घरेलू झगड़ों और जनाब जतिंदर चड्ढा की नाकाबिल-ए-बरदाश्त हरकतों की यादों से पैदा हुई कड़वाहट काफी हद तक मिटा दी.

अपने इकलौते और पहले आशिक मोती पंडत की मौत के बाद पहली बार एक पढ़े-लिखे, निहायत पुरलुत्फ बातचीत करनेवाले उस फनकार से अम्मा की हर मुलाकात अपनाइयत के नए दरवाज़े दोनों के बीच खोलने लगी. इत्तेफाक से उन्हीं दिनों अम्मा के पेट में शिद्दत से दर्द रहने लगा. डॉक्टरों ने बताया कि पेट में पथरी है जिसे आपरेशन कर जल्द अज़ जल्द निकलवाना होगा. अम्मा अस्पताल जाने से पेश्तर आगा साहिब से मिलने गईं तो वे घर पर नहीं मिले. वो दो सतरें लिखकर छोड़ आईं कि आज मैं जि़न्दगी और मौत से लड़ने जा रही हूं. अगर जि़न्दगी जीतती है तो ज़रूर फिर मिलेंगे, वर्ना खुदा हाफिज़.

नर्सें अम्मा को स्ट्रेचर पर लिटा के ऑपरेशन थियेटर को ले ही जा रहीं थीं कि साहिब भी आन पहुँचे. बड़े घबराए लहजे में नर्सों से कहने लगे कि क्या आप मुझे इनको ऑपरेशन थियेटर ले जाने की इजाज़त देंगी? वो तमाम जनीं साहिब की शख्सियत से वाकिफ थीं, मान गईं. भीतर भेजने से पहले साहिब ने उनका हाथ थाम के कहा कि अल्लारख्खी जान तुमको कुछ नहीं होगा. फिर शेर पढ़ा :

'सब कुछ खुदा को मांग लिया तुझको मांगकर,

उठते नहीं हैं हाथ मेरे इस दुआ के बाद.’

जब अम्मा अस्पताल से ठीक हो के घर वापस लौटीं, तो साहिब का नया नाटक फिर हिट रहा था. अम्मा को एक बेशकीमत हीरे की अँगूठी पहनाकर साहिब ने कहा कि ये आपकी सेहतयाबी और हमारी कामयाबी की खुशी में. और ये मशहूर मिसरा भी कहा कि मैं सारी जि़न्दगी खुद को एक अधूरा मिसरा समझता रहा, पर तुमसे मिलने के बाद शेर बन गया हूं. अम्मा के नसीबों में ये सुख भी अधिक दिन को नहीं बदा था. हफ्ता भी न बीता होगा कि एक सुबह अचानक कहर बरपानेवाली खबर आई. आगा साहिब का नींद में ही दिल का दौरा पड़ने से इन्तकाल हो गया.

इसके बाद हमारी अम्मा का मन बंबई से कतई उखड़ गया.

'बस तेरी पढ़ाई हो जाए तो मिट्टी डालें इस नाचगाने के पेशे पे, जिसकी वजह से हर ऐरा-गैरा सीधे कलाई पकड़ने को घर के भीतर चला आता है.’ वे एक दिन बोलीं.

जाने क्यों मेरे भीतर अचानक सालों से दबाया गुस्सा बाहर उमड़ने लगा. क्यों? क्या उम्र-भर मैं अब आपके कहे से शहर-दर-शहर भटकती ही रहूं? पैसा कमाने को हर तरह के मर्दों के आगे जूतियां चटखाने का शौक आपको मुबारिक हो. मुझे अब बख्श दें. बहुत हुआ. पुरानी नन्स सुबह बच्चों को डांस म्यूजि़क सिखाने की एवज में मुझे एक ठीक-ठाक हवादार कमरा देने को तैयार हैं. मेरी फिक्र छोड़ें, कल की जाती आप आज ही रुखसत हो जाएँ.’

बाद को शुबरातन को सुबकते देखा तो शर्मसार होकर सोचा कि उनके हुनर और शेरकोठी छोड़कर यहां चले आने के बूते ही तो मैं यह उम्दा तालीम पा सकी, उनसे ही खानदानी हुनर भी तो सीखा. फिर मन में कंकर-सा कुछ गड़ा, मुझे अपना कब समझा इन्होंने? साथ रहेंगी तो फिर दिन-रात की किटकिट. अम्मा का सामान बंधने लगा. मैं खामोश रही. जाती बिरिया भी उनसे माफी नहीं मांगी (मोती पंडत का अड़ियल सुभाव जो ठहरा!) बस यह वादा ज़रूर किया कि मौसीकी का दामन नहीं छूटेगा और मैं हर शाम लोकल पकड़कर बदस्तूर भिंडी बाजार अपने उस्ताद के घर भी जाती रहूंगी.

अम्मा और शुबरातन जाने को तैयार ही थे कि जभी अचानक बुंदू मियां का बेटा वहीद का, जो तब तक अमरीका जाके वहां अपना नाच-गाने का स्कूल चलाने भी लगा था, खत आया. उसने लिखा था कि खाला, राजे ज़मींदार तो रहे नहीं, इन भाँडों-दलालों की इस दुनिया को छोड़कर आप और हैदरी क्यों न अमरीका चली आवें? मुल्क में तो सच्चे फन की कदर घटती जा रही है, पर यहां हालात ऐसे बन गए हैं कि हर हिन्दोस्तानी पाकिस्तानी बांगलादेशी, सबके सब अपने-अपने बच्चों को क्लासिकी हिन्दुस्तानी नाच-गाने की तालीम दिलवाने को हर कीमत देने को तैयार हैं. मौसीकी का पीढ़ी-दर-पीढ़ी कमाया यह गहरा फन और इतने बरस सीखी हैदरी की अंग्रेज़ी भी तो बहुत काम आएगी. हमने बड़ा-सा घर लिया है आपके आने से कुछ रौनक और हो जाएगी.

मुझे लगा कि वाह, यह अच्छा रहेगा. इस हूश जंगली माहौल से बाहर होकर नए सिरे से सांस ले सकेंगे हम लोग. उस मनहूस शेरकोठी में कौन जा बसना चाहेगा भला? पर अम्मा राज़ी नहीं हुईं. हम वहीं भली, बस इतना ही कहा.

आखिरकार तय किया गया कि मैं तो यह ऑफर पकड़कर बाहर ही चली जाऊँ और वो शेरकोठी चली जाएंगी शुबरातन को लेके. तपिश साहिब को खत लिखा गया. उसके पहुंचते ही वो अम्मा को लिवाने चले आए. सोच-विचार के बाद तय हुआ कि अम्मा वापस जाके सब का पुराना हिसाब-किताब चुकता कर, शरबतिया को आउटहाउस में आबाद करा के शेरकोठी एक बड़े बिल्डर के हवाले कर देंगी. इसके बाद वे तपिश साहिब की कोठी के एक हिस्से में ही खुसूसी से किराये पर रहने को चली जाएँगी. तनिक झिझक के बाद अम्मा ने कहा जैसी ऊपरवाले की मर्जी.

मेरा अमरीका का टिकट कटा दिया गया.

यहां आके शुरू के दिन अच्छे ही रहे, पर फिर वही चक्कर.

अचानक एक दिन वहीद मियां बोले कि वो मुझसे निकाह करना चाहते हैं. काज़ी घर पे आके ही कलमा पढ़वा देगा. मेरी हालत अजीब. ना कहें तो घर में अनबन हो, हां कहने में दिल की नाइत्तफाकी. आखिर बड़ी मुलायमियत से कह दिया कि ये तुम्हारी फराखदिली है. पर मियां, हम ठहरी डेरेदारनियां. हमारी राह किसी भी गिरस्त में कैसे समा सकती है? तिस पर तुम्हारी दो-दो बेगमें आंखों आगे बैठी हैं, उनकी बददुआ हम ना लेंगी. बस उनको सलाम किया और सामान बांधकर न्यूयॉर्क चली आईं. दो महीने बाद बेचारे वहीद मियां एक मोटर एक्सीडेंट में इन्तकाल फरमा गए. भले आदमी थे, ऊपरवाला उनकी रूह को सुकून दे.

अमाल के मरहूम बाप की जानिब हम कुछ नहीं कहेंगी. उनसे कुछ दिनों को दिल मिला फिर उखड़ गया. हमारे नसीब में यही था शायद.

आज मेरी बेटी अमाल अमरीका में ही 'दि ओरियेंटल डांस एंड म्यूजि़क स्कूल’ चला रही हैं. यहां देस को पीछे छोड़ आए हिन्दुस्तानी परिवारों के बच्चे बड़ी तादाद में हिन्दोस्तानी नाच-गाने की तालीम लेने को भेजे जाते हैं. गो’ सच तो ये है बीबी कि जिस मिट्टी में जनम हुआ हो वही हमारी जड़ों को पकड़ पाती है. हमारे संगीत या नाच में अमरीका की पैदाइश वाले बच्चों का दिल नहीं रमता. पराई हवा पानी में पके उनके बदन का लोच कहीं खो गया है, ज़ुबान भी फर्क तरह की बन चुकी है न उसमें नुक्ते हैं, न ही त या ट हरफों के बीच कोई फासला. फिर भी ऊपरवाले की नवाजि़श है कि हर चारेक महीने में फीस बढ़ा देने के बाद भी हिन्दुस्तानी जड़ों के वाल्दैन की एक भीड़ चली आती है. खुद अपनी जड़ों में मट्ठा डालने के बाद अब अचानक अपने बच्चों को जड़ों से वाबस्ता कराना चाहते हैं. अम्मा की प्लेबैक गायकी का यहां भी सिक्का चलता है, उनकी तस्वीर के आगे हाथ वाथ भी जोड़ जाते हैं.

खैर. लगता है हमारी ही तरह यहां की जोड़ियों की किस्मत में भी उम्र-भर का साथ नहीं लिखा है. घर-घर बिना मरद की औरतें या बिना औरतों के मर्द मौजूद हैं जो अपने अकेलेपन से जूझते हर रात नींद की गोलियां खाकर सोते हैं.

इधर कुछ बरसों से अपने यहां की फिल्मों का जादू इन नौदोलतियों के सर पर सवार है. हमारी एक स्टूडेंट की मां पिछली गर्मियों में बड़ी मनुहार से बॉलीवुड से आए स्टार्स के जलसे में ले गईं. कुछ देर हम दोनों बैठीं फिर चली आईं. उस तरह के नाच-गाने से हमारा हिसाब नहीं बन पाया, न बनेगा. पर अब तो वही रास्ता बन चला है. गाने में बंदिश के नाम पर फूहड पंजाबी चुटकुले, नाच के नाम पर भीड़ की भीड़ में स्टेज पर उतरे कई-कई जनखे जैसे छोकरों और अधनंगी लड़कियों का कूल्हे मटकाना.

रात-भर जागती रहीं हम दोनों अगल-बगल. पर उन चन्द नेक बच्चियों को ऊपरवाला खुश रखे जिनकी तालीम के लिए हम दोनों मां-बेटी अब भी सोहनी की तरह कच्चे घड़े लेकर संगीत की नदी में उतर पड़ती हैं. जो पगडंडियां ये तलाश रही हैं, वही तो हम सब भी तलाशती आई हैं.

बस यही कुछ यादें हैं.

आपको यह खत लिखते हुए बहुत सारा दर्द-ए-दिल जो अम्माजानी और अपनी अम्मा को तब न सुना सके, खुद-ब-खुद उमड़ पड़ा सो दिल बड़ा हल्का हो गया है, शायद यही बी’ चाहती होंगी. कोई बात नागवार गुज़रे तो बी’ अल्लारखी की बेटी मान कर मुआफ कर देंगी.

आपकी बहन

हैदरी, बकलम अमाल