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सफदर हाशमी: चौराहे को रंगशाला में तब्दील करता एक जादूगर

लंबे बाल, ऊंची ललाट, खूब उभरी हुई नाक और बहुत बारीकी से देखने वाली चमकीली आंखों वाले उस लंबे-छरहरे नौजवान में वही खूबियां थीं जो एक गीत में होती हैं

Chandan Srivastawa

आज से ठीक तीस साल पहले का वक्त, 2 जनवरी 1989 की तारीख. बहुतों को तो खैर खयाल भी ना आएगा लेकिन कुछ से भुलाया ही ना जाएगा कि इस दिन शासन और सत्ता की नगरी दिल्ली में मजलूमों को जगाने वाले एक गीत का बीच चौराहे पर कत्ल हुआ था.

इस गीत का नाम था सफदर हाशमी. हां, लंबे बाल, ऊंची ललाट, खूब उभरी हुई नाक और बहुत बारीकी से देखने वाली चमकीली आंखों वाले उस लंबे-छरहरे नौजवान में वही खूबियां थीं जो एक गीत में होती हैं. दिलों को भेदती हुई तान. जीवन का मर्म खोलते कुछ शब्द. ताली की चोट से जीवन के लिए राग और आग पैदा करने का जुनून- यह बताने की बेचैनी की ‘तू जिंदा है तो जीत में यकीन कर...’


एक कलाकार की हत्या

उसे स्कूल के बच्चे गा सकते थे और कॉलेज के नौजवान भी. उसे शहर की फैक्ट्रियों में जी-जान खपाने वाले मजदूर भी गा सकते थे और गांव के छोटे किसान भी. कला का उसका संसार ‘गांव से शहर तक’ फैला था. वह अपनी धुन में ‘औरत’ बनकर आधी आबादी का दुखड़ा सुन और सुना सकता था और बात की बात में ‘डीटीसी की धांधली’ पर भी आपसे चंद सवाल-जवाब करने को तैयार मिलता था. कहीं ‘भाईचारे का अपहरण’ हो रहा हो तो सबसे पहले उसी की नजर जाती थी और कहीं कोई ‘मशीन’ में पिस रहा तो उसकी चीख इस नौजवान को सबसे पहले सुनाई देती थी.

यों कहें कि उसके पास हर सताए हुए को सुनाने के लिए एक गीत था, दिखाने के लिए एक दृश्य और बताने के लिए एक राह थी. वह किसी जादूगर की तरह अंगुली के इशारे से भीड़ भरे चौराहे को एक बड़े नाटकघर में तब्दील कर सकता था और रोज की जिंदगी जी रहे लोगों को मिनटों में अपने नाटक का किरदार बना सकता था. वह नाटक को आपकी रोज की जिंदगी का आईना बना सकता था, एक ऐसा जादुई आईना जिसके भीतर झांककर कोई चाहे तो अपने दुखों से निजात की राह ढूंढ ले.

सफदर हाशमी नाम का यही गीत 1989 की 2 जनवरी को हमेशा के लिए मौन कर दिया गया. कलाकार ने चाहा था कि सत्ता की नगरी में किसी चौराहे पर खड़े होकर अपनी बात कहने की आजादी उसे भी हो और कलाकार की यही चाह उसके लिए मौत का पैगाम बन गई. उस दिन सड़कों की राजनीति ने आम इंसानों के बीच जाती कला का सरेआम कत्ल किया था.

हत्यारी राजनीति

वाकया 1 जनवरी 1989 का है. जन नाट्य मंच (जनम) की अपनी टोली के साथ सफदर हाशमी साहिबाबाद के झंडापुर पहुंचे. यह टोली फैक्ट्री के मजदूरों के बीच अपना नुक्कड़ नाटक ‘हल्ला बोल’ करने वाली थी. उस वक्त गाजियाबाद सिटी बोर्ड के चुनाव होने (10 जनवरी) थे और पार्षद के पद के लिए रामानंद झा सीपीएम की तरफ से प्रत्याशी थे. नाटक का एक मकसद सीपीएम प्रत्याशी का समर्थन करना भी था.

नाटक आंबेडकर पार्क में दिन के तकरीबन 11 बजे शुरू हुआ और अभी अधबीच ही था कि रामानंद झा के मुकाबले में खड़े कांग्रेस प्रत्याशी मुकेश शर्मा अपने संगी-साथियों के साथ आ धमके. कांग्रेस प्रत्याशी की यह जमात चाहती थी कि नाटक रोक दिया जाए ताकि वे लोग रास्ते से गुजर सकें. सफदर हाशमी ने बस इतना भर कहा था कि कुछ देर का इंतजार कर लीजिए या फिर कोई और रास्ता अपना लीजिए क्योंकि बीच में रोकने से नाटक की लय टूट जाएगी.

मुकेश शर्मा और उनके संगी-साथी नहीं माने. मामला मिनटों में तूल पकड़ गया. कांग्रेस प्रत्याशी और उसके संगी-साथियों ने सफदर हाशमी की टोली और नाटक देख रहे लोगों पर हमला बोल दिया. दंगाई भीड़ ने लोहे की छड़ और अन्य हथियारों का इस्तेमाल किया. इलाके के एक मजदूर राम बहादुर की मौके पर मौत हो गई. सफदर हाशमी लोगों को बचाने की कोशिश में गंभीर रूप से घायल हुए.

खून से लथपथ हाशमी को सीटू (सेंटर ऑफ इंडियन ट्रेड यूनियन, कम्युनिस्ट पार्टी का मजदूर संगठन) के दफ्तर लाया गया. मुकेश शर्मा और उसके साथी यहां भी आ धमके, यहां भी इस भीड़ ने मारपीट की. हाशमी को पहले नरेंद्र मोहन अस्पताल ले जाया गया. फिर, स्थिति को काबू में ना आता देख उन्हें राम मनोहर लोहिया अस्पताल में भर्ती कराया गया. अगले दिन यानी 2 जनवरी को सुबह 10 बजे के आसपास भारत में नुक्कड़ नाटक को नई परिभाषा और मुहावरा देने वाले इस कलाकार ने, जो महज 34 साल का था, दुनिया को हमेशा के लिए अलविदा कह दिया.

कला कभी मरती नहीं

लेकिन यह अधूरी कहानी है. कहानी पूरी तब होगी जब आप यह स्वीकार करेंगे कि मंच से किरदार विदा होता है लेकिन कहानी चलते रहती है- कला किसी के मारे से नहीं मरती. सफदर हाशमी की हत्या के बाद आंदोलनधर्मी कला के एतबार से दो बड़े वाकए हुए.

पहला वाकया 3 जनवरी को देखने में आया. दिल्ली में शायद ही किसी कलाकार की अंतिम यात्रा में कभी उतने लोग शामिल हुए हों. जनाजे में शामिल हुए लोग बताते हैं कि शवयात्रा में शामिल लोगों की कतार तकरीबन 10 मील लंबी थी. छात्र, शिक्षक, बुद्धिजीवी, अलग-अलग क्षेत्रों के कलाकार, मजदूर हर कोई शामिल था.

साभार ट्विटर

रंगकर्म की दुनिया की अजीम हस्ती इब्राहिम अलकाजी का दिया भाषण शवयात्रा में शामिल कई लोगों को आज भी याद है. सबके भीतर हताशा थी, सब पूछ रहे थे, 'क्या हमारे लोकतंत्र में सत्ता के सामने खड़े होकर अपने हिस्से का सच कहने की सजा मौत है?'

क्रोध और हताशा से भरे माहौल ने तीन महीने बाद एक बड़े आयोजन का रूप लिया, सफदर हाशमी समारोह मनाया गया. देश भर में 25,000 नुक्कड़ नाटक आयोजित हुए. सबसे बड़ा जलसा दिल्ली में हुआ. देश के कोने-कोने से अपने खर्चे पर कला की दुनिया के दिग्गज जुटे. बुद्धिजीवियों की बिरादरी एक साझे भय के भीतर खुद ही से सवाल कर रही थी कि इस देश में हक की आवाज उठाने वाली कोई आवाज सुरक्षित भी है क्या? यह समारोह देश में नुक्कड़ नाटक की तहजीब को नई जिंदगी दे गया.

दूसरी बड़ी घटना हुई 4 जनवरी को. इस दिन ‘जनम’ की टोली फिर से झंडापुर पहुंची. पहली जनवरी के दिन सत्ता के पैरों तले कुचल दिया गया वह नाटक ‘हल्ला बोल’ फिर से खेला गया. नाटक का किरदार निभा रहे रंगकर्मियों में सफदर हाशमी की विधवा मौलश्री भी शामिल थीं. निजी दुख सीने में दफ्न था और चेहरे पर था वह लौह-संकल्प कि एक दायित्व कला का भी होता है और उसे हर हाल में निभाना होता है.

उस दिन सबकी आंखों के सामने साबित हुआ था कि लोकतंत्र में दिन के उजाले और भीड़ भरे चौराहे हक की उठती आवाज की हिफाजत की गारंटी नहीं होते. दिन के उजालों पर भी निहित स्वार्थों का साया मंडराता है और सड़क के भीड़ भरे चौराहे भी आड़े वक्त आपको अकेला छोड़ देते हैं. सो, दिन के उजालों और सड़क के चौराहों पर कब्जे की एक लड़ाई हर वक्त चलती है और अपना दुख चाहे पहाड़ जैसा भारी हो लेकिन समाज के हक में इस लड़ाई से मुंह नहीं मोड़ा जा सकता.

अब के वक्त के लिए एक सबक

सफदर हाशमी की हत्या से झांकते सबक को समझने के लिए तीन दशक पहले के वक्त को आंखों में उतारना होगा. और, आज के ‘यंगिस्तान’ के नौजवान बाशिंदों के लिए उस वक्त के ‘हिन्दुस्तान’ को आंखों में उतारना नामुमकिन तो नहीं, मगर मुश्किल जरूर है.

सत्ता के शिखर से होने वाले भ्रष्टाचार के चर्चे उस वक्त भी थे. डेढ़ साल के दरम्यान ‘बोफोर्स’ का हल्ला गली-गली पहुंच गया था, दिल्ली का राज-सिंहासन उस हल्ले में डोल रहा था. प्रधानमंत्री के पद पर राजीव गांधी के अब बस 11 महीने शेष थे.

गीत को अपनी सत्ता के खिलाफ बगावत का ऐलान समझने वाली दंगाई भीड़ तब भी थी. इस भीड़ ने बस नौ माह पहले (23 मार्च,1988) पंजाब में एक कवि का कत्ल किया था. वो कवि अवतार सिंह पाश कहा करता था-

भारत के अर्थ                                                                                  किसी दुष्यंत से संबंधित नहीं                                                                  वरन खेत में दायर है                                                                          जहां अन्न उगता है                                                                                जहां सेंध लगती है

लेकिन तीस साल पहले के ‘हिन्दुस्तान’ के मिजाज में कुछ ऐसा था जरूर जो उसे आज के यंगिस्तान से बुनियादी तौर पर अलग करता है. उस वक्त रोजमर्रा के सोच पर ‘कल हो ना हो’ और ‘जिंदगी ना मिलेगी दोबारा’ का मुहावरा हावी नहीं हुआ था. ‘सबकुछ अभी और यहीं’ एक झटके में पा लेने की ख्वाहिश ऐसी भी जवान नहीं हुई थी.

अपने को केंद्र में रखकर दिखाने-झमकाने और चमकाने का चलन इस कदर हावी नहीं हुआ था. मध्यवर्ग के एक बड़े हिस्से को लगता था कि इस देश को पूंजी के नए साम्राज्यवाद के पंजे से बचाना है, सोच को पुराने अंग्रेजी उपनिवेशवाद के चंगुल से आजाद करना है. एक नया मुल्क बनाना है जिसमें राजनीति से लेकर कला-संस्कृति तक कुछ भी उधार का ना लगे.

थोड़े में कहें तो आजादी की लड़ाई के वक्त से चली आ रही ‘स्वदेश’ को खोजने और शोधने की परंपरा 1980 के दशक के उस आखिरी साल तक पहुंचकर मंद जरूरी पड़ी थी लेकिन अभी मरी नहीं थी. राजनीति में भारतीय तर्ज का ‘लोकतंत्र’ गढ़ने की कोशिश और कला के मोर्चे पर प्रगतिशील ‘दूसरी परंपरा की खोज’ जारी थी.

सफदर हाशमी, कला या कह लें नाटकों के अपने मोर्चे पर स्वदेश को खोजने और शोधने की ऐसी ही लड़ाई लड़ रहे थे. भारतीय रंगकर्म के एक अध्येता यूजेन एरवेन से अपनी मुलाकात में सफदर हाशमी ने कहा था, ‘हमें औपनिवेशिक और साम्राज्यवादी संस्कृति की उस जकड़बंदी से आजादी की जरूरत महसूस होती है जिसने पूरे देश को अपनी चपेट में ले रखा है और हमारी परंपरागत संस्कृति को बर्बाद कर दिया है. बेशक हम सारे लोग उन रूपों (कला-रूप) में काम करने की जरूरत महसूस करते हैं जिनसे हमारे लोग परिचित हैं, जिन रूपों का इस्तेमाल वे सदियों से अपनी उम्मीदों का इजहार करने में करते आए हैं. लेकिन (अभिव्यक्ति के) परंपरागत रूपों के साथ मुश्किल ये है कि उसके साथ परंपरागत अंधविश्वास, पिछड़ापन, जड़ता और सामंती सोच की तरफदारी भी चली आती है.’

सफदर हाशमी के सामने चुनौती बड़ी स्पष्ट थी. छात्र-जीवन से ही वामधारा की राजनीति में सक्रिय इस कलाकार को दिख रहा था कि समाज के ताकतवर तबके भारतीय संस्कृति की व्याख्या अपने हितों के अनुकूल कर रहे हैं. वे कला, खासकर नाटकों की दुनिया में ‘भारतीयता’ के नाम पर जो कुछ परोस रहे हैं वह ‘अपनी साज-सज्जा और रसबोध में पश्चिम के थियेटर से अलग तो निश्चित ही जान पड़ता है लेकिन भारतीयता के नाम पर उसमें सामंती हितों की तरफदारी भी चली आती है.’

नाटक भारतीय तो हो लेकिन उसमें सामंती हितों की तरफदारी ना हो. इस मुश्किल को सफदर हाशमी ने कैसे हल किया? बेहतर होगा आप उन्हीं के शब्दों में पढ़िए, 'गायन का एक रूप आल्हा कहलाता है जो अब भी उत्तरप्रदेश, हरियाणा, मध्यप्रदेश और राजस्थान में लोकप्रिय है. इसमें दो वीर भाइयों आल्हा और ऊदल की कहानी कही गई है. इस कथापरक गीत की एक खास लय है. तो, उसकी धुन, लय और कथापरक बरताव बिल्कुल मेरे जेहन का हिस्सा है. इसलिए जब मैं मई दिवस के लिए कोई गीत लिखने बैठता हूं तो मेरी कलम खुद ब खुद आल्हा-छंद में चलने लगती है.'

प्रगतिशीलता परंपरा से कटकर नहीं हो सकती लेकिन वह परंपरा का अंधानुकरण भी नहीं होती. सफदर का रंगकर्म, उनके गीत, उनकी कविता और उनकी सांस्कृतिक समझ इस एक बात की दलील है. वे कला के अपने मोर्चे पर अभिजन की तरफ नहीं बल्कि अवाम की तरफ खड़े थे. उन्होंने यहीं से खड़े होकर नाटकों की रचना और उनकी प्रस्तुति को लोकधर्मी बनाया.

एक साझे का उपक्रम जिसमें नाटक, रंगकर्मी, दर्शक, विषय और प्रस्तुति का रूप सब एक-दूसरे से मिलकर एक हो जाते थे. उनकी कला को उनकी राजनीति (मार्क्सवादी) से अलगाया नहीं जा सकता लेकिन आप यह भी नहीं कह सकते कि उनका रंगकर्म राजनीतिक प्रचार का एक हथकंडा था या फिर यह कि उसमें लोगों को एक छलावे में बांधने और इस तरह रोज की तल्ख हकीकतों से बचाए रखने की कवायद थी.

और, आखिर में

लेख के इस मुकाम पर आकर आप सोच रहे होंगे कि कलाकार के कत्ल की इस कहानी का अंत क्या हुआ? क्या दोषियों को सजा मिली? हत्या दिन-दहाड़े हुई थी, चश्मदीद भी कम ना थे मगर मुकदमा पूरे 14 साल चला. 3 नवंबर, 2003 को गाजियाबाद की अदालत ने मुकेश शर्मा और 12 लोगों को दोषी ठहराया लेकिन एक तथ्य यह भी है कि उस वक्त तक मुजरिम करार दिए गए दो लोग दुनिया से कूच कर चुके थे.