view all

रोहिंग्या मुस्लिम पार्ट 1 : 1935 में भी हुआ था भारत का 'बंटवारा'

1935 में ब्रिटिश संसद ने गवर्नमेंट ऑफ इंडिया एक्ट पास किया. इसमें दो एक्ट थे. गवर्नमेंट ऑफ इंडिया एक्ट और गवर्नमेंट ऑफ बर्मा एक्ट

Ajay Kumar

संपादक के कलम से: भारत में चालीस हजार से ज्यादा रोहिंग्या मुसलमान शरणार्थी के तौर पर रह रहे हैं. हाल ही में भारत सरकार ने उन्हें वापस भेजने का फैसला किया है.तीन किस्तों की इस सीरीज में अजय कुमार बेमुल्क रोहिंग्या मुसलमानों के बारे में विस्तार से बताएंगे. दूसरे भाग में रोहिंग्या मुसलमानों के भारत से रिश्ते पर चर्चा होगी. तीसरी किस्त में उन्हें देश से निकलाने पर भारत को क्या दिक्कतें हो सकती हैं, इस पर चर्चा होगी. पेश है इस सीरीज की पहली किस्त...

मशहूर ब्रिटिश लेखक रुडयार्ड किपलिंग ने अपनी नज्म मांडले में ब्रिटिश राज के दौरान के बर्मा का खूबसूरत जिक्र किया है. अंग्रेजी की उस कविता का तर्जुमा करें तो कुछ इस तरह होगा-


शांत समंदर के किनारे स्थित मौलमें के पुराने पगोडा के पास

बैठी है बर्मा की एक लड़की, मुझे पता है वो मेरे बारे में सोच रही है

क्योंकि उसका पैगाम मुझे ताड़ के दरख़्तों को छूकर गुजरती हवा देती है

उसका संदेश मुझे मंदिर की घंटियां देती हैं

वो लड़की कहती है-ऐ बर्तानवी सैनिक लौट आओ, मांडले लौट आओ!

किपलिंग की इस कविता की नजर से देखें तो ब्रिटिश राज का बर्मा एक शांत और खूबसूरत देश समझ आता है. ऐसी जगह जहां अंग्रेज, स्थानीय लोगों के साथ घुल-मिलकर रहते थे. लेकिन उस वक्त की हकीकत इससे बिल्कुल उलट थी. उस वक्त बर्मा में बहुत कम ब्रिटिश नागरिक रहते थे. उस वक्त भारत के तमाम हिस्सों से लोग बसने के लिए बर्मा जा रहे थे.

बर्मा पर ब्रिटिश राज की शुरुआत 1824-26 के बीच हुए पहले अंग्रेज-बर्मा युद्ध के बाद हुई थी. इस युद्ध के खात्मे के बाद बर्मा के अवा साम्राज्य और ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी के बीच समझौता हुआ. बर्मा ने असम, मणिपुर, अराकान और टेनासेरिम का कुछ हिस्सा ब्रिटिश ईस्ट इंडिया को दे दिया. ईस्ट इंडिया कंपनी ने बर्म के इन इलाकों को बंगाल प्रेसीडेंसी का हिस्सा बनाया.

इसके बाद भी बर्मा और ब्रिटिश फौजों के बीच तीन युद्ध हुए. 1885 में बर्मा ब्रिटिश भारत का एक सूबा बन गया. 1887 में इसे बड़े अहम सूबे का दर्जा दिया गया.

ब्रिटिश शासन के उस दौर में भारत के तमाम हिस्सों से जाकर लोग बर्मा में बसे थे. इसकी वजह ये थी कि बर्मा, भारत का ही एक हिस्सा था. अराकान के पहाड़ी इलाकों में स्थित चाय के बागानों में काम करने के लिए बहुत से लोग बर्मा गए थे.

जम्मू में रोहिंग्या मुस्लिम समुदाय का एक बच्चा.

कई बार लोगों की जिंदगी में किस्मत का रोल इतना अहम होता है, जितना वो सपने भी नहीं कर सकते. ब्रिटिश बंगाल और ब्रिटिश बर्मा में रहने वाले कुछ लोगों के साथ ऐसा ही हुआ. उनकी किस्मत की इबारत पत्थरों से लिखी गई.

लाखों साल पहले जब भारतीय उप महाद्वीप की प्लेट, यूरेशिया की प्लेट से टकराई, तो दोनों के बीच एक कुदरती सरहद बन गई. इस सरहद को आज हम हिमालय के नाम से जानते हैं.

ये सरहद अफगानिस्तान में हिंदू-कुश और काराकोरम पर्वतों के नाम से पुकारी जाती है. पूर्वी भारत में इसे कहीं मिजो पहाड़ियां, कहीं चान पहाड़ियां कहते हैं. बर्मा में ये अराकान पर्वत के नाम से जानी जाती है.

अराकान के पहाड़ भारत और बर्मा के बीच कुदरती सीमा का काम करते हैं. पहले के जमाने में इन पहाड़ों को पार करके दूसरी तरफ आना-जाना बहुत मुश्किल था. यही वजह है कि भारतीय उप-महाद्वीप के लोग इंडो-आर्यन जबान बोलते हैं. वहीं चीन और दूसरे इलाकों के लोग चीनी-तिब्बती भाषाएं बोलते हैं. उन्नीसवीं और बीसवीं सदी से पहले पहाड़ों को पार करके जाना बहुत बड़ी बात हुआ करती थी. बहुत कम लोग ऐसे सफर पर निकला करते थे.

हालांकि पहाड़ के आर-पार रहने वालों के बीच किसी न किसी रूप में संपर्क हुआ करता था. जैसे अराकान के सुल्तान मिन सॉ मोन ने भागकर बंगाल में पनाह ली थी. मिन ने 24 साल बाद बंगाल के सुल्तान की मदद से अपनी सल्तनत दोबारा हासिल की थी. इस मदद के एवज में उसने अपनी कुछ जमीन बंगाल के सुल्तान को दी थी और वो बंगाल के सुल्तान के मातहत राज करने को भी राजी हुआ था. इसी ऐतिहासिक घटना के जरिए पूर्वी इलाके में पहली बार मुसलमानों की आमद हुई थी.

लेकिन मिन के वारिस ने बंगाल से रिश्ता तोड़ लिया. उसने 1785 में अराकान पर दोबारा कब्जा कर लिया. वहां से स्थानीय लोगों को भगा दिया गया. इन्हें रखीने कहा जाता था. इन लोगों ने वहां से भागकर ब्रिटिश भारत में पनाह ली. जिस वक्त अंग्रेजों ने अराकान इलाके में एंट्री की, उस वक्त यहां की आबादी बेहद कम थी.

बर्मा जब बंगाल या फिर ब्रिटिश भारत का हिस्सा था, तो इस इलाके में सीमा की रखवाली उतनी सख्त नहीं थी. बर्मा की इरावदी नदी के डेल्टा में धान के खेतों में काम करने के लिए सस्ते मजदूरों की जरूरत थी. ईस्ट इंडिया कंपनी ने इस समस्या के समाधान के लिए पूर्वी बंगाल के लोगों को बर्मा में बसाना शुरू किया. ये लोग पहले बागानों में काम किया करते थे. हालांकि लोगों का एक इलाके से दूसरे इलाके में बसने का सिलसिला पूरे देश में चल रहा था. मगर अंग्रेजों ने बर्मा के मामले में ये खास तौर से किया था.

दिल्ली में एक रोहिंग्या समुदाय शरणार्थी महिला

1927 तक बर्मा की राजधानी ने अप्रवासियों की आमद के मामले में न्यूयॉर्क को भी पीछे छोड़ दिया था. 13 लाख की आबादी वाले शहर में 4 लाख 80 हजार लोग बाहर से आकर रंगून में बसे थे.

1935 में ब्रिटिश संसद ने गवर्नमेंट ऑफ इंडिया एक्ट पास किया. इसमें दो एक्ट थे. गवर्नमेंट ऑफ इंडिया एक्ट और गवर्नमेंट ऑफ बर्मा एक्ट. इस एक्ट के जरिए भारत और बर्मा को अलग-अलग कर दिया गया. हालांकि दोनों ही ब्रिटिश साम्राज्य का हिस्सा थे. इसी वजह से दोनों देशों के बीच की सीमा को पूरी तरह से साफ नहीं किया गया.

एक्ट में कहा गया कि बंगाल, मणिपुर, असम और असम के कबाइली इलाकों से पूर्व में स्थित इलाका बर्मा कहलाएगा. ये भारत का पहला बंटवारा था. इस एक्ट में रोहिंग्या मुसलमानों के भविष्य के बारे में कुछ नहीं कहा गया था. हालांकि वो ब्रिटिश राज की प्रजा थे. लेकिन रोहिंग्या मुसलमानों का अपना कोई मुल्क नहीं था.

1947 में भारत को आजादी मिली. लेकिन 1935 में देश के पहले बंटवारे की विरासत के तौर पर भारत को कुछ अजीबो-गरीब जिम्मेदारियां मिलीं. इनका जिक्र इस सीरीज की अगली किस्त में.